हर्षवर्धन त्रिपाठी
राहुल गांधी को लेकर बार-बार ये कहा जाता है कि इतनी शानदार विरासत को वो संभाल नहीं पा रहे हैं। ये बात इतनी बार और इतने तरीके से कही जा चुकी है कि देश को राहुल गांधी पर अब नेता के तौर पर भरोसा हो ही नहीं पाता है। क्योंकि, देश के लोगों को लगने लगा है कि राहुल गांधी ही दरअसल नाकाबिल हैं। जबकि, कांग्रेस की और गांधी परिवार की विरासत बहुत समृद्ध है। इससे राहुल गांधी की नेतृत्व की क्षमता पर सवाल और गंभीर होता जाता है। अब सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी को सचमुच इतनी शानदार विरासत मिली है। जिसे वो आगे नहीं ले जा पा रहे हैं। या दरअसल सचाई ये है कि राहुल गांधी को एक चुकी हुई विरासत मिली थी। एक पार्टी के तौर पर भी और एक परिवार के तौर पर भी।
इस समय न कांग्रेस के प्रति देश के लोगों में कोई उत्साह सम्मान बचा है ना गांधी परिवार के प्रति। इसीलिए मुङो लगता है कि राजनीतिक विश्लेषकों और देश की जनता को राहुल गांधी की समीक्षा एक समृद्ध विरासत वाले राजकुमार की बजाए एक चुकी हुई विरासत के वारिस के तौर पर करनी चाहिए। तब शायद यादा बेहतर समीक्षा राहुल गांधी की हो सकेगी।
राहुल गांधी की सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि राजनीतिक विश्लेषक और देश की जनता आज के समय में उनकी काबिलियत की तुलना उनके पिता राजीव गांधी से कर रही है। भले ही भारतीय जनमानस में राजीव गांधी की छवि एक गजब के नेता के तौर पर बनी हुई है। जिसने सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली और देश का सबसे नौजवान प्रधानमंत्री बन गया। लेकिन, विश्लेषक ये भूल जाते हैं कि दरअसल राजीव गांधी के अंदर भी नेतृत्व का कतई कोई गुण नहीं था। होता तो वो ब्रिटेन से पढ़ाई करके भारत लौटने के बाद अपनी माँ इंदिरा के साथ राजनीति के गुर सीखते और देश को राजनीतिक तौर पर आगे ले जाने की कोशिश करते। लेकिन, राजीव गांधी ने ऐसा कतई नहीं किया। राजीव गांधी लौटकर सरकारी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए। और ये कोई बताने की जरूरत तो है नहीं कि जिस सत्ताधारी परिवार से वो आते थे। उसमें पायलट बनने की उनमें भले सारी योग्यता रही हो। दरअसल योग्यता की कोई जरूरत थी नहीं। 1980 में अगर संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु न हुई होती, तो शायद राजीव गांधी चुपचाप विमान उड़ाते रहते और देश शायद ही उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर याद कर पाता।
राहुल गांधी पर अकसर ये आरोप लगता है कि वो अपनी पारिवारिक अमेठी सीट से बाहर शायद ही चुनाव जीत सकें। लेकिन, ये कहने वाले भूल जाते हैं कि राजीव गांधी भी 1980 में संजय गांधी की मृत्यु के बाद उनकी पारिवारिक सीट से ही जीतकर आए थे। हालांकि, उस समय देश में जो स्थिति थी, उसमें राजीव गांधी कहीं से भी चुनाव लड़ते और जीत जाते। राजीव गांधी की उपलब्धि के तौर 1982 के एशियन खेलों को कराना भी बताया जाता है। उस समय राजीव गांधी कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे। लेकिन, क्या राजीव गांधी ने कोई ऐसी विरासत दी थी, जिसे लेकर ये कहा जाए कि गांधी परिवार या कांग्रेस की समृद्ध विरासत राहुल गांधी को मिली थी, लेकिन, वो इसे संभाल नहीं पाए। राजीव गांधी अगर प्रधानमंत्री बन सके तो उसके पीछे इंदिरा गांधी की हत्या की बुनियाद पर मिला जबर्दस्त बहुमत था।
अगर ऐसे प्रधानमंत्री बनना होता, तो सोनिया गांधी 2009 में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना सकती थीं। और कल्पना करके देखिए कि कभी-कभी ही सही लेकिन, राहुल जब बांहें चढ़ाते, कुछ चुने मुद्दों पर गुस्साते नजर आते, तो क्या जनता के बीच उनकी छवि मनमोहन सिंह से बेहतर होती या नहीं। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि राहुल गांधी जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर होते, तो निश्चित तौर पर इस देश की जनता में एक बड़ा वर्ग और खासकर सत्ता से चिपके रहने वाले कांग्रेसी नेताओं का एक बड़ा वर्ग तो निश्चित तौर पर राहुल गांधी को महानतम प्रधानमंत्री बनाने के सैकड़ों नुस्खे खोजकर उसे अमल में ला देता। क्योंकि, प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गांधी ने कुछ ऐसा नहीं किया था। जो खास हो। लेकिन, राजीव गांधी की बात होते ही नए भारत का निर्माता टाइप विशेषण राजीव गांधी के लिए कहा जाता है।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही भोपाल गैस कांड हुआ था। ये इतना बड़ा धब्बा है कि किसी भी नेता के सारे जीवन को कलंकित करने के लिए काफी था। लेकिन, भोपाल गैस कांड के बाद भी राजीव गांधी की छवि बेदाग नेता की ही रही। बोफोर्स घोटाला भी राजीव गांधी के समय में ही हुआ। उसी की वजह से 1989 में वीपी सिंह सत्ता में आए। ये राजीव गांधी ही थे जिनके समय में शाहबानो का मामला सामने आया। ये 542 में से 411 सीटें पाकर प्रचंड बहुमत वाली कांग्रेस थी। सोचिए, इतने प्रचंड बहुमत वाली सरकार के मुखिया होने के बावजूद राजीव गांधी देश के लिए क्या खास कर पाए। फिर भी राजीव गांधी को भारत रत्न से नवाज दिया गया। दरअसल इसी सब वजह से राहुल गांधी पर ये दबाव बनता है कि वो इतनी बड़ी विरासत संभाल नहीं पाए।
राहुल गांधी की डिग्रियों पर कई बार सुब्रमण्यम स्वामी सवाल उठा चुके हैं। लेकिन, शायद ही कभी इस बात की चर्चा हुई हो कि राजीव गांधी 1965 तक टिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज में पढ़ने के बावजूद अपनी डिग्री पूरी नहीं कर सके। विकीपीडिया पर अभी भी ये साफ लिखा हुआ दिखता है। ये राजीव गांधी ही थे जिन्होंने एक बयान दिया था कि बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है। राजीव गांधी का वो बयान अगर आज के समय में आया होता, तो 24 घंटे के टीवी चैनल और सोशल मीडिया ने राजीव गांधी को क्या से क्या बना दिया होता। राजीव गांधी का वो वीडियो अब उपलब्ध है। उसे देखकर साफ लगता है कि राहुल गांधी दरअसल उसी विरासत को संभाल रहे हैं। जो उन्हें मिली थी।
मीडिया आंदोलन के इस समय में राहुल गांधी नाकाम साबित हो रहे हैं। जबकि, सचाई यही है कि राहुल गांधी राजनीति में आने के अनिछुक होने के बावजूद अपनी हर कोशिश कर रहे हैं कि वो कांग्रेस के नेता बन सकें। दिक्कत बस इतनी है कि उनके पिता को प्रचंड बहुमत वाली सरकार मिल गई थी। उनके पिता के समय में मीडिया ऐसा नहीं था जो छोटी-छोटी बातों पर किसी नेता को धूल में मिला देता है। या फिर आसमान में खड़ा कर देता है। दरअसल राजीव गांधी उस समय के नेता थे, जब कांग्रेस के निष्ठावान लोगों का देश भारत हुआ करता था। उसमें सबसे बड़ी सेंध लगाने का काम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था। लेकिन, लिट्टे ने जिस तरह से राजीव गांधी की निर्मम हत्या कर दी। उससे राजीव गांधी पर लगे सारे दाग धुल गए। राजीव गांधी के समय से स्थितियां एकदम उलट हैं। दरअसल राहुल गांधी को विरासत में पाने के लिए खास बचा नहीं है और राहुल गांधी की परवरिश ऐसी हुई नहीं है कि वो कांग्रेस को नए सिरे से लोगों के करीब पहुंचा सकें।
इस समय न कांग्रेस के प्रति देश के लोगों में कोई उत्साह सम्मान बचा है ना गांधी परिवार के प्रति। इसीलिए मुङो लगता है कि राजनीतिक विश्लेषकों और देश की जनता को राहुल गांधी की समीक्षा एक समृद्ध विरासत वाले राजकुमार की बजाए एक चुकी हुई विरासत के वारिस के तौर पर करनी चाहिए। तब शायद यादा बेहतर समीक्षा राहुल गांधी की हो सकेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )