कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इन दिनों देश के मुसलमानों की ज्यादा याद आ रही है। राहुल ने पिछले दिनों अपने तुगलक रोड के बंगले पर प्रमुख मुस्लिम नेताओं, विद्वानों और चिंतकों के साथ घंटे भर लम्बी मुलाकात की, जिसमें उन्होंने दोहराया कि वह मुसलमानों को साथ लेकर चलेंगे। दरअसल राहुल यह साफ़ करने की कोशिश कर रहे थे कि कांग्रेस पार्टी का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का एजेंडा सिर्फ एक मुलम्मा भर है।
इस देश में मुसलमानों के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार कौन है ? अगर आप सड़क पर चलते हुए किसी मुस्लिम शहरी से यह सवाल करें तो सस्वर एक ही नाम आएगा – कांग्रेस पार्टी। क्योंकि आज़ादी के बाद सबसे ज्यादा शासन कांग्रेस का ही रहा है। सालों तक देश में दलितों और मुसलमानों का वोट लेकर सरकार बनाने के बाद अब कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गाँधी जिनका कुछ महीने पहले ही ‘जनेऊधारी हिन्दू’ के रूप में अवतरण हुआ था, अब दोबारा वोट यात्रा पर निकल पड़े हैं, तो इसमें अचम्भा क्या है ?
इस सिलसिले में उन्हें देश के मुसलमानों की ज्यादा याद आ रही है। राहुल गाँधी ने पिछले दिनों अपने तुगलक रोड के बंगले पर प्रमुख मुस्लिम नेताओं, विद्वानों और चिंतकों के साथ घंटे भर लम्बी मुलाकात की, जिसमें उन्होंने दोहराया कि वह मुसलमानों को साथ लेकर चलेंगे। दरअसल राहुल यह साफ़ करने की कोशिश कर रहे थे कि कांग्रेस पार्टी का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का एजेंडा सिर्फ एक मुलम्मा भर है।
इसके बाद हैदराबाद के एक प्रमुख उर्दू अख़बार ने राहुल गाँधी के हवाले से खबर छापी कि “कांग्रेस एक मुस्लिम पार्टी है”। सारे विवाद की शुरुआत यहीं से हो गई। लाजमी है, इसके बाद बहस तेज हो गई कि क्या कांग्रेस सिर्फ मुसलमानों और अल्पसंख्यकों की पार्टी बन गई है ? क्या वह देश के 85 फीसद हिन्दुओं की नुमाइंदगी नहीं करती ? हालांकि कांग्रेस ने इसका खण्डन किया, लेकिन अखबार अपने रुख पर कायम है। इसके बाद कांग्रेस के ही अल्पसंख्यक मोर्चे के अध्यक्ष नदीम जावेद का साक्षात्कार उसी अखबार में छपा जिसमें उन्होंने कहा कि अखबार ने राहुल का जो बयान छापा था, उसमें कुछ भी गलत नहीं है।
सवाल उठता है कि 2019 से पहले अगर इस तरह के बयान आ रहे हैं, तो उसके मायने क्या है ? शायद कांग्रेस की फिर एकबार कोशिश है कि बीजेपी का भय दिखाकर देश के मुस्लिमों को साथ ले लिया जाए। पिछले दिनों शशि थरूर ने भी ‘हिन्दू पाकिस्तान’ की बहस को जन्म दिया वह इसी कोशिश की एक कड़ी प्रतीत होता है।
अब राहुल गाँधी ने भी थरूर की लाइन पकड़ ली। ज़रूर इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है। वैसे 2014 लोकसभा चुनाव से पहले भी कांग्रेस ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंकवाद’ का राग आलापा था, लेकिन इसका नतीजा यह आया कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को अब तक की सबसे बड़ी जीत मिली।
बातों से तो कांग्रेस निस्संदेह मुस्लिमों की हिमायती रही है, तभी तो उसकी सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह तक कह डाला था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इस विवाद के सामने आने के बाद मनमोहन सिंह के इस बयान का उल्लेख प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने एक रैली में करते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा।वास्तव में यह कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति ही थी, लेकिन उसका तुष्टिकरण भी सिर्फ बातों तक ही रहा है, जमीन पर मुसलमानों की हालत सुधारने के लिए उसने कुछ भी बेहतर नहीं किया।
राहुल गाँधी से मिलने वाले एक शिक्षाविद इल्यास मलिक ने कहा कि राहुल कांग्रेस से मुस्लिम टैग दूर करने के लिए फिक्रमंद तो दिखे लेकिन मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए ज़िम्मेदार भी कांग्रेस पार्टी ही है। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में यह साफ़ है कि मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक विकास नहीं हुआ है, जबकि देश में सर्वाधिक समय तक सत्ता आज ‘मुस्लिमों की पार्टी’ बन रही कांग्रेस की ही रही है। आज यह सच्चाई है कि मुसलमान सिर्फ एक पार्टी को वोट नहीं देने वाला है। दिल्ली में मुसलमानों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया, उत्तर प्रदेश में मायावती को और अखिलेश यादव को वोट दिया।
ज़्यादातर मुसलमाओं उलेमाओं और विद्वानों ने राहुल को सलाह देने की कोशिश की कि उन्हें मुस्लिम चश्मे से न देखें। अगर बिजली, पानी और सड़क की समस्या ठीक होगी, तो उसका फायदा तो मुसलमान समाज को भी मिलेगा। क्या कांग्रेस नेता मुसलमानों की भावनाओं को समझने में सफल रहे ? या उम्मीद की जाए कि क्या राहुल गाँधी अपने चश्मे का नंबर बदलकर अब मुस्लिम समाज की समस्याओं को देखेंगे ?
असल में कांग्रेस नेता एके एंटोनी ने 2014 लोक सभा के नतीजों के बाद एक रिपोर्ट बनाई थी जिसमें कांग्रेस की हार का ब्यौरा था, उसकी बातें आज भी गौरतलब हैं। पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटोनी को लोकसभा में हार के कारणों की तफ्तीश करने का जिम्मा दिया गया था। इस रिपोर्ट में यह बात निकलकर सामने आई कि कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान प्रो-मुस्लिम इमेज की वजह से हुई। कांग्रेस यह बताने में असफल रही कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, दोनों तरह की सम्प्रदायिकता देश और समाज के लिए खतरनाक है।
अब एकबार फिर चुनावों में मजहब और फिरकापरस्त सोच को बढ़ावा देने से कांग्रेस को लग रहा है कि उसे मुस्लिम समाज के लोग एकमुश्त तरीके से वोट दे देंगे। लेकिन ये उसकी ग़लतफ़हमी ही है। दरअसल कांग्रेस के सामने अब पहचान का संकट भी है, गुजरात और कर्नाटक चुनाव से पहले राहुल गाँधी ने “नरम हिंदुत्व” को अपनाने का प्रयत्न किया। अब लोकसभा चुनाव के लिए वे उस इमेज को छोड़ फिर मुस्लिम-मुस्लिम करके अपनी पारंपरिक इमेज अपनाने में लग गए दिख रहे हैं।
देखा जाए तो मुस्लिम समाज के वोट के दावेदार कई हैं। अल्पसंख्यक समाज के लोग अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तरीके से मतदान करते हैं। वह समय कुछ और था, जब मुस्लिम और दलित कांग्रेस के पीछे-पीछे चलते थे, अब समय बदल गया है। मुस्लिम अब भाजपा को लेकर भी सोचने लगे हैं। ऐसे में मुस्लिमों की पार्टी वाली इमेज कांग्रेस के लिए कुछ ख़ास फायदेमंद साबित होगी, इसकी उम्मीद कम ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)