राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर जानलेवा हमले की घटनाओं में वृद्धि हुई है। यह घटनाएं किसी षड्यंत्र की ओर इशारा करती हैं। केरल, पंजाब, कर्नाटक और अब भाजपा शासित मध्यप्रदेश में भी संघ के कार्यकर्ता पर हमला करने की घटना सामने आई है। अभी इन घटनाओं के पीछे एक ही कारण समझ आ रहा है। संघ की राष्ट्रीय विचारधारा के विस्तार और उसके बढ़ते प्रभाव से अभारतीय विचारधाराओं में खलबली मची हुई है। फासीवाद, हिटलरशाह, सांप्रदायिक से लेकर असहिष्णुता के आरोप लगाने के बाद भी वह संघ के बढ़ते कदमों को नहीं रोक पा रही हैं। प्रतीत होता है कि संघ को रोकने के लिए अब उन्होंने सब जगह हिंसक हमलों का विकल्प चुना है, तो अब उन्होंने हिंसा का राष्ट अख्तियार किया है। हालांकि, उनका यह अस्त्र भी पुराना और असफल है। केरल से लेकर नक्सल प्रभावित इलाकों में उन्होंने लोगों को संघ से दूर करने के लिए हिंसा के आधार पर भय का वातावरण बनाने का लम्बा प्रयास किया है, जिसमें उन्हें कहीं भी सफलता नहीं मिली। केरल में संघ के स्वयंसेवक मास्टर जी के पैर काटकर भी वामपंथी गुंडे उनके हौसले को नहीं हरा सके। कृत्रिम पैरों की मदद से मास्टर जी फिर से संघ स्थान पर आकर खड़े हो गए हैं। इस विजयादशमी के पथ संचलन में भी नई गणवेश में उन्होंने सहभागिता की है।
सोचने की बात यह है कि अवार्ड वापसी गैंग को संघ कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों में असहिष्णुता नजर नहीं आई है। एक संगठन और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों की हत्याएं हमारे इस बौद्धिक समुदाय को विचलित नहीं कर रही हैं। उनका मौन इस बात का गवाह है कि वह व्यक्तियों में पंथ, संप्रदाय, जाति और विचारधारा के आधार पर भेद करते हैं। बौद्धिक जगत का मौन संघ के प्रति हिंसक हमलों का समर्थन है। संघ के खिलाफ यह हिंसक षड्यंत्र जितना निंदनीय है, उससे कहीं अधिक लानत की हकदार इस तथाकथित बौद्धिक जगत की खामोशी है।
कन्नूर जिले के ही पिनारयी में 12 अक्टूबर, 2016 को मार्क्सवादी गुंडों ने स्वयंसेवक रामिथ की हत्या कर दी। गुंडों ने 26 वर्षीय युवा रामिथ की हत्या उस समय कर दी, जब वह अपनी भतीजी के लिए दवा खरीदने जा रहा था। बर्बरता से रामिथ पर लोहे की छड़, खंजर और तलवार से हमला किया गया। इससे पूर्व भी चुनाव के तत्काल बाद वामपंथियों के पक्ष में जनमत आने 19 मई, 2016 को मार्क्सवादी गुंडे रामिथ के घर में घुसकर उस पर हमला किया था, उसकी माँ को धमकी दी थी कि संघ से संबंध खत्म कर लो, वरना उसके बेटे को मार डालेंगे। उल्लेखनीय है कि मार्क्सवादी गुंडे इससे पहले रामिथ के पिता की हत्या कर चुके हैं। लेकिन, यह परिवार गुंडों के आगे झुका नहीं। केरल में तो लक्षित करके राष्ट्रवादी विचारधारा के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया ही जा रहा है, अब यह खूनी खेल देशभर में खेला जा रहा है। इसी 16 अक्टूबर को कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में आरएसएस कार्यकर्ता की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। जब रूद्रेश आरएसएस के एक कार्यक्रम से घर लौट रहा था, तब बाइक सवार हमलावरों ने तेज धार हथियार से उसकी हत्या कर दी। पंजाब प्रांत की घटना को भी अधिक दिन नहीं बीते हैं। चंडीगढ़ में शाखा स्थान पर ही संघ के कार्यकर्ता जगदीश गगनेजा पर हमला किया गया था। गंभीर रूप से घायल गगनेजा ने अस्पताल में दम तोड़ दिया था।
आरएसएस के प्रति यह हिंसक षड्यंत्र अब भाजपा शासित राज्य मध्यप्रदेश तक पहुँच गया है। बालाघाट में संघ प्रचारक सुरेश यादव के साथ बर्बर ढंग से मारपीट का मामला सामने आया है। एक तथाकथित आपत्तिजनक व्हाट्सएप पोस्ट को शेयर करने के कथित अपराध में बैहर थाना प्रभारी जिया उल हक ने संघ कार्यालय में घुसकर प्रचारक सुरेश यादव के साथ मारपीट की। उन्हें लगभग घसीटते हुए कार्यालय से बाहर लाया गया। सड़क से लेकर थाने तक उनके साथ मारपीट की गई। पुलिस पर आरोप यह भी हैं कि जिया उल हक ने संप्रदाय विशेष के आपराधिक तत्वों से भी यादव को पिटवाया। बहरहाल, प्रदेश सरकार ने संजीदगी दिखाते हुए अमानवीय और आपराधिक व्यवहार के लिए आईजी डीजी सागर, थाना प्रभारी जिया उल हक और एएसपी राजेश शर्मा सहित इस घटना में शामिल छह पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया। लेकिन, इस सवाल का जवाब कोई भी नहीं दे पा रहा है कि आखिर सुरेश यादव का ऐसा क्या अपराध था कि उन्हें संघ कार्यालय से लेकर थाने तक पीटा गया। पुलिस ने कथित आपत्तिजनक पोस्ट की जाँच साइबर क्राइम सेल से क्यों नहीं कराई? क्यों बिना जाँच पड़ताल के सीधे संघ प्रचारक पर बर्बर कार्रवाई की? क्या ऐसे किसी मामले में पुलिस ने ऐसी ही कार्रवाई की है? फिर सुरेश यादव से क्या शत्रुता थी? जाहिर है, एसआईटी की जाँच में दोषी पुलिस अधिकारियों के पास इन सवालों के जवाब नहीं है। इसलिए वह पूरे मामले को कभी पुलिस की प्रतिष्ठा से जोड़ रहे हैं और कभी परिजनों से बेकार की बयानबाजी करा रहे हैं।
सोचने की बात यह है कि अवार्ड वापसी गैंग को इन सब घटनाओं में असहिष्णुता नजर नहीं आई है। एक संगठन और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों की हत्याएं हमारे बौद्धिक जगत को विचलित नहीं कर रही हैं। उनका मौन इस बात का गवाह है कि वह व्यक्तियों में पंथ, संप्रदाय, जाति और विचारधारा के आधार पर भेद करते हैं। बौद्धिक जगत का मौन संघ के प्रति हिंसक हमलों का समर्थन है। संघ के खिलाफ यह हिंसक षड्यंत्र जितना निंदनीय है, उससे कहीं अधिक लानत की हकदार इस तथाकथित बौद्धिक जगत की खामोशी है। देश बड़ी खामोशी और बेचैनी से यह सब देख रहा है। वह ईमानदारी से सबका मूल्यांकन करेगा, जैसा कि अब तक करता आया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हैदराबाद में आयोजित अपने अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पारित कर राजनीति प्रेरित हत्याओं को रोकने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की माँग केरल और केंद्र सरकार के सामने रखी है। इसके साथ ही संघ ने जनसामान्य से आह्वान किया है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के हिंसात्मक तौर-तरीकों के विरुद्ध जनमत निर्माण करने के लिए विभिन्न मंचों पर आवाज उठाई जाए। यदि देश के बौद्धिक जगत को वाकई देश की सहिष्णुता की फिक्र है, तब उसे इस लाल आतंक के खिलाफ हल्ला बोलना चाहिए। केरल में संघ के कार्यकर्ताओं पर हुए हमलों को देखा जाए, तब ज्ञात होगा कि वास्तव में वैचारिक असहिष्णुता का सबसे बड़ा शिकार तो आरएसएस है। आंकड़ों के मुताबिक केरल में पिछले सात दशकों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी काडर द्वारा अपने नेतृत्व की मूक सहमति एवं मिलीभगत से 250 से अधिक संघ के ऊर्जावान एवं होनहार युवा कार्यकर्ताओं की वीभत्स तरीके से हत्याएं एवं भारी संख्या में स्त्रियों और पुरुषों को गंभीर चोटें पहुचाकर उन्हें अक्षम बनाया है। इस लाल आतंक का सर्वाधिक शिकार गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक लोग हुए हैं। लेकिन, देखने में आता है कि संघ पर होने वाले हमलों में तथाकथित बुद्धिजीवियों को असहिष्णुता दिखाई नहीं देती है। अपने प्रस्ताव में संघ ने भी इस संदर्भ में कहा है कि ‘जो लोग अन्यथा छोटे-छोटे विषयों पर भी आग्रहपूर्वक मुखर होते हैं, इस विषय पर मौन बने हुए हैं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की असहिष्णु एवं अलोकतांत्रिक कार्यशैली पर अविलम्ब अंकुश लगना चाहिए।’ हम सब जानते हैं कि जिन्होंने देश में बनावटी असहिष्णुता की मुहिम छेड़ी थी, उनका किन लोगों से संबंध है। इसलिए उनसे यह अपेक्षा करना कि वह असहिष्णुता के शिकार आरएसएस के समर्थन में लाल आतंक के खिलाफ कुछ बोलेंगे-लिखेंगे, बेमानी होगा। उनके लिए असहिष्णुता एक राजनीतिक एजेंडा है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए असहिष्णुता की अलग-अलग परिभाषाएं हैं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)