जो भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की समझ रखते हैं, वे भलिभांति जानते हैं कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग कतई धर्म निरपेक्ष दल नहीं रहा बल्कि अंग्रेजों के उकसाने पर मुस्लिम लीग की नींव पड़ी और जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। राहुल गांधी जब भी विदेशी धरती पर होते हैं, तब ऐसे बयान अवश्य देते हैं, जो भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन की रेखा चौड़ी करने वाले साबित होते हैं। जबकि यही राहुल आज तक कश्मीरी पंडितों और उन पर हुए अत्याचारों के विरुद्ध एक वाक्य भी नहीं बोले हैं।
कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा करके जो कथित साख बनाई थी, उसे अमेरिका की धरती पर गलतबयानी करके गंवा दिया। इस यात्रा में मुस्लिम तुष्टिकरण को हवा देने की दृष्टि से उन्होंने कहा कि ‘भारत में मुसलमान निशाने पर हैं। मुस्लिम लीग पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष पार्टी है, उसमें कुछ भी गैर धर्म-निरपेक्ष नहीं है।‘ याद रहे केरल की वायनाड लोकसभा सीट राहुल ने इसी मुस्लिम लीग के समर्थन से जीती थी।
खैर, जो भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की समझ रखते हैं, वे भलिभांति जानते हैं कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग कतई धर्म निरपेक्ष दल नहीं रहा बल्कि अंग्रेजों के उकसाने पर मुस्लिम लीग की नींव पड़ी और जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। राहुल गांधी जब भी विदेशी धरती पर होते हैं, तब ऐसे बयान अवश्य देते हैं, जो भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन की रेखा चौड़ी करने वाले साबित होते हैं। जबकि यही राहुल आज तक कश्मीरी पंडितों और उन पर हुए अत्याचारों के विरुद्ध एक वाक्य भी नहीं बोले हैं। उनका यह पक्षपात इस तथ्य का प्रमाण है कि न तो वे तटस्थ हैं और न ही पंथनिरपेक्ष!
उन्होंने एक बार फिर वोट की राजनीति के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण को आधार बनाया है। देशहित में ऐसी दलीलें उचित नहीं हैं। क्योंकि मुस्लिम लीग का इतिहास के पन्नों में जो सांप्रदायिक चरित्र दर्ज है, उस पर ऐसे थोथे बयानों से पर्दा पड़ने वाला नहीं है।
अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल-विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रचा गया, जो भारत विभाजन की नींव डाल गया। इस बंटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन-भावना फूटी की बंग-भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों पर कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लार्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था।
इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित थे, कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। अंग्रेज भली भांति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोश पनपने के लिए खाद-पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोश को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है।
वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। इस बंटवारे के मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया गया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई से मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।
कर्जन की दुर्भावना की चालाकी व रहस्य तत्काल तो बंग-भंग के रूप में ही नजर आई, लेकिन वास्तव में इसे पूर्वी बंगाल की लकीर खींच देने का अर्थ मुसलमानों में ऐसी भावना जगाना भी था, जो उन्हें हिंदुओं के विरुद्ध एकजुट करने का काम करे। इस कुटिल दृष्टि के चलते कर्जन ने मुसलमानों में मुगल बादशाहों, जमींदारों और जागीरदारों के जमाने को बहाल करने का लालच दिया। यही नहीं, कर्जन ने अपने वाक्-चातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थक और अचानक उदय हुए स्वदेश आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया।
सलीमुल्ला कर्जन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में ‘मुस्लिम लीग’ संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधार पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया।
गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथकतावादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग-भंग विरोध आंदोलन को देश के एक मात्र ‘मुस्लिम-प्रांत’ की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बंटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो से शिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक ‘मतदाता सूची’ बनाए जाने की मांग उठा दी। मिंटो इस मंशा पूर्ति के लिए ही भारत भेजे गए थे कि मुस्लिमों के हिंदुओं के विरुद्ध एक समुदाय के रूप में खड़ा किया जाए।
अतएव मिंटो ने नगर पालिकाओं, जिला मंडलों और विधान परिषदों में मुस्लिमों की संख्या आबादी के अनुपात में बढ़ाने की पहल कर दी। यही नहीं, मुस्लिमों का महत्व ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उनकी वफादारी के आधार पर भी रेखांकित किया गया।
मिंटो ने आगा खान को इन बिंदुओं को सुझाया। इस समय वृहद् बंगाल से काटकर बनाए गए असम सहित पूर्वी बंगाल के 1 लाख 6 हजार 540 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मुस्लिमों की आबादी 1 करोड़ 80 लाख थी। जबकि हिंदू मात्र 1 करोड़ 20 लाख थे।
इसी कालखंड में हिंदुओं के खिलाफ मुल्लाओं ने घृणित प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली। एक लाल पुस्तिका छापी गई जिसमें कहा गया कि हिंदुओं ने इस्लाम के गौरव को लूटा है। उन्होंने हमारा धन और सम्मान लूटा है। स्वदेशी का जाल बिछाकर हमारी जान लेना चाहते हैं। इसलिए मुसलमानों हिंदुओं के पास अपना धन मत जाने दो। हिंदुओं की दुकानों का बहिष्कार करो। वह सबसे नीच होगा, जो उनके साथ ‘वंदे मातरम्’ कहेगा।
इस सब के बावजूद कांग्रेस को मोहम्मद अली जिन्ना से समन्यवादी सहयोग की उम्मीद थी। जिन्ना के नेतृत्व में शिक्षित व युवा मुस्लिम सहयोगी बने भी रहे। लेकिन ब्रितानी हुकूमत के पास हिंदू-मुस्लिम एकता और सद्भावना नष्ट-भ्रष्ट करने का औजार था।
अतएव 1909 में मारले-मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए अलग मतदाता सूची की मांग मंजूर कर ली गई। इस पहल ने हिंदू-मुस्लिम एकता की राह में स्थायी दरार उत्पन्न कर दी। क्योंकि विधान परिषद् में चुने जाने का यह एक अधिकार था।
केरल में 20 अगस्त 1921 को अंग्रेजों के विरुद्ध मोपला विद्रोह हुआ। मोपला या मोप्पिला नाम मलयाली भाषाई मुसलमानों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। मोपलाओं की उत्तरी केरल के मालाबार तट पर बहुसंख्यक आबादी है। उन्नसवीं शताब्दी के आरंभ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस क्षेत्र में भी अपनी सत्ता का विस्तार कर लिया था। असहयोग आंदोलन की गूंज जब इस क्षेत्र में पहुँची तो मोपला भी ब्रिटिश राज-सत्ता के विरूद्ध उठ खड़े हुए थे। इस विद्रोह को मुस्लिम धर्मगुरूओं ने भड़काने का काम किया। नतीजतन यह विद्रोह हिंसक तो हुआ ही, अलबत्ता जो सहिष्णु हिंदु जमींदार थे, उन्हें हिंसा की मार झेलनी पड़ी।
देश में यह खूनी संघर्ष हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के रूप में पेश आया। इस समय यहां ज्यादातर जमींदार नबूदिरी ब्राह्मण थे, जबकि किसान मोपला मुसलमान थे। मोपलाओं ने हिंदु पूजा स्थलों को भी निशाना बनाया। इस विद्रोह में करीब दस हजार लोग मारे गए थे। कम्यूनिस्टों ने इसे हिंदु जमींदारों के शोषण के विरुद्ध किसानों का विद्रोह कहकर सांप्रदायिकता पर पर्दा डालने की कोशिश की, लेकिन अन्य नेताओं ने इसका यथार्थ चित्रण किया।
फलतः जिन्ना को यह बहाना मिल गया कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले दो समुदायों के बीच समन्वय बिठाना आसान नहीं है। इस विचार के पनपते ही जिन्ना मुस्लिम लीग का हिस्सा बनकर उसके विस्तार में लगने के साथ ही द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर अमल की ओर बढ़ गए।
आखिरकार मोपला-कांड की परिणति ने मुस्लिम अलगावाद का रास्ता खोल दिया। फिरंगी सरकार ने नाजुक परिस्थिति का पूरा लाभ उठाते हुए आग में घी डालने का काम किया। नतीजतन जब भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम संयुक्त आंदोलन छेड़ते तो वह सांप्रदायिक दंगों में बदल जाता। इसी समय जिन्ना ने अवसर का लाभ उठाया और यह कहना प्रारंभ कर दिया कि ‘अंग्रेजों के जाने के बाद हिंदू बहुसंख्यक उनकी इस्लामिक संस्कृति, उर्दू जुबान और धर्म को तबाह कर देंगे।
हिंदू भारत में मुसलमानों को न तो आर्थिक सुरक्षा मिलेगी और न ही उनकी कोई सियासी ताकत शेष रह जाएगी। लोकतांत्रिक भारत में हिंदूओं का राज होगा, क्योंकि हिंदू बहुसंख्यक हैं।’ लीगियों ने इस आवाज को समूचे मुस्लिम समाज में पहुँचा दिया। 1940 में मुस्लिम लीग ने बहुचर्चित लाहौर प्रस्ताव पारित किया और मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र पाकिस्तान की मांग बुलंद कर दी।
भारत विभाजन की रूपरेखा लिखकर लाए लार्ड माउंटबेटन इतने चतुर खिलाड़ी निकले कि उन्होंने भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया और यही नहीं, पंजाब और बंगाल को भी कपड़े की तरह दो टुकड़ों में चीर दिया। भारत हमेशा गृह कलह की आंच से सुलगता रहे, इसका भी पूरा इंतजाम कर दिया। यह पाकिस्तान के अस्तित्व से भी ज्यादा खतरनाक था। ब्रिटिश अधिकारियों ने जानबूझ कर 652 भारतीय रियासतों की प्रभुसत्ता उन्हें वापस दे दी। उन्हें भारत या पाकिस्तान में मिल जाने की छूट तो दी ही, स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की छूट भी दे दी गई थी। अर्थात भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ विभाजन तो आधा सच है, पूरा सच तो देश के 652 टुकड़े कर देने का था। यह क्षेत्रीयता से कहीं ज्यादा सांप्रदायिक बंटवारा था।
यह अलग बात है कि सरदार पटेल की दृढ़ता से इन रियसतों का विलय भारतीय गणतंत्र मंे हो गया। अतएव 14 एवं 15 अगस्त की मध्यरात्रि को भारत तब स्वतंत्र हुआ, जब दुनिया सो रही थी और सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसा खंडित भारत जन्म ले रहा था। गोया मुस्लिम लीग न कल धर्म निरपेक्ष था, न आज है और न कल होगा। अतएव मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए मुस्लिम लीग को सेक्युलर बताकर अपना राजनीतिक हित साधने की कोशिश कर रहे राहुल गांधी को समझना चाहिए कि उनकी यह गलतबयानी देश के लिए कतई हितकारी नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)