2008 में उत्तराखंड के जिम कार्बेट में छात्रों से बात करते हुए राहुल गांधी ने कहा था- ‘मैं अगर अपने परिवार से नहीं आता तो यहां नहीं होता। आप अपने परिवार, मित्र या पैसे के बल पर सिस्टम में प्रवेश कर सकते हैं। मेरे पिता राजनीति में थे, मेरी दादी और दादी के पिता राजनीति में थे, इसलिए मेरे लिए राजनीति में आना और पैर जमाना आसान था। ये एक समस्या है और मैं इस समस्या का लक्षण हूं। मैं इसे बदलना चाहता हूं।‘ अपनी राजनीति के शुरुआती दिनों में राहुल गांधी वंशवाद को समस्या मानते रहे थे; लेकिन उस वक्त भी जब भी मौका मिलता था अपने परिवार के बारे में, अपने वंशजों के बारे में बातें करने से नहीं चूकते थे।
कथा सम्राट प्रेमचंद ने कहा था कि सिर्फ मूर्ख और मृतक अपने विचार नहीं बदलते हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद को लेकर हाल ही में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेमचंद के इस कथन का साबित भी किया। अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक बातचीच में राहुल गांधी ने कहा कि भारत वंशवाद से ही चल रहा है। इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव से लेकर तमिलनाडु के नेता करुणानिधि के बेटे स्टालिन तक का तो नाम लिया ही, उन्होंने अभिषेक बच्चन को भी वंशवाद के प्रतिनिधि के तौर पर रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि पूरा देश ही ऐसे चल रहा है लिहाजा सिर्फ उनको वंशवाद के आधार पर लक्षित करने की जरूरत नहीं है।
अब जरा फ्लैशबैक में चलते हैं। 2008 में उत्तराखंड के जिम कार्बेट में छात्रों से बात करते हुए राहुल गांधी ने कहा था- ‘मैं अगर अपने परिवार से नहीं आता तो यहां नहीं होता। आप अपने परिवार, मित्र या पैसे के बल पर सिस्टम में प्रवेश कर सकते हैं। मेरे पिता राजनीति में थे, मेरी दादी और दादी के पिता राजनीति में थे, इसलिए मेरे लिए राजनीति में आना और पैर जमाना आसान था। ये एक समस्या है और मैं इस समस्या का लक्षण हूं। मैं इसे बदलना चाहता हूं।‘ अपनी राजनीति के शुरुआती दिनों में राहुल गांधी वंशवाद को समस्या मानते रहे थे; लेकिन उस वक्त भी जब भी मौका मिलता था अपने परिवार के बारे में, अपने वंशजों के बारे में बातें करने से नहीं चूकते थे।
2007 में ही यूपी में एक रोडशो के दौरान उन्होंने जोर देकर कहा था कि वो एक ऐसे परिवार से आते हैं जो अपने वचन से डिगता नहीं है, अपने वादों से पीछे नहीं हटता है। उस वक्त भी ये बात समझ में आ रही थी कि एक डायनेस्ट वंशवादी राजनीति के खिलाफ बातें तो कर रहा है लेकिन उसको अपने परिवार पर, अपनी विरासत पर गर्व भी है।
कांग्रेस में वंशवाद की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी थीं कि उसको डायनेस्टी से मुक्त करवाने की उनकी तमाम कोशिशें, अगर कोई थीं तो, नाकाम रही थीं। जो शख्स 2008 में वंशवाद को समस्या मान रहा था, वही नौ साल बाद उसको भारत की पहचान के तौर पर पेश कर रहा है, तो हुई ना प्रेमचंद की बातें सही। राहुल गांधी ने भी वही तर्क दिए जो चापलूस कांग्रेसी सालों से दे रहे हैं कि नेता की क्षमता पर बात हो उसके परिवार पर नहीं।
अगर हम भारतीय राजनीति के इतिहास पर नजर डालें तो ये साफ तौर पर नजर आता है कि नेहरू-गांधी परिवार ने कायदे से अपने बच्चों को राजनीति में बढ़ावा दिया। आजादी पूर्व 1928 में मोतीलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे और उन्होंने अपने बाद अपने बेटे के सर पर कांग्रेस अध्यक्ष का ताज रखने के लिए गांधी जी को 13 जुलाई 1929 को एक पत्र लिखा था, जिसमें साफ तौर पर कहा था कि या तो आप या जवाहरलाल कांग्रेस की बागडोर संभालें। बाद में 1929 में जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया।
जब लाहौर अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष का चार्ज दिया तो उस वक्त इंदिरा गांधी बारह साल की थी और वहां मौजूद थीं। आजादी के बाद जब नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इंदिरा गांधी को भविष्य की राजनीति के लिए तैयार किया और 1959 में उनको कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया।
अगर उस दौर के नेताओं पर नजर डालें तो तो इंदिरा से ज्यादा काबिल नेता कांग्रेस में थे। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वंशवाद खुलकर सामने आ गया। संजय गांधी एक वक्त में काफी ताकतवर थे, उनके निधन के बाद इंदिरा ने राजीव गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने। राजीव की हत्या के बाद सोनिया और उनके बाद राहुल। जो सोनिया गांधी अपने पति के राजनीति में आने के खिलाफ थीं, उनको अपने बेटे में संभावनाएं दिखने लगीं। डायेनेस्टिक पॉलिटिक्स भारत में नहीं, बल्कि चंद परिवारों में चल रही है।
इसके अलावा राहुल गांधी ने कश्मीर के आतंकवाद से लेकर नोटबंदी और असहिष्णुता पर भी अपनी राय रखी। राहुल गांधी के बयानों पर लहालोट होनेवाली ब्रिगेड को उनके बयानों में अंतर्विरोध नजर नहीं आया। कश्मीर में बढ़ते आतंकवाद पर उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा और कहा कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उनलोगों ने घाटी में पसरे आतंकवाद को बेहद कम कर दिया था, लेकिन ‘कैसे’ ये नहीं बताया। इसी तरह से नोटबंदी को लेकर भी भारत सरकार पर निशाना साधा लेकिन राहुल गांधी ये भूल गए कि नोटबंदी के बाद यूपी चुनाव में जनता ने भाजपा को भारी जनादेश दिया था।
अब रहती है बात असहिष्णुता की तो इस शब्द का रॉर्ड इतनी बार बज चुका है कि अब जब ये बजता है तो कोई प्रभाव नहीं छोड़ता है। असहिष्णुता की बात करनेवाले राहुल गांधी को कालबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या में कांग्रेस सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने चाहिए। हर चीज में आरएसएस का हाथ बताकर पल्ला झाड़ने से काम नहीं चलनेवाला है।
अब वो दौर चला गया कि हर चीज के पीछे विदेशी हाथ बताकर काम चल जाता था। जनता को भरमाना अब आसान नहीं है, जनता अब ठोस कार्रवाई तो चाहती ही है, ठोस आरोप भी देखना सुनना चाहती है। अरविंद केजरीवाल की आरोपों की राजनीति के बाद अब जनता का हवा-हवाई आरोपों में यकीन रह नहीं गया है। इस बात को राहुल गांधी को समझना होगा और राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जाकर अपनी बात कहने के पहले होमवर्क भी करना होगा। वरना बार बार प्रेमचंद याद आते रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)