रेल बजट के आम बजट में शामिल होने से होगा रेलवे का तीव्र विकास, ख़त्म होंगी समस्याएं!

गणतंत्र के रूप में भारत का पहला बजट जब आया उस वक्त 1950-51 में रेलवे का राजस्व करीब 232 करोड़ रुपये का था और देश भर का 347 करोड़ का। समय के साथ इस परिस्थिति में बहुत बदलाव आ चुका है। आज की तारिख में रेलवे भारत का सबसे बड़ा प्रतिष्ठान नहीं है। आज उसके सालाना राजस्व यानि करीब 1.82 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा भारतीय स्टेट बैंक (लगभग 2.07 लाख करोड़) जैसे प्रतिष्ठान का है। इंडियन आयल कारपोरेशन का राजस्व उस से दोगुने से भी ज्यादा (लगभग 4.49 लाख करोड़) का है। निजी क्षेत्र के उपक्रम रिलायंस इंडस्ट्रीज की सालाना आय (करीब 2.76 लाख करोड़) भी रेलवे से ज्यादा है। ऐसे में जरूरी है कि रेलवे को बढ़ने का मौका दिया जाए। उसे एक राजनैतिक हथियार बनने देने के बदले वोट की राजनीति से आजादी दी जाए।

कई दशकों में पहली बार एक राजनेता के बदले तकनिकी रूप से दक्ष व्यक्ति आज रेल मंत्री की कुर्सी पर है। आम जनता में भी सुरेश प्रभु के फैसलों का स्वागत हुआ है। रेल किरायों में वृद्धि को लेकर कई आयातित विचारधारा वालों ने कोहराम मचाने के प्रयास किये थे। जनता के समर्थन के अभाव में वो विरोध अपनी मौत खुद ही मर गया। सेवाओं के स्तर में बढ़ोत्तरी के रेल मंत्री के प्रयास भी जनता में खूब सराहे जा रहे हैं। एक नया कदम और उठाते हुए सरकार की मंशा है कि अगले साल से कोई अलग रेल बजट पेश ना किया जाए। वित्त मंत्री अरुण जेटली के अगले बजट में ही रेल बजट भी एक हिस्से के तौर पर शामिल होगा। काफी समय से एक अलग रेल बजट को यूनियनों ने अपने अहंकार की तुष्टि का जरिया बना रखा था।

भारत में 1980 के दशक के रेल मंत्री अब्दुल घनी खान चौधरी के वक्त से ही रेलवे की नौकरियों और ठेकों को राजनैतिक हथियार के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाता है। उनके बाद के दौर में ज्यादातर रेल मंत्री बिहार और बंगाल के इलाकों से रहे। अपने अपने संसदीय क्षेत्र में अपनी राजनीति चमकाने के लिए सबने रेल का जमकर दुरुपयोग किया है। ममता बनर्जी ने रेल मंत्री रहते हुए जहाँ अपने इलाकों में नयी रेलगाड़ियां चलाने की होड़ मचा दी वहीँ लालू यादव ने तो अराधना-उपासना एक्सप्रेस जैसे नामों के जरिये भी तुष्टीकरण के प्रयास किये। लम्बे समय तक कांग्रेस और उसके समर्थक राजनैतिक दल चुनावी समीकरण के लिए इसका इस्तेमाल कैसे करते रहे हैं, इसकी बानगी देखनी हो तो सोनिया गाँधी के अपने क्षेत्र रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री शुरू कर देने की योजना भी देखिये। ये सब तब हो रहा था जब भारत में यातायात की व्यवस्था पहले ही चरमरा रही थी। रेलवे घाटे में थी और चित्तरंजन के पुराने कोच फैक्ट्री की हालत भी बीमार उद्यम की सी हो गई थी।

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द इकनोमिक टाइम्स में आये अविनाश सेलेस्टीन के एक लेख के मुताबिक भारतीय रेल के माल भाड़े और यात्री भाड़े का अनुपात सन 1950 में जहाँ 2.13 का था, वहीँ ये 2014 में बढ़कर 3.68 का हो चुका था। एक के बाद एक पिछली सरकारों के रेल मंत्रियों ने यात्री भाड़े को यथोचित रखने के बदले माल भाड़े को बढ़ाया। माल भाड़े में कृत्रिम वृद्धि के जरिये यात्री भाड़े को कम रखकर उस से भी राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश की गई। इसका नुकसान भारत में व्यापार को हुआ। हम एक औद्योगिकरण के दौर को छोड़ कर कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से सीधा सेवाओं पर आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने लगे।

कई दशकों में पहली बार एक राजनेता के बदले तकनिकी रूप से दक्ष व्यक्ति आज रेल मंत्री की कुर्सी पर है। आम जनता में भी सुरेश प्रभु के फैसलों का स्वागत हुआ है। रेल किरायों में वृद्धि को लेकर कई आयातित विचारधारा वालों ने कोहराम मचाने के प्रयास किये थे। जनता के समर्थन के अभाव में वो विरोध अपनी मौत खुद ही मर गया। सेवाओं के स्तर में बढ़ोत्तरी के रेल मंत्री के प्रयास भी जनता में खूब सराहे जा रहे हैं। एक नया कदम और उठाते हुए सरकार की मंशा है कि अगले साल से कोई अलग रेल बजट पेश ना किया जाए। वित्त मंत्री अरुण जेटली के अगले बजट में ही रेल बजट भी एक हिस्से के तौर पर शामिल होगा। काफी समय से एक अलग रेल बजट को यूनियनों ने अपने अहंकार की तुष्टि का जरिया बना रखा था।

थोड़े समय पहले तक यात्रियों की रेलवे से शिकायतें कई होती थी। ट्रेन के लेट और सफाई से लेकर खान-पान की व्यवस्था और कर्मचारियों की लापरवाही जैसी कई समस्याएँ थी। इनमें सबसे बड़ी दिक्कत थी शिकायतों पर कोई सुनवाही ना होना। अफसरों की लाल फीताशाही और यूनियन की धौंस के तले जनता की आवाज दबा दी जाती थी। अचानक जब रेल मंत्री को एक ट्वीट एक सोशल मीडिया रिक्वेस्ट भेज देने पर शिकायत की जांच होने लगी तो एक आरामतलब तबका काफी व्यथित हुआ। यूनियन की आड़ में अब तक जो सरकारी खर्च पर मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे थे, अब उन्हें अचानक श्रम का मूल्य समझ आने लगा है। यह सरकार की ट्विटर सेवा जैसे कदम का असर है।

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी किस्म के पूँजी निवेश को तथाकथित समाजवादी और साम्यवादी कही जाने वाली विचारधारा के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसे में सवाल ये भी है कि भारत की जनता भारत के उद्योगों में आखिर क्यों अपना पैसा नहीं लगा सकती ? आखिर किसने भारतीय जनता के सहयोग को आगे आते हाथों को रोका है ? कई बार यूनियन और तुष्टिकरण की राजनीति भी इसके आड़े आती रही है। ऐसे में अलग रेल बजट को हटाकर दर्पदलन भी आवश्यक था। रेल बजट को आम बजट में शामिल कर के, रेलवे को राजनीति से मुक्त करने और विकास की पटरी पर डालने के मोदी सरकार के इस साहसिक प्रयास का स्वागत है।

ये लेखक के निजी विचार हैं।