कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का नाम ऐसे नेताओं के नाम मे सम्मिलित किया जाना चाहिए जो पार्टी के लिए करना तो बहुत कुछ चाहते हैं, लेकिन हर बार कुछ न कुछ ऐसा कर देता है कि उनकी पार्टी को उनके कृत्यों पर न कुछ उगलते बनता और न ही कुछ निगलते बनता है। संसद का इस बार का शीतकालीन सत्र पिछले 15 वर्षों के इतिहास मे सबसे कम कामकाज वाले सत्र मे शामिल हो गया है। इस बार का पूरा शीतकालीन सत्र कांग्रेस आदि विपक्षी दलों के हंगामे की भेंट चढ़ गया और कामकाज ठप रहने के कारण देश के नागरिकों द्वारा दिया जाने वाला कर भी व्यर्थ हो गया।
राहुल गाँधी में राजनीतिक परिपक्वता का घोर अभाव है, जिसका उन्होंने अपनी हाल की इन गतिविधियों के जरिये फिर एकबार प्रदर्शन किया है। परिवारवादी राजनीति का यही दुष्प्रभाव है कि ऐसी अपरिपक्व समझ वाला व्यक्ति भी आज देश की एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का वर्तमान उपाध्यक्ष और संभावित अध्यक्ष है। ये एक बड़ा कारण है कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे राजनीतिक दौर से गुजर रही है और अगर उसने समय रहते खुद को नेहरु-गांधी परिवार के परिवारवाद की जकड़न से आज़ाद नहीं किया तो आश्चर्य नहीं कि आने वाले दशकों में राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में उसका अस्तित्व इतिहास की बात हो जायेगा।
संसद के इस सत्र मे राहुल गांधी विपक्षी एकता को दिखाने के लिए बहुत मेहनत करते दिखे लेकिन बाद मे अपनी मेहनत पर वे खुद ही पानी फेरते भी नजर आएं । संसद के सत्र की शुरुआत से लेकर अन्त तक राहुल गांधी भारी गुस्से मे नजर आते रहे, लेकिन ये गुस्सा सिर्फ मीडिया के सामने बयानबाजी एंव हंगामे के रूप मे संसद मे ही दिखता था । इस गुस्से मे वे बार-बार देश की जनता, गरीबों-किसानों की दुहाई देकर उनकी परेशानियों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे, लेकिन उसी गरीब जनता एंव किसान के दिए टैक्स पर चलने वाली संसद का सत्र बर्बाद करते समय उन्हें और उनकी पार्टी को गरीब जनता की याद एकबार भी नही आयी।
राहुल गांधी को इस सत्र के मध्य के दिनों मे विपक्ष का कुछ साथ जरूर मिला था और इस साथ से वे इतने उत्साहित हो गए कि देश के प्रधानमंत्री पर सार्वजनिक रूप से यह कहते हुए आरोप लगाने लगे कि उन्हें प्रधानमंत्री के निजी भ्रष्टाचार की जानकारी है। सीधे-सीधे यह आरोप भी लगा दिए कि उन्हें संसद मे बोलने का मौका नही दिया जा रहा, जिससे कि प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार का खुलासा कर सकें। हालांकि प्रधानमंत्री पर लगाए अपने इन हवा-हवाई आरोपों के पक्ष मे वे अब तक नाममात्र का भी सबूत या कोई जानकारी पेश नही कर पाए हैं। पेश तो तब न करते और संसद मे बोलने से रोकने के सवाल का जवाब तो उन्हें अपनी ही पार्टी के सांसदों से ही मिल जाएंगा कि जिस तरह उनकी पार्टी के सांसद हंगामा कर रहे थे, ऐसे मे उनका खुद का बोल पाना कैसे सम्भव होता ?
विपक्ष का नेता बनने के प्रयास मे वे अकेले जाकर पीएम से मिल आए और वाहवाही लूटने की कोशिश करने लगे, लेकिन इस वाहवाही के पीछे वे बाकी विपक्ष से बैर मोल ले लिए क्योंकि बाकी विपक्षी पार्टियों का कहना है जब सब एकसाथ सरकार का विरोध और समस्याओं के लिए हंगामा कर रहे थे तो ऐसे मे राहुल गांधी को अकेले मिलने जाने की क्या जरूरत थी ? एक तरफ तो वे विपक्ष का नेता बनने के लिए बेचैन है तो दूसरी तरफ वे खुद ही विपक्षी एकता को तोड़ते दिख रहे है।
दरअसल राहुल गाँधी में राजनीतिक परिपक्वता का घोर अभाव है, जिसका उन्होंने अपनी हाल की इन गतिविधियों के जरिये फिर एकबार प्रदर्शन किया है। परिवारवादी राजनीति का यही दुष्प्रभाव है कि ऐसी अपरिपक्व समझ वाला व्यक्ति भी आज देश की एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी का वर्तमान उपाध्यक्ष और संभावित अध्यक्ष है। ये एक बड़ा कारण है कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे राजनीतिक दौर से गुजर रही है और अगर उसने समय रहते खुद को नेहरु-गांधी परिवार के परिवारवाद की जकड़न से आज़ाद नहीं किया तो आश्चर्य नहीं कि आने वाले दशकों में राष्ट्रीय राजनीतिक दल उसका अस्तित्व इतिहास की बात हो जायेगा।
(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)