एक तरफ तो राहुल गांधी खुद को हिंदू बताते हैं, दूसरी तरफ देश विरोधी नारे लगाने वाले जेएनयू के नेता के भी समर्थन में जा खड़े होते हैं। एक ओर वे नजीब के लापता होने पर हंगामा करते हैं, दूसरी ओर नजीब के आईएस में शामिल होने का खुलासा होने पर चुप्पी साध लेते हैं। एक ओर तो वे पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के पीछे संघ का हाथ होने जैसा बेबुनियाद संगीन आरोप लगा देते हैं, दूसरी तरफ हत्यारे का खुलासा होने पर जब हत्यारा संघी नहीं निकलता है, तो राहुल मौन धारण कर लेते हैं। उनकी यह वैचारिक अस्थिरता अब उनकी आदत बन चुकी है।
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव निकट हैं। जैसा कि हमेशा से होता आया है, चुनाव से पहले राजनीतिक दल सक्रिय हो गए हैं। हर बार की तरह इस बार भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी ताल ठोंककर मैदान में कूद पड़े हैं। यह बात दीगर है कि पिछले कई चुनावों में भी वे बहुत जोश के साथ मैदान में उतरे थे और मुंह की खाकर अपनी अयोग्यता को उत्तरोत्तर प्रमाणित ही करते गए।
ताजा मामले में उन्होंने एक बार फिर अपरिपक्वता का परिचय दिया है। अपने कर्नाटक दौरे में राहुल श्रृंगेरी मठ में दर्शन के लिए पहुंचे थे। वहाँ मठ से उन्हें टीपू के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिली जिसके आधार पर उन्होंने टीपू सुल्तान की तारीफों के पुल बांधे और यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आए। यदि राहुल को इसी राज्य के अतीत का कुछ पता होता तो उन्हें मालूम होता कि कर्नाटक में टीपू सुल्तान एक विवादित नाम है। जिस टीपू की हिंदू विरोधी छवि को लेकर राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया गया, राहुल ने उसी टीपू को हिंदुओं का हितैषी बता दिया।
यहां यह उल्लेख करना ज़रूरी होगा कि कर्नाटक में पिछले दिनों टीपू सुल्तान जयंती का विवाद गहराया था। जहां एक ओर कर्नाटक सरकार इस आयोजन की तैयारी कर रही थी, वहीं दूसरी तरफ टीपू सुल्तान की कन्नड़ एवं हिंदू विरोधी छवि को लेकर भाजपा सांसद शोभा करनदलजे ने विरोध के स्वर मुखर किए थे। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने इस टीपू सुल्तान जयंती समारोह की पुरज़ोर मुखालफत करते हुए इसमें शामिल होने से ही मना कर दिया था। असल में टीपू सुल्तान की वास्तविक छवि को लेकर मतभेद हैं। कर्नाटक सरकार जहां टीपू सुल्तान को सांप्रदायिक सद्भाव वाला शासक बताती है, वहीं भाजपा टीपू को हत्यारा, कट्टरवादी और व्यभिचारी निरुपित करती है। ऐसे में यह संशयपूर्ण है कि टीपू सुल्तान का वास्तविक चरित्र क्या था।
हालांकि यह पता लगाना इतिहासकारों का काम है, लेकिन यदि किसी की छवि विवादित हो जाए तो राज्य सरकार को ऐसे में निष्पक्ष होकर काम लेना चाहिये। जहां तक राहुल गांधी की बात है, वे स्वयं टीपू सुल्तान या किसी अन्य किरदार को लेकर कभी गंभीर नज़र नहीं आते। वे कर्नाटक में यदि मंदिर-मस्जिद या अन्य धर्मस्थलों पर जा भी रहे हैं, तो केवल इसलिए कि उससे कोई चुनावी लाभ प्राप्त किया जा सके।
यह भी बड़ा विरोधाभास है कि जब राहुल स्वयं को हिंदू बताते हैं, तो हिंदू विरोधी छवि वाले शासक टीपू सुल्तान की प्रशंसा कैसे कर सकते हैं। अभी अधिक दिन नहीं बीते जब गुजरात चुनाव के दौरान यही राहुल गांधी सोमनाथ मंदिर में मत्था टेकने पहुंचे थे। राहुल ने स्वयं को जनेऊधारी जन्मजात हिंदू भी प्रचारित करवाया था।
एक तरफ तो वे खुद को हिंदू बता देते हैं, दूसरी तरफ देश विरोधी नारे लगाने वाले जेएनयू के नेता के भी समर्थन में जा खड़े होते हैं। एक ओर वे नजीब के लापता होने पर हंगामा करते हैं, दूसरी ओर नजीब के आईएस में शामिल होने का खुलासा होने पर चुप्पी साध लेते हैं। एक ओर तो वे पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के पीछे संघ का हाथ होने जैसा बेबुनियाद संगीन आरोप लगा देते हैं, दूसरी तरफ हत्यारे का खुलासा होने पर जब हत्यारा संघी नहीं निकलता है, तो राहुल मौन धारण कर लेते हैं। उनकी यह वैचारिक अस्थिरता अब उनकी आदत बन चुकी है।
अभी तक जितने भी चुनावों में उन्होंने जोर आजमाया है, सभी में उन्हें बुरी तरह पराजय ही मिली है। उत्तर प्रदेश चुनाव में उन्होंने सपा से गठबंधन किया जो औंधे मुंह जा गिरा। गुजरात चुनाव में उन्होंने अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल जैसे अराजक नेताओं से हाथ मिलाने की कोशिश की लेकिन वहां भी मुंह की खाई। कर्नाटक के चुनाव को लेकर राहुल जरूर आशावान होंगे क्योंकि वहां कांग्रेस की सरकार है, लेकिन अभी तक के चुनाव नतीजों और देश भर में गिरती कांग्रेस की साख के कारण वे बेफिक्र होने का जोखिम नहीं ले सकते।
राहुल के विरोधाभासी व्यक्तित्व एवं चिंतन का ही परिणाम है कि हाल ही में उन्होंने ट्वीट किया कि कौरव पांडव 1 हजार साल पहले हुए थे। हालांकि उन्होंने तथ्य गलत लिखा लेकिन यदि कालखंड को ना देखा जाए तो उन्होंने कम से कम महाभारत का उदाहरण तो दे ही दिया। समय आने पर वे जनेऊ धारण कर लेते हैं, लेकिन दूसरी ओर वे मुस्लिमों के बीच टोपी पहनकर इफ्तार पार्टी में भी जाते हैं। ऐसा मालूम होता है जैसे राहुल गांधी धार्मिक आस्थाओं, विचारों और संस्कारों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं और अपनी सुविधानुसार उनके अर्थ तोड़-मरोड़कर अपने लिए उनका उपयोग कर लेते हैं। इसे किसी भी दृष्टि से अच्छी राजनीति नहीं कहा जा सकता। यह अवसरवादिता और स्वार्थ की सतही राजनीति का प्रतीक है।
यदि राहुल गांधी इसी प्रकार विभिन्न धर्मों की जनता को भ्रमित करने की करतूत करते रहे, तो वे एक अच्छे विपक्ष तो क्या, एक अच्छे नेता भी नहीं बन पाएंगे। श्रृंगेरी मठ में जाकर टीपू सुल्तान का गुणगान करते निश्चित ही राहुल ने कर्नाटक में टीपू सुल्तान विवाद को फिर से हवा दे दी है। यदि समय रहते वे अपने वक्तव्य का खंडन कर देते हैं तो श्रेयस्कर है, अन्यथा राजनीति में महज बयानों से ‘एडवेंचर’ करने की यह जल्दबाज प्रवृत्ति उन्हें ही ले डूबेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)