बर्कले में राहुल छात्रों से चर्चा के दौरान परिवारवाद से जुड़े सवाल पर घिरते नज़र आये तो बचाव में उन्होंने खुद को स्थापित करने के लिए विचित्र तर्क गढ़ दिया। वे बचकानी दलीलें देने लगे। उन्होंने ज्ञान बघार डाला कि भारत वंशवाद से चलता है। इसी कड़ी में वे अखिलेश यादव, एम के स्टालिन, अभिषेक बच्चन, मुकेश अम्बानी आदि के नामों का उदाहरण देते हुए परिवारवाद को जायज ठहराने की नाकाम कोशिश करने लगे। हालाँकि उन्होंने जिन–जिन लोगों का नाम लिया, उनमें से ज्यादातर लोग वर्तमान में अपने-अपने कार्यक्षेत्र में हाशिये पर हैं।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, बर्कले में छात्रों से चर्चा के दौरान कई ऐसी बातें कहीं जो कांग्रेस के भूत और भविष्य की रूपरेखा का संकेत दे रही हैं। इस व्याख्यान में राहुल गाँधी ने नोटबंदी, वंशवाद की राजनीति सहित खुद की भूमिका को लेकर पूछे गये सवालों के स्पष्ट जवाब दिए। मसलन 2014 के आम चुनाव से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए राहुल गाँधी ने कहा कि कांग्रेस 2012 के आसपास घमंडी हो गई थी और लोगो से संवाद करना बंद कर दिया था। वहीं अपनी भूमिका को लेकर पूछे गये सवाल में राहुल ने कांग्रेस में आगामी बड़े बदलाव का संकेत देते हुए कहा कि वह पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
राहुल भले ही यह सब बातें अमेरिका में बोल रहे थे, किन्तु भारत के सियासी गलियारों में इसकी चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि क्या कांग्रेस की ताकत का स्थानांतरण दस जनपथ से बारह तुगलक लेन होने जा रहा है ? ऐसा माना जा रहा है कि अगले महीने होने जा रहे संगठनात्मक चुनाव में समूची कांग्रेस पर राहुल गाँधी का वर्चस्व होगा अर्थात राहुल को पार्टी की कमान सौंप दी जाएगी। राहुल को अध्यक्ष बनाएं जाने की चर्चा पहले भी होती रही है, किन्तु एक सवाल भी खड़ा होता है कि क्या दस जनपथ को मानने वाले राहुल को अध्यक्ष के रूप में स्वीकार करेंगे ?
यह सर्वविदित है कि कांग्रेस में सत्ता के दो केंद्र है कांग्रेस का युवा गुट लोकसभा चुनाव के बाद से ही राहुल को अध्यक्ष बनाने के लिए प्रयासरत है, वहीं जो कांग्रेस के बुजुर्ग अथवा वरिष्ठ नेता हैं, वो राहुल को लेकर अंदर ही अंदर आशंकित भी हैं। हालांकि लगता नहीं कि इससे कोई बड़ा टकराव पैदा होगा, क्योंकि सोनिया के प्रति निष्ठावान कांग्रेसी उनके सुपुत्र राहुल गांधी के प्रति भी मन-बेमन से समर्थन जाहिर कर ही देंगे।
गौर करें तो आज लगातार सिकुड़ती जा रही कांग्रेस में बड़े बदलाव की जरूरत है, यह बात लोकसभा चुनाव से ही उठ रही है किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस आज भी परिवारवाद से ऊपर कुछ सोच नहीं रही। कांग्रेस में बदलाव से पहले इस बात को गंभीरता से लेना होगा कि जो भी नेतृत्वकर्ता होगा उसके लिए पार्टी के अंदर तथा बाहर दोनों तरह चुनौतियों का ताज़ सर पर सजेगा। एक तरफ़ जहाँ मोदी और शाह की जुगलबंदी से बनी रणनीति ने सबको हैरत में डाल रखा है। पार्टी सत्तासीन होने के बावजूद लगातार लोगो से संवाद स्थापित कर रही है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस नेतृत्व के संकट से गुजर रही है।
अगर राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाया जाता है, तो यह कांग्रेस के लिए बदलाव तो होगा लेकिन यह असरकारी बदलाव होगा, यह मानना कठिन है। क्योंकि, राहुल गाँधी में राजनीतिक परिपक्वता का घोर आभाव नज़र आता है। समय–समय पर उनके कई ऐसे बचकाने बयान आते हैं जो उनकी राजनीतिक समझ पर सवालिया निशान लगा देते हैं। बहरहाल, राहुल गाँधी ने बड़ी साफगोई से यह स्वीकार कर लिया कि लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस नेता घमंडी हो गये थे, पर सवाल यह भी है कि क्या अब कांग्रेस लोगो से संवाद स्थापित कर रही है ? क्या कांग्रेस के नेताओं का घमंड टूट चुका है ?
यह सवाल इसलिए क्योंकि 2014 आम चुनाव के बाद से तीन वर्ष का समय गुज़र चुका है। किन्तु, अभी तक कांग्रेस द्वारा कोई संवाद का ऐसा कार्यक्रम नहीं दिखा कि यह कहा जा सके कि अब कांग्रेस में बदलाव दिख रहा है। कांग्रेस अब भी उसी मनोस्थिति से गुज़र रही है जैसा राहुल 2012 में बता रहे हैं। यह हैरानी की बात है कि राहुल ने इस बात को जानते हुए भी इसे ठीक करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। देश के राजनीतिक जानकार सुस्त पड़ी कांग्रेस को देखते हुए यह कहने से गुरेज नहीं कर रहे कि देश में विपक्ष ख़त्म होता जा रहा है। सियासत के नजरिये से कांग्रेस आज हर मसले पर बीजेपी की प्रत्येक रणनीति के आगे परास्त दिखाई दे रही है।
बर्कले में राहुल छात्रों से चर्चा के दौरान परिवारवाद से जुड़े सवाल पर घिरते नज़र आये तो बचाव में उन्होंने खुद को स्थापित करने के लिए विचित्र तर्क गढ़ दिया। उन्होंने ज्ञान बघार डाला कि भारत वंशवाद से चलता है। इसी कड़ी में वे अखिलेश यादव, एम के स्टालिन, अभिषेक बच्चन, मुकेश अम्बानी आदि के नामों का उदाहरण देते हुए परिवारवाद को जायज ठहराने की नाकाम कोशिश करने लगे। हालाँकि उन्होंने जिन–जिन लोगों का नाम लिया, उनमें से ज्यादातर लोग वर्तमान में अपने-अपने कार्यक्षेत्र में हाशिये पर हैं।
दूसरी चीज कि राहुल जो उदाहरण दे रहे थे, वे निरपवाद रूप से उनकी और कांग्रेस की स्थिति से बिलकुल भी मेल नहीं खाते। किसी बड़े पिता का पुत्र होना परिवारवाद नहीं है। परिवारवाद की समस्या एक के बाद एक लगातार दशकों तक एक दल पर एक ही परिवार के लोगों का कब्ज़ा रहना है। कहने की आवश्यकता नहीं कि राहुल इस सच्चाई से मुंह चुराने के लिए कुतर्कों की आड़ ले रहे हैं।
राहुल का यह तर्क कि भारत परिवारवाद से चल रहा है, इसलिए भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है कि आज भारत के सभी सर्वोच्च पदों मसलन राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तीनों लोग मामूली परिवार से निकले हुए हैं। इनको कोई राजनीतिक विरासत नहीं मिली, बल्कि ये खुद अपने परिश्रम से अपनी राजनीतिक जमीन को तैयार किए और आज इस मुकाम पर पहुंचें हैं। कुल मिलाकर राहुल गांधी के बर्कले संबोधन का निष्कर्ष यह है कि उन्होंने बहुत अधिक खुलकर बोलने के चक्कर में एकबार फिर अपनी किरकिरी करा ली है। वास्तव में, वे राजनीति के लिए बने ही नहीं हैं, यह बात कांग्रेस जितनी जल्दी समझ ले उतना ही बेहतर होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)