आवश्यकता इस बात की है कि हम भारत में वस्तुएं बनाने के साथ-साथ उन्हें खरीदने और उनका उपयोग करने के लिए सच्चे मन से संकल्प लें। दीपावली के शुभ अवसर पर हम भारतीयों की लक्ष्मी भारत की सीमाओं के अन्दर ही सुशोभित हो; हमारी लक्ष्मी का बहिर्गमन यथासंभव नियंत्रित हो, यही सच्चा लक्ष्मी-पूजन है। सरकार इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील है, अब जिम्मेदारी आम जनों की है।
स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व हमारे देशवासियों ने भावी भारत के रूप में सशक्त और समृद्ध राष्ट्र का सपना देखा था। उन्हें विश्वास था कि अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिलते ही हम भारतीयों का ‘स्वराज्य’ स्वावलंबन से सशक्त और सम्पन्न बनकर ‘सुराज’ की स्वार्णिम कल्पनाएं साकार करेगा। प्रख्यात सुकवि-नाटककार जयशंकर प्रसाद कृत ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक के निम्नांकित गीत में इस जनभावना की अनुगूँज दूर तक सुनाई देती है-
हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से
प्रबुद्ध-शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती।
उपर्युक्त पंक्तियों में स्वतंत्रता का ‘स्वयंप्रभा’ (आत्मनिर्भर) और ‘समुज्ज्वला’ (भ्रष्टाचार मुक्त) रूप कल्पित है। महात्मागाँधी के ‘हिन्द स्वराज’ में वर्णित तत्कालीन राजनीतिक-दृष्टि भी स्वतंत्रता के इसी रूप का स्वागत करने को प्रस्तुत मिलती है। स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक आन्दोलनों की धूम के मध्य विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाना, उनकी होलियाँ जलाया जाना और घर-घर में सूत कातकर, वस्त्र बुनकर स्वावलम्वन का आधार पुष्ट करना स्वतंत्रता को ‘स्वयंप्रभा’ बनाने के ही व्यावहारिक प्रयत्न थे।
दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गठित कांग्रेसी सरकारों द्वारा देशहित के ये महान प्रयत्न हाशिये पर डाल दिए गए। खादी जो तप-त्याग की प्रतीक थी; सादगी का प्रतिमान थी; वह चुनावों में मत प्राप्त करने का साधन बन कर रह गई। महात्मा गाँधी का नाम लेकर सत्ता सुख भोगने वालों ने औद्योगीकरण, आधुनिकता और विकास का नारा उछालकर गाँधी के सपनों के भारत हिन्द स्वराज की भारतीय प्रगति-योजना महानगरीय चकाचैंध की वेदी पर बलिदान कर दी। हमारी स्वतंत्रता न ‘स्वयंप्रभा’ बन सकी और न ‘समुज्ज्वला’ हो सकी। भ्रष्टाचार ने स्वतंत्रता की सारी उज्ज्वलता निगल ली।
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा था –
अंग्रेज राज सुख साज सबै अति भारी।
सब धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी।।
परतंत्र भारत में हमारे साहित्यकार नेता और बुद्धिजीवी सजग थे। उन्हें चिन्ता थी कि देश की लक्ष्मी षडयन्त्रपूर्वक देश के बाहर ले जायी जा रही है। ब्रिटिश शासन की वाणिज्य नीतियाँ हमारे राष्ट्र की आर्थिक संप्रभुता पर आघात कर रही हैं; हमारे कुटीर उद्योग मिट रहे हैं और आयातित वस्तुओं का उपयोग देश-हित में नहीं है। उन्होंने हर संभव बलिदान देकर इस स्थिति को बदला और देश को ब्रिटिश-शासन से मुक्ति दिलाई ताकि भारतीय-नेतृत्व भारतीय-हितों की सिद्धि हेतु प्रयत्नशील हो; किन्तु, कैसी विडम्बना है कि स्वतंत्रता पश्चात् देश में बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने वाली कथित गांधीवादी कांग्रेसी सरकारों ने स्वदेशी के उपयोग की भावना को ऐसी तिलांजलि दी कि हमारे बाजार विदेशी माल बेचने के केन्द्र बनकर रह गये।
यह सुखद है कि विगत कुछ वर्षों में हुई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं में चीन की भारत-विरोधी भूमिका से भारतीय जनमानस पुनः सजग हुआ है और चीनी वस्तुओं को छोड़ स्वदेशी की ओर लोगों का रुझान देखने को मिल रहा है। वर्तमान सरकार भी स्वदेशी के महत्व को समझते हुए इस दिशा में विविध प्रकार की पहलें कर रही है। प्रधानमंत्री के आह्वान पर ‘वोकल फॉर लोकल’ अब एक अभियान ही बन चुका है। साथ ही सरकार द्वारा आयातित वस्तुओं पर निर्भरता कम करने के लिए व्यापक प्रयास किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर आत्मनिर्भर भारत की राह पर देश ने कदम बढ़ा दिए हैं।
आवश्यकता इस बात की भी है कि हम भारत में वस्तुएं बनाने के साथ-साथ उन्हें खरीदने और उनका उपयोग करने के लिए सच्चे मन से संकल्प लें। दीपावली के शुभ अवसर पर हम भारतीयों की लक्ष्मी भारत की सीमाओं के अन्दर ही सुशोभित हो; हमारी लक्ष्मी का बहिर्गमन यथासंभव नियंत्रित हो, यही सच्चा लक्ष्मी-पूजन है। सरकार इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील है, अब जिम्मेदारी आम जनों की है। स्वदेशी की राह पर चलने से ही लक्ष्मी मैय्या की कृपा प्राप्त होगी और हमारी स्वाधीनता स्वयंप्रभा हो सकेगी।
(लेखक शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, होशंगाबाद (मप्र) में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)