हर्ष वी. पंत
हाल के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने इस बात को एक बार फिर से साबित कर दिया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अब भारतीय राजनीति की केंद्रीय धुरी है। मई 2014 में लोकसभा चुनावों में मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा दर्ज निर्णायक जीत के बाद से ही देश में उसके पक्ष में रुझान बना हुआ है। 2014 में मिली बड़ी जीत के बाद दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनावों में पराजय के उपरांत कुछ लोग मोदी लहर और प्रभाव पर सवाल खड़े करने लगे थे। लेकिन यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि भारत की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी कांग्रेस नियमित अंतराल में अपना जनाधार खोती जा रही है और दूसरी ओर भाजपा पूरे देश में अपना विस्तार करती जा रही है। पूवरेत्तर राज्य असम में जहां कुछ साल पहले तक उसकी न्यूनतम उपस्थिति थी वहीं गत दिनों उसे विधानसभा चुनावों में निर्णायक जीत हासिल हुई। इसके अलावा केरल और पश्चिम बंगाल में जहां पहले भाजपा का कोई नामोनिशान नहीं था वहां भी इस बार के चुनावों में उसके मत प्रतिशत में खासी बढ़ोतरी हुई है।भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेता के रूप में मोदी की छवि बरकरार है। हाल में मिली सफलता से उनके आत्मविश्वास में इजाफा हुआ होगा, जिससे वह अपने विकास एजेंडे को नए उत्साह से आगे बढ़ा सकेंगे। दूसरी ओर कांग्रेस की अवरोध पैदा करने वाली राजनीति को करारी हार का सामना करना पड़ा है। इसे देखते हुए यह उम्मीद फिर बलवती हुई है कि मोदी सरकार अपने अत्यधिक महत्वपूर्ण सुधार कार्यक्रम में शुमार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक को क्षेत्रीय दलों की मदद से संसद से पारित कराने में सफल हो सकती है। यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था 2016 में 7.6 फीसद की विकास दर के साथ ही बेहतर करती प्रतीत हो रही है और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ती जा रही है, लेकिन संसद के जरिये महत्वपूर्ण सुधारवादी कार्यक्रमों को लागू करने में मोदी की क्षमता को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं। मोदी अपने पांच देशों के दौरे में अमेरिका पहुंच गए हैं, जहां उन्हें अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करने का मौका मिलेगा। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उनकी चौथी अमेरिकी यात्र है। अमेरिकी कांग्रेस के जरिए वह एक राजनेता के रूप में अपनी विश्वसनीयता पुन: सुदृढ़ करेंगे, ताकि न सिर्फ भारत के आर्थिक सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जा सके, बल्कि भारत-अमेरिका संबंधों को नई ऊंचाई दी जा सके। आज अमेरिका में कतिपय राजनीतिक मतभेदों के बावजूद हर तरफ भारत के साथ मजबूत संबंधों के पक्ष में वातावरण है। अमेरिकी प्रशासन ने 2014 के चुनावों के बाद मोदी से संपर्क स्थापित करने में तनिक भी देरी नहीं की। अब जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल खत्म होने वाला है तब अमेरिकी कांग्रेस भारत के समर्थन में खुलकर बोल रही है। अमेरिका में प्रभाव रखने वाले दोनों दलों के नेता हर मुद्दे पर भारत का समर्थन कर रहे हैं।एक तरफ अमेरिकी कांग्रेस पाकिस्तान को दी जाने वाली सैनिक सहायता का विरोध कर रही है वहीं दूसरी ओर गत हफ्ते अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने भारत के साथ रक्षा संबंधों को मजबूत करने के लिए एक विधेयक को मंजूरी दे दी। उसका मकसद भारत को नाटो के दूसरे सहयोगियों के समतुल्य खड़ा करना है ताकि रक्षा उपकरणों की बिक्री और तकनीकी हस्तांतरण में कोई अड़चन पैदा न हो। इसमें अमेरिकी सरकार से भारत की रक्षा क्षमताओं को मजबूत करने और हथियारों के साझा विकास के अवसरों को बढ़ाने को कहा गया है। इसके साथ नई दिल्ली से उम्मीद की गई है कि वह साझा हितों की पूर्ति के लिए अमेरिका के साथ मिलकर संयुक्त सैन्य योजनाओं पर आगे बढ़ेगी। ऐसा ही एक विधेयक सीनेट में भी लाया गया है। मोदी सरकार के शासनकाल में भारत-अमेरिकी रक्षा संबंधों को गति मिली है। 2015 में दोनों देशों के बीच 14 अरब डॉलर का रक्षा कारोबार हुआ। दोनों देश महत्वपूर्ण सामरिक योजनाओं पर साझा कदम बढ़ा रहे हैं। संयुक्त सैन्य अभ्यास अब दोनों सेनाओं की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। लंबी खटपट के बाद गत महीने भारत ने सैद्धांतिक रूप से भारत में अमेरिका को सैन्य बेस खोलने की सहमति दे दी। अपने-अपने साजोसामान को एक-दूसरे से साझा करने और आदान प्रदान करने से जुड़ा यह समझौता दोनों देशों की नौसेनाओं को मजबूती प्रदान करेगा।यह सच है कि चीन की शत्रुतापूर्ण नीति ने भारत को अमेरिका की ओर झुकने को मजबूर किया है। मोदी सरकार ने अपने आरंभिक काल में ही चीन की ओर कदम बढ़ाया था, लेकिन द्विपक्षीय संबंधों पर उसका कोई खास सकारात्मक असर नहीं हुआ है। उल्टे चीन का भारत विरोधी रवैया नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। पिछले महीने उसने जैश ए मोहम्मद के आतंकी सरगना और जनवरी में पठानकोट में हुए आतंकी हमले के मास्टरमाइंड मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने से संयुक्त राष्ट्र को रोक दिया। यह एक गंभीर मामला है। यदि संयुक्त राष्ट्र उसे प्रतिबंधित कर देता तो विश्व में उसकी पहचान एक आतंकी की हो जाती। इन दिनों चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को रोकने में लगा है। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह 48 देशों का एक ग्रुप है जो परमाणु संबंधित निर्यात को नियंत्रित करता है। अमेरिका एनएसजी में भारत के प्रवेश का समर्थन करता है।चीन का यह रवैया भारत-अमेरिकी संबंधों में आई मजबूती का एक बड़ा कारण है। हालांकि स्वयं मोदी सरकार के प्रयासों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। वह अपनी पूर्ववर्ती सरकारों के वैचारिक बोझ से आजाद है। मोदी भारत को एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रूप में उभारना चाहते हैं, जो विश्व व्यवस्था को एक नया आकार देने में सक्षम हो। वह अच्छी तरह जानते हैं कि इसके लिए नई दिल्ली को वाशिंगटन के सहयोग और समर्थन की दरकार होगी। इसके लिए वह खतरा उठाने को तैयार दिख रहे हैं। उम्मीद है कि वह अमेरिकी कांग्रेस में संबोधन के दौरान कहेंगे कि उनकी सरकार अमेरिका को भारत के प्रमुख रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखती है और वाशिंगटन के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि वह उन्हें ध्यानपूर्वक सुने और भारत के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया दे। इसलिए और भी, क्योंकि मोदी के शासनकाल में भारत में एक ऐसी पीढ़ी का उभार हुआ है जो भारत-अमेरिकी संबंधों को नई दिशा दे सकती है।
(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक हैं, यह लेख ८ जून को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ था )