राष्ट्र, संस्कृति एवं भारत-भूमि के परम्परागत मूल्य जैसे शब्दों एवं से प्रेरित लेखकों, कवियों का जिक्र आता है, तो रामधारी सिंह दिनकर याद आते हैं। दिनकर का लेखन किसी एक विधा तक केन्द्रित न होकर समग्र था। वे राष्ट्रीयता के स्वरों को काव्य एवं गद्य दोनों ही विधाओं में मुखरता से उठाते रहे हैं। लेकिन देश में सत्तर के दशक साहित्य जमात में स्थितियां ऐसी निर्मित होती गयीं कि दिनकर जैसे ‘साहित्य के सूर्य’ का तेज भी धूमिल सा पड़ता गया। दिनकर के साहित्य सृजन से प्रत्यक्ष टकराना इतना दुरूह था कि वे दिनकर के साहित्य के बराबर साहित्य लिखने की बजाय, साहित्य के मापदंड बदलने की बौद्धिक पाखंड का षड्यंत्र रच दिए। दिनकर पर जितना लिखा जाना चाहिए, क्या उतना लिखा गया है ? क्या दिनकर का वास्तविक मूल्यांकन हुआ है ? आज ये सवाल बेजा नही हैं। उनके काव्य से टकराना मुश्किल इसलिए था, क्योंकि उनके काव्य-कौशल में अनोखी धार थी। छंदबद्द पंक्तियों के साथ-साथ कथ्य एवं तथ्य दोनों को समाहित करते हुए लय, ताल एवं धार के साथ काव्य में वे अपनी बात कहते थे। समाज की तत्कालीन परिस्थितियों से जुड़ी एक ही समस्या को दिनकर किस ढंग से कहते थे और उनके समकालीन कोई अन्य राष्ट्र एवं संस्कृति जैसे शब्दों से दूरी बनाकर चलने वाली विचारधारा का कवि कैसे कहता है, यह समझना कोई राकेट साइंस नहीं है। मार्क्सवादी विचारधारा को ताउम्र ढोने वाले प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता जनविरोधी सरकार के विरोध में कैसे लिखी जाती है, और इसी समस्या को राष्ट्रकवि दिनकर किस ढंग से उठाते हैं, ये दोनों नजीरें कुछ यों समझी जा सकती हैं:
केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी पुस्तक ‘कहें केदार खरी खरी’ में लिखा है…
मानव से मानव शोषित है,
अत: आज हम हँसते-हँसते
नई शपथ यह ग्रहण करेंगे
जनवादी सरकार करेंगे।
सरकार के प्रति जनता के इसी असंतोष को दिनकर कुछ यों कहते हैं:
सदियों की बुझी, ठंढी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
उठो समय के रथ का घर्र-घर्र नाद सुनो,
सिंहासन करो खाली कि जनता आती है।
इसमें कोई शक नही कि दोनों दो धारा के कवि हो सकते हैं। दोनों की शैली भी अलग हो सकती है। छंद एवं तुक का मिजाज़ भी अलग-अलग हो सकता है। यह भी कोई बड़ी बात नही कि कोई अतुकांत कविता लिखे अथवा छंदबद्द लिखे। अतुकांत कविता का भी अपना सौन्दर्य होता है। दिनकर ने भी अपने खंडकाव्यों में अतुकांत लिखा है। मगर अतुकांत काव्य लिखने के नाम पर अगर भाव, कथ्य, लय की धारा का गला घोंटा जाय तो इसे भला साहित्य के मापदंडों पर कैसे उचित ठहरा देंगे ? काव्य केवल कथ्य की मांग नहीं करता, वरन वो भाव, लय एवं सतत बहती धारा की भांति भी होता है। दिनकर के अतुकांत काव्य की एक नज़ीर रखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अतुकांत काव्य में भी कितने अनुशासित एवं प्रवीण थे। उनके अतुकांत रचना में भी भाव एवं सतत लय का अभाव कहीं नहीं दिखता है।
अपने प्रबंध-काव्य कुरुक्षेत्र में दिनकर लिखते हैं,
रुग्ण होना चाहता कोई नही
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त औषधि के सिवा उपचार क्या
शमित होगा यह नही मिष्ठान्य से।
अब अगर प्रगतिशील कविता के नाम पर ज्ञानपीठ से सम्मानित केदारनाथ सिंह की एक अतुकांत रचना देखें तो वे भी दिनकर के सामने लोक की समझ के अनुरूप काव्य लिखने के मामले में कहीं नहीं ठहरते हैं। प्रगतिशील धारा के केदारनाथ सिंह ने “कथाओं से भरे इस देश में’ लिखा है:
कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूँ
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में।
साहित्य एवं कविता में रूचि रखने वाले एक आम पाठक के नजरिये से अगर दिनकर बनाम अन्य का मूल्यांकन करें, तो पहला मापदंड यही तय होना चाहिए कि कौन कवि अथवा लेखक आम लोक की बात को आम लोक के मिजाज में लिखता है। यह सवाल इसलिए क्योंकि कविता अथवा साहित्य किसके लिए लिखे जा रहे हैं ? तुक-ताल और लय-छंद से मुक्त कविता के माध्यम से क्या बताने अथवा पढवाने की कोशिश की जा रही है ? क्या कारण है कि हिंदी में कालजयी रचनाये रची जानी बंद हो गयीं और अब देश का युवा ‘हाफ-गर्लफ्रेंड’ को खरीदने में रूचि दिखाने लगा है ? क्या आज के कवियों में ओज और तेज को प्रस्फुटित कराने वाली कविताओं को लिखने का कौशल नही है, अथवा वाकई वे नहीं चाहते कि साहित्य की पहुँच लोक तक हो भी? कविता में देश की युवा पीढ़ी को उद्वेलित करने वाले स्वर मर चुके हैं और कविता महज साहित्यकारों की गोल-चौकड़ी की बौद्धिक जुगाली का साधन मात्र बनकर रह गयी है। हिंदी साहित्य के इस हश्र का दोषी वो हर लेखक अथवा साहित्यकार है, जो आज स्थापित है। दिनकर पर उनकी शैली के बहाने हमला शुरू होता है और हमले का उपकरण बनाया जाता है, छंदमुक्त कविता को। यह दुष्प्रचार किया गया है कि अगर आप छन्दयुक्त कविता लिखते हैं, इसका मतलब ये कि आप सिर्फ मंचीय कवि तक सीमित हैं। दिनकर के समाजिक चिन्तन एवं राष्ट्रवादी धारणा को महज मंचीय कवि तक साबित करने की भरसक कोशिश की गयी और अभी भी की जा रही है। हालांकि साहित्य जगत में दिनकर इतने बड़े हस्ताक्षर हैं कि उनके नाम पर सीधा प्रहार न तो किसी प्रगतिशील के बूते की बात रही और न ही किसी विरोधी ने ही इतना जोखिम लिया होगा। लेकिन दिनकर की ओज भरी लोक से सीधे जुड़ने वाली शैली को खारिज करने की भरसक कोशिश की गयी है। वर्तमान के तमाम साहित्यिक दिग्गजों को भी उसी परम्परा को बढ़ाने वाला कवि कहा जा सकता है। रचनाकर्म का उद्देश्य ये होना चाहिए कि वो सामान्य जन की समझ में आये और सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करे। रचनाकर्म ऐसा नही होना चाहिए कि सामान्य जन के लिए अबूझ पहेली बनकर साहित्यकारों की चौकड़ी के विमर्श तक सिमट कर रह जाय। दिनकर को लेकर केवल प्रगतिशील ही नहीं बल्कि नब्बे के दशक के बाद उभार किये दालित साहित्यकारों ने भी उनको खारिज ही किया है। जबकि सच्चाई ये है कि अपनी काव्य-कृतियों में दिनकर ने हाशिये के समाज की अभिव्यक्ति को किसी भी कथित दलित साहित्यकार से ज्यादा उठाया है। दिनकर ने रुढ़िवादी जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने खंड-काव्य ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में लिखा है;
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
आज दलित साहित्य के नाम पर भी छन्दमुक्त कविता का प्रचलन चल पड़ा है, जिसकी पहुँच न तो दलित समाज तक है और न हो सकती है। अगर वाकई किसी शोषित, दलित अथवा पीड़ित की आवाज साहित्य में काव्य के माध्यम से देखने की लालसा है, तो दिनकर यहां भी उसी शैली में उपस्थित मिलते हैं। दलित साहित्य की चौकड़ी ने दिनकर को इसलिए खारिज किया होगा क्योंकि वे दलितों की बात तो करते थे, लेकिन खुद दलित नही थे। दलित साहित्य की नई प्रथा ने यह साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है कि ‘दलित साहित्य लिखने के लिए दलित होना भी अनिवार्य है।‘ हालांकि यह तर्क चल नहीं पाया और यहां भी दिनकर किसी भी दलित साहित्य के पुरुधा से ज्यादा बेबाक लेखन करते नजर आते हैं। अगर इमानदारी से मूल्यांकन हो तो दलित उत्थान की किसी भी कृति से बड़ी कृति दिनकर द्वारा ‘कर्ण’ को केंद्र में लेकर लिखी गयी कृति ‘रश्मिरथी’ है। दिनकर यहां भी जाति-व्यवस्था को अपनी लेखनी में कुछ यों लिखते हैं;
जाति-जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मै क्या जानूं जाति, जाति हैं ये मेरे भूज-दंड।
दिनकर का काव्य-कौशल का दायरा जितना व्यापक है, गद्य में भी उतना बड़ा है। लेकिन हाशिये पर धकेलने की साजिशों ने दिनकर के गद्य का मूल्यांकन भी नहीं होने दिया। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ निबंध संग्रह के अलावा दिनकर की पचीस और गद्य रचनाएं हैं। दिनकर का समग्र मूल्यांकन करें तो एक दिनकर के अन्दर न जाने कितने दिनकर नजर आयेंगे। मगर दुर्भाग्य ये है कि दिनकर का मूल्यांकन कभी इतने व्यापक अर्थों में हुआ ही नहीं है। कोई दिनकर को ‘दिग्भ्रमित कवि’ कहता है तो कोई ‘सरकारी कवि’। जबकि सच्चाई यही है कि दिनकर ने हमेशा समाज के लिए कविता की है। दिनकर का ओहरा इतना विस्तृत है कि उनका मूल्यांकन भी दो बिन्दुओं पर किया जाना जरुरी है। पहला, साहित्य में दिनकर एवं दूसरा दिनकर का साहित्य। अगर वास्तविक मूल्यांकन हुआ होता तो इसमें कोई शक नही कि साहित्य में दिनकर की स्थिति सूर्य जैसी होती और दिनकर का साहित्य भारतीय समाज एवं राष्ट्र का सच्चा प्रतिबिम्ब होता। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने तो यह स्वीकार किया है कि दिनकर साहित्य में सूर्य जैसे थे। फिर सवाल वही है कि अगर दिनकर साहित्य के सूर्य हैं तो वर्तमान कवियों की धारा भटकाने का बौधिक अपराध कौन रहा है ? हालांकि दिनकर की शैली को खारिज कर समाज से कटी हुई नई शैली को इजाद करने वाले कवियों की फसल कौन तैयार किया है और कर रहा है और साहित्य के उर्वर जमीन से उपयोगी फसल की बजाय ये घास-फूस क्यों पैदा हो रहे हैं, ये सवाल भी आलोचकों और स्थापितों से पूछा जाना चाहिए। फिलहाल तो इस सवाल वर्तमान धारा के साहित्यकारों पर दिनकर की ही लिखी एक पंक्ति सटीक बैठती है:
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।