शिवानन्द द्विवेदी
वामपंथ की राजनीति एवं उनके दलीय संगठनात्मक ढाँचे का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि दुनिया के कमोबेश सभी लोकतांत्रिक देशों की जनता ने वामपंथी दलों एवं उनकी विचारधारा को लोकतंत्र के अनुकूल नहीं मानते हुए, सिरे से नकार दिया है। यानी दो टूक कहें तो जहाँ भी लोकतंत्र की सुगंध आई वहां से वामपंथी काफूर कर दिए गये!
भारतीय लोकतंत्र में भी आज वामपंथी दलों का जनप्रतिनिधित्व और जनादेश में भागीदारी नगण्य ही है। जबकि यह भी एक तथ्य है कि इसी ‘सहिष्णु’ देश भारत ने दुनिया में पहली बार वामपंथियों को लोकतान्त्रिक ढंग से राजनीति करने और सत्ता (केरल में) तक पहुँचने का पहला अवसर दिया था। यह अलग बात है कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से वे लोकतंत्र के माहौल में खुद फिट नही कर पाए। जनादेश के पैमाने पर बुरी तरह पिट चुकी वामपंथी दलों की राजनीतिक हैसियत का प्रमाण यही है कि जहां केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में उनकी स्थिति कमजोर हो रही है वहीं उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों में आज कोई उनका नामलेवा नहीं है। भारत के सभी पाँच-छ: राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के बीच वामदलों की स्थिति बेहद कमजोर नजर आती है।
दुनिया में कम्युनिस्टों के बुरे हश्र का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि महज नौ सीटों वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों के बीच सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी है। अर्थात, भारत में जिसकी हैसियत किसी गिनती में नही वो दुनिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी है! अगर सभी गैरलोकतांत्रिक देशों को भी मिलाकर पूरी दुनिया की बात करें तो माकपा से बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ और सिर्फ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी है। परस्पर विरोधाभास भरा ये तथ्य दुनिया के तमाम वामपंथी दलों की दुर्दशा का साफ चित्रण करता है। लोकतांत्रिक देशों के बीच दुनिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी माकपा की लोकसभा की कुल 543 सीटों में से महज 9 सीटें हैं। वहीँ भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा की लोकसभा में महज एक सीट है। बड़ा सवाल ये है कि विचारधारा के नाम पर आकर्षक लफ्फाजियों की पोथी लेकर ढोने वाले इन वामपंथी राजनीतिक दलों की स्थिति जनता के बीच जाते ही इतनी निरीह क्यों हो जाती है? आखिर वो क्या कारण है कि दुनिया के किसी एक लोकतंत्र ने इनको अथवा इनकी विचारधारा को जनादेश के कटघरे में सही नहीं माना और नकार दिया है ? अब चूँकि जनता के बीच की राजनीति से वामपंथी लगभग खारिज हो चुके हैं तो इनका बौद्धिक ठौर-ठिकाना जेएनयू बचा है। देश की राजधानी के इसी ठिकाने से वामपंथी राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सारी राजनीति कर लेना चाहते हैं। यह ठिकाना इनको साठ के दशक के उतरार्ध में कांग्रेस (इंदिरा) द्वारा उपहार स्वरूप दिया गया था। चूंकि जेएनयू की स्थापना के पीछे उसे वाम अखाड़ा बनाने की सुनियोजित साजिश जेएनयू की स्थापना के बाद की तत्कालीन इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा रची गयी थी। देश की राजधानी से अपने अनुकूल बौद्धिक माहौल तैयार करने, अपने वैचारिकता के अनुकुल किताबों के कंटेंट तय करने, अपने अनुकूल इतिहास गढ़ने के लिए जेएनयू की स्थापना की गयी थी। सत्ता पोषित सुविधाभोग और विलासी जीवन पद्धति जेएनयू को विरासत में मिली। बौद्धिक मोर्चे पर कांग्रेस के अनुकूल माहौल बनाये रखने के लिए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने जेएनयू नामक इस प्रकल्प को स्थापित किया।
अब सवाल है कि आखिर दिल्ली जैसी जगह जहाँ एक वामपंथी विधायक तक की राजनीतिक हैसियत नही बन पाई है, वहां जेएनयू का यह किला ‘लाल-सलाम’ के नारों से दशकों तक कैसे अभेद्द बना रहा है? इस सवाल का जवाब साठ के दशक के उतरार्ध एवं सत्तर के दशक की शुरुआत में जाने पर मिल जाता है। दरअसल यह वह दौर था जब इंदिरा गांधी खुद के लिए ही कांग्रेस में महफूज़ नहीं महसूस कर रहीं थीं। कांग्रेस में विरोधी खेमा सिंडिकेट-इन्डिकेट के रूप में कमर कसने लगा था। गैर-कांग्रेसवाद का असर देश में यों चला कि साठ के दशक में ही देश के दस राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार बन चुकी थी। इंदिरा की स्वीकार्यता और नेहरू के विरासत की आभा भी कमजोर पड़ने लगी थी। चूंकि इंदिरा गांधी को यह आभास हो चुका होगा कि अब राजनीति और सत्ता में बने रहना केवल नेहरू की पारिवारिक विरासत के नाम पर सम्भव नही है। लिहाजा वे विकल्पों पर काम शुरू कर चुकी थीं।
साठ के दशक के अंतिम दौर में कांग्रेस में इंदिरा के लिए ऐसी स्थिति तक आ गयी कि उन्हें सरकार चलाने के लिए वामपंथियों की मदद लेनी पड़ी और इसके एवज में कम्युनिस्टों ने भी अकदामिक संस्थाओं पर कब्जा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। दुसरी तरफ जनसंघ आदि का विस्तार भी देश में होने लगा था। वोट अब बैंक की शक्ल में आसानी से कांग्रेस के झोले में जाता नही दिख रहा था। परिणामत: इंदिरा गांधी ने सेकुलरिज्म बनाम साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भरोसा दिखाया। हालांकि हिंदुत्व की राजनीति के जवाब में साम्प्रदायिकता का विमर्श तो इंदिरा देश में चलाना चाहती थीं लेकिन यह काम वो सीधे कांग्रेस की बजाय कुछ अन्य चेहरों के भरोसे करना चाहती थीं। चूंकि इंदिरा को इस बात का डर जरूर रहा होगा कि यदि हिंदुत्व को साम्प्रदायिकता के तौर पर प्रचारित करने का काम खुद कांग्रेस करने लगेगी तो कहीं हिन्दू ध्रुवीकरण कांग्रेस के खिलाफ न हो जाय। अत: प्रत्यक्ष जोखिम इंदिरा लेना नही चाहती थीं। हिंदुत्व के बहाने साम्प्रदायिकता पर विमर्श तो चलाना ही था और इसका काम जेएनयू में अपने लोगों को बैठाकर इंदिरा ने कम्युनिस्टों के माध्यम से उन्हें सौंप दिया। अपने अनुकूल विमर्श को मुख्यधारा के एजेंडे में लाने का इंदिरा गांधी का यह तरीका बिलकुल अंग्रेजो जैसा था।
खैर, मलाई खाने की आस में कम्युनिस्ट दलों ने इंदिरा के साथ मिलकर अहम पदों के बदले कांग्रेसी एजेंडे को संस्थाओं के माध्यम से आगे बढ़ाने का काम उन्होंने बखूबी संभाल लिया। जेएनयू के प्रोफेसर उसी समय से आजतक वामपंथ की खोल ओढ़कर देश में हिंदुत्व को साम्प्रदायिकता बताने की किताबें, लेख, रीसर्च गढ़ने लगे। जेएनयु में दाखिले और नियुक्ति का मानदंड तो वामपंथी होना लगभग परोक्ष रूप से तय हो चुका था। वैचारिक छुआछूत इतना ठूस-ठूस भरा गया कि इतने दशकों बाद भी वैचारिक विविधताओं का समान प्रतिनिधित्व आजतक जेएनयु में कायम नही हो सका है! आज स्थिति बदल रही है। जनादेश का मिजाज बदल रहा है। कांग्रेस अपने पापों की सजा भुगतने को अभिशप्त है। अत: जेएनयू में भी बदलाव स्वाभाविक है। जेएनयु में अब दूसरी विचारधाराएँ भी स्थापित होने लगी हैं। विचारधारा थोपने का रोना रोने वाले वामपंथी यह क्यों नही बताते कि आखिर इन पांच दशकों में जेएनयू में वैचारिक प्रतिनिधित्व के नाम पर किसी एक विचारधारा का कब्जा क्यों रहा है? जिस दिल्ली में वे एक पार्षद नही बना पाते वहां वे जेएनयू कैम्पस में किस जनाधार पर कब्जा किये बैठे रहे हैं?
इस लिहाज से देखें तो लोकतांत्रिक दुनिया सहित समूचे देश से बेघर हो रहे वामपंथियों के लिए जेएनयू किसी ‘रैन-बसेरा’ से कम नहीं है!