राहुल गांधी आजकल थोड़े फ़िल्मी और मनोरंजक भाषण देने लगे हैं, जिसके आधार पर यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि उनमें परिवर्तन आ गया है। वे राजनीतिक रूप से परिपक्व हो रहे हैं। कांग्रेस को समझना चाहिए कि फ़िल्मी भाषणों से चुनावों में जीत नहीं मिलती, उसके लिए सत्ता में होने पर काम करना पड़ता है और विपक्ष में होने पर जनता के मुद्दों पर बात करनी पड़ती है। जबकि इस चुनाव जनता की मुद्दों की बजाय कांग्रेस फिजूल के मुद्दों पर ही बात करती नजर आ रही है।
गुजरात विधानसभा चुनाव की चर्चाएं सियासी गलियारों में जोरों पर हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों दल अपने-अपने स्तर पर यहां चुनावी सभाएं कर रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रदेश का दौरा किया और प्रदेशवासियों के लिए करोड़ों रुपए लागत के निर्माण कार्यों का शिलान्यास किया। भाजपा जहां सकारात्मक ढंग से अपने ध्येय वाक्य ‘सबका साथ सबका विकास’ को लेकर आगे बढ़ रही है, वहीं कांग्रेस हमेशा की तरह नकारात्मक बातों को बेसिर पैर का मुद्दा बनाने में जुटी है। कांग्रेस जीएसटी और नोटबंदी जैसे मसलों को भुनाने में लगी है, जबकि ये विषय यहां असंगत हैं। नोटबंदी व जीएसटी समूचे भारत पर लागू होने वाली व्यवस्थाएं हैं, इनका दायरा गुजरात विशेष कतई नहीं है।
जहां तक केवल गुजरात की बात है, यहां पर हुए बेहिसाब विकास कार्यों के उत्तरोत्तर विकास के संदर्भ में ही बात होनी चाहिये। मगर, उस मसले पर कांग्रेस मात खा चुकी है। लिहाजा, राहुल गांधी यहां भी हमेशा की तरह निराधार बातों को तूल देकर अपना व जनता का समय नष्ट कर रहे हैं। वे यहां की चुनावी सभाओं में सतही बयानबाजी करके सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
जीएसटी को लेकर उन्होंने एक चलताऊ शब्द की संज्ञा दी और साबित कर दिया कि इस गंभीर माहौल में भी उन्हें मसखरापन ही सूझ रहा है। निश्चित ही उनमें गंभीरता नहीं है और चुनाव जैसे महत्वपूर्ण आयोजन को भी वे महज जुमलेबाजी और मनोरंजन का बहाना मानकर चल रहे हैं। राहुल गांधी आजकल थोड़े फ़िल्मी और कटाक्षपूर्ण तथा मनोरंजक भाषण देने लगे हैं, जिसके आधार पर यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि उनमें परिवर्तन आ गया है। कांग्रेस को समझना चाहिए कि फ़िल्मी भाषणों से चुनावों में जीत नहीं मिलती, उसके लिए सत्ता में होने पर काम करना पड़ता है और विपक्ष में होने पर जनता के मुद्दों पर बात करनी पड़ती है। जबकि कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर अपनी विफलता सिद्ध कर चुकी है।
असल में बीते चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन पर पर्दा डालते हुए कांग्रेसी नेताओं ने अतार्किक ढंग से उनको बड़ी जिम्मेदारी देने की बात उठा दी है। दरअसल ये उनकी पार्टी अध्यक्ष पद पर ताजपोशी की सुनियोजित रणनीति के तहत हो रहा है। यह बात कांग्रेसी भी भीतरी तौर पर जानते हैं कि उनके पास ना कोई नेता है, ना जनता को लुभाने वाला चेहरा, ना ही कोई मुद्दा और ना ही कोई जनाधार, इसलिए पार्टी मजबूरी में असफल राहुल गांधी पर ही दांव लगा रही है। गुजरात चुनाव को लेकर राहुल गांधी हर प्रकार के हथकंडों का उपयोग करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
राहुल गांधी गुजरात में हिंदू मंदिरों में माथा टेकते भी देखे गए। ये वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने अत्यंत निंदनीय बयान दिया था कि लोग मंदिरों में महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए जाते हैं। उनसे पूछा जाना चाहिये कि गुजरात में वे मंदिर किस उद्देश्य से जा रहे हैं। जिस कांग्रेस सरकार ने बीते वर्षों में हिंदू धर्म को लगातार नुकसान पहुंचाने का काम किया, वो आज अचानक इतनी धर्मप्राण कैसे हो गई।
वास्तविकता तो यही है कि कांग्रेस के पास मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए अब कोई आधार नहीं बचा है। गुजरात में केवल विकास ही सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है क्योंकि हाल ही में बुलेट ट्रेन जैसे बड़े प्रोजेक्ट की नींव वहीं से रखी गई, लेकिन कांग्रेस केवल आधारभूत मसलों से ध्यान भटकाने में लगी है। चूंकि, कांग्रेस केवल राहुल गांधी के दम पर एक और दांव खेलकर हारना नहीं चाहती इसलिए इस बार कांग्रेस खुले मन से छुटभैये नेताओं को जोड़ने में जुटी है। यही कारण है कि ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में शामिल हो पाए और पाटीदार आरक्षण के नाम पर गुजरात सहित देश भर में अराजकता और हिंसा का खेल खेलने वाले हार्दिक पटेल भी कांग्रेस में शामिल होने के संकेत दे चुके हैं।
उधर, राज्य के दलित नेता जिग्नेश मेवानी लगातार भाजपा के खिलाफ विष वमन कर रहे हैं, जो कि उनकी असुरक्षा व घबराहट को साबित करता है। चूंकि गुजरात में पचास फीसदी से अधिक पिछड़ा वर्ग है, ऐसे में कांग्रेस का लक्ष्य इस समुदाय को रिझाकर उसे वोटबैंक में तब्दील करना है। अल्पेश ठाकोर जैसे नेताओं का रातोरात राष्ट्रीय सुर्खियों में आ जाना इसी को परिलक्षित करता है। यदि कांग्रेस आत्म-मूल्यांकन करके देखे तो पाएगी कि गुजरात में सबसे अधिक संख्या में बागी विधायक कांग्रेस के ही रहे हैं।
इसी साल क्रमवार रूप से एक दर्जन से अधिक कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया था। चुनावी अटकलें तो ये भी कहती हैं कि कांग्रेस के 14 बागी विधायक भाजपा की ओर से चुनावी मैदान में आ सकते हैं। गुजरात का चुनाव कुछ हद तक रोचक और काफी हद तक निर्णायक भी साबित होगा क्योंकि इस चुनाव के साथ राहुल गांधी की साख भी एकबार फिर दांव पर लगी है।
राहुल गांधी का अब तक का रिकार्ड रहा है कि वे जहां जाते हैं, वहां कांग्रेस का नुकसान कर बैठते हैं। यदि गुजरात चुनाव परिणाम में भी ऐसा ही कुछ निकलकर सामने आता है तो इतना तय हो जाएगा कि कांग्रेस जिस किरदार को अपना भावी अध्यक्ष बनाने के सपने देख रही है, वह एक औसत कार्यकर्ता से बढ़कर नहीं है।
गुजरात चुनाव का परिणाम किस दल के पक्ष में जाएगा, यह तो मतदाता का मिजाज और वक्त ही बताएगा, लेकिन इतना जरूर तय है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए ऊटपटांग बयानबाजी करके कहीं के भी मतदाताओं का दिल नहीं जीता सकता, क्योंकि जनता बहुत समझदार हो चुकी है। कुल मिलाकर गुजरात में जहां भाजपा की कोशिश अपनी विकास यात्रा को उत्तरोत्तर आगे ले जाने की है, वहीं कांग्रेस अपना पूरा समय व्यर्थ की बयानबाजी और जातिवादी समीकरणों को साधने में नष्ट कर रही है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)