राममंदिर संघर्ष कोई तीन दशकों का नया–नवेला आंदोलन नहीं है। इसका सैकड़ों वर्षों का ऐतिहासिक दस्तावेज है। अतः इस विषय पर चर्चा करते समय भारत की सांस्कृतिक विरासत के धूमिल पड़े गौरव को पुनर्स्थापित करने के प्रतीक के रूप में रामजन्मभूमि आंदोलन का मूल्यांकन होना चाहिए। सेक्युलरिज्म के ‘छद्म’ आवरण के खिलाफ प्रतिवाद के पहले और मुखर स्वर के रूप में अगर किसी आंदोलन का महत्व दिखता है‚ तो वह राम जन्मभूमि आंदोलन है।
आज से तीस साल पहले 1990 में सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकले लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था‚ ‘यह जो रथ है‚ लोकरथ है। जनता का रथ है‚ जो सोमनाथ से चला है और जिसके मन में संकल्प है कि 30 अक्टूबर को वहां (अयोध्या) पहुंच कर कारसेवा करेंगे और मंदिर वहीं बनाएंगे। उसको कौन रोकेगा।’ आडवाणी के इस भाषण अंश में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है‚ उनके निहितार्थ गहरे हैं।
सेक्युलरिज्म की अतिवादी बहस को आगे बढ़ाने वाले इसे समझने का प्रयास नहीं करते। यही कारण है कि अब जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई न्यायसम्मत व्यवस्था में मंदिर निर्माण का काम शुरू हो रहा है‚ तब कुछ लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शिलान्यास में शामिल होने पर भी सवाल उठा रहे हैं। हालांकि यह सवाल बेजा है।
आडवाणी द्वारा जिस रथ को ‘लोकरथ’ अथवा ‘जनता का रथ’ बताया गया‚ उसे सिर्फ मंदिर आंदोलन के लिए ‘भाजपा का रथ’ बताने की चूक से बचना चाहिए। राममंदिर आंदोलन को राजनीतिक दायरे में समेटने से कई व्यापक संदर्भ और उनके प्रभाव छूट जाते हैं।
निस्संदेह रामजन्मभूमि आंदोलन का लाभ भाजपा को उसके राजनीतिक विस्तार के लिहाज से मिला है किंतु उस आंदोलन से सिर्फ राजनीतिक विस्तार के उद्देश्य की पूर्ति होती है‚ यह मानना उचित नहीं है।
राममंदिर संघर्ष कोई तीन दशकों का नया–नवेला आंदोलन नहीं है। इसके सैकड़ों वर्षों के ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। अतः इस विषय पर चर्चा करते समय भारत की सांस्कृतिक विरासत के धूमिल पड़े गौरव को पुनर्स्थापित करने के प्रतीक के रूप में राम जन्मभूमि आंदोलन का मूल्यांकन होना चाहिए। सेक्युलरिज्म के ‘छद्म’ आवरण के खिलाफ प्रतिवाद के पहले और मुखर स्वर के रूप में अगर किसी आंदोलन का महत्व दिखता है‚ तो वह राम जन्मभूमि आंदोलन है।
कतिपय कारणों से हिंदू समाज के बीच पैदा हुई सामाजिक दुराव और दुराग्रह की परिस्थिति के खिलाफ एकजुटता की व्यापक अपील के रूप में भी राम जन्मभूमि आंदोलन को समझने की जरूरत है।
भाजपा ने 17 अक्टूबर‚ 1990 को दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी के प्रस्ताव में इस रथयात्रा को ‘राष्ट्रीय एकता का महान कार्य’ बताते हुए ‘एक्य–बोध की महान सृष्टि’ के रूप में देश के सामने रखा था तथा तत्कालीन सरकार से राममंदिर बनाने की अनुमति देने की अपील की थी।
दरअसल‚ यह वही काल खंड था‚ जब शाह बानो प्रकरण कुछ वर्ष पूर्व सामने आया तथा देश में तुष्टिकरण की राजनीति के खुले तौर पर प्रवेश के संकेत मिलने लगे थे। सेक्युलरिज्म की आड़ में बहुसंख्यक भावनाओं की अनदेखी के प्रश्न भी उभरने लगे थे। भाजपा के नेताओं ने तत्कालीन घटनाक्रम की वजह से समाज के मन में पैदा हो रही दुविधा को भांप लिया। भविष्य में होने वाले सामाजिक टकरावों की परिस्थिति से भी भाजपा अवगत और सचेत थी।
फलतः ऐसे आंदोलन का जन्म हुआ‚ जिसकी सफलता में सामाजिक एकजुटता तथा सांस्कृतिक पुनर्स्थापन की भावना छिपी थी। अतः राम जन्मभूमि आंदोलन पर चर्चा करते हुए इसे उस चिंतन को समाज के बीच जन–जन तक ले जाने वाले एक प्रतिनिधि आंदोलन की तरह भी समझने की जरूरत है।
इस आंदोलन का राजनीतिक लाभ–हानि जिसको मिला हो‚ किंतु इसकी उद्देश्य पूर्ति का लक्ष्य सिर्फ राजनीतिक लाभ–हानि तक था‚ ऐसा मानना सरासर गलत है।
5 अगस्त‚ 2020 की तारीख भारत की सांस्कृतिक विरासत के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज जब मंदिर का शिलान्यास हो रहा है‚ तब इसके आंदोलन को जन–जन के मानस तक पहुंचाने वाली भाजपा अपने इतिहास के सर्वोच्च शिखर पर है। कुछ साल पहले तक किसी को नहीं पता था कि मंदिर कब बनेगा। किंतु मंदिर अगर बनेगा तो राजनीतिक रूप से भाजपा के प्रयासों से ही बनेगा‚ यह विश्वास राम में आस्था रखने वाले हर भारतवासी को था।
मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने राम में आस्था रखने वाले हर भारतवासी के भरोसे को अपने प्रयासों से फलीभूत किया है। बेशक‚ मंदिर निर्माण का रास्ता अदालत के आदेश से प्रशस्त हुआ‚ किंतु सैकड़ों साल पुराने विवाद को समाप्त करने में मोदी सरकार के सकारात्मक प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं।
पिछले तीस साल में भाजपा और राममंदिर की यात्रा कई पड़ावों से गुजरी है। उतार–चढ़ाव के कई दौर सामने आए। कई बार यह नैरेटिव भी बनाने की कोशिश हुई कि अब मंदिर कोई मुद्दा नहीं रहा। किंतु भाजपा देश की इकलौती राष्ट्रीय पार्टी थी‚ जिसने चुनाव–दर–चुनाव अपने घोषणा पत्र में दोहाराया कि न्यायसम्मत व्यवस्था से अयोध्या में भव्य राममंदिर बनना चाहिए।
इसलिए अब जब 5 अगस्त को अयोध्या में राममंदिर की नींव रखी जानी है‚ तो भाजपा को इस गौरव में शामिल होने का पूरा अधिकार है। प्रधानमंत्री मोदी के लिए भी व्यक्तिगत तौर पर बड़ा अवसर है क्योंकि सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा के दौरान उनकी भूमिका अहम थी और आज जब संघर्ष का परिणाम प्राप्त हो रहा है‚ तब वे देश का नेतृत्व कर रहे हैं।
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फैलो हैंl)