राजीव सचान
जैसे कर्नाटक के मूदबिदरी और पश्चिम बंगाल के मालदा की घटनाओं पर कथित राष्ट्रीय मीडिया की नींद देर से टूटी थी कुछ वैसी ही, बल्कि उससे भी विचित्र स्थिति उत्तर प्रदेश में शामली जिले के कैराना कस्बे के मामले में भी दिखाई दे रही है। अभी कैराना का पूरा सच सामने आना शेष है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस कस्बे में इसकी पड़ताल जारी ही है कि यहां के हिन्दू परिवारों ने किस कारण पलायन किया, लेकिन प्रशासन, राजनीति और साथ ही मीडिया के एक स्तर पर यह कोशिश शुरू हो गई है कि यहां तो वैसा कुछ है ही नहीं जैसा कहा-बताया जा रहा है। जब मीडिया का एक हिस्सा कैराना का सच जानने की कोशिश कर रहा है तब शेष हिस्सा ‘कैराना का वायरल झूठ’ बताने के लिए अतिरिक्त श्रम कर रहा है। इस काम में इसलिए आसानी हो रही है, क्योंकि कैराना से पलायन करने वालों की जो सूची भाजपा सांसद ने पेश की है उसमें कुछ गड़बड़ियां हैं। इन गड़बड़ियों के आधार पर नकारवादी टोला अपनी बुनियाद मजबूत करने में जुटा है। यह संभव है कि कैराना से कुछ लोगों ने अन्य कारणों से पलायन किया हो, लेकिन यदि चंद लोगों ने भी भय के कारण अपना घर-बार छोड़ा है तो मामला गंभीर हो जाता है। फिलहाल ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि कैराना से कई लोगों ने इसलिए भी पलायन किया है, क्योंकि बेखौफ अपराधी तत्वों के कारण उनकी जान पर बन आई थी या फिर उनके लिए मान-सम्मान बचाए रखना मुश्किल हो गया था। यह सहज-सामान्य नहीं हो सकता कि किसी कस्बे के दर्जनों घरों पर ताले लटकते दिखें। कैराना में ऐसा दिख रहा है। यहां के कई घरों के साथ-साथ दुकानों पर भी ‘बिकाऊ है’ लिखा दिख रहा है। फिलहाल जिस तरह यह नहीं कहा जा सकता कि बंद घरों-दुकानों वाले सभी लोगों ने भय की वजह से कैराना छोड़ा है उसी तरह तत्काल इस नतीजे पर भी नहीं पहुंचा जा सकता कि किसी ने भी ऐसा नहीं किया है। सच्चाई किसी गहन जांच से ही सामने आ सकती है, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि मौजूदा शासन-प्रशासन की दिलचस्पी सच को सामने लाने में है। मुजफ्फरनगर, दादरी और मथुरा के मामले यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सच को जानने से ज्यादा उसे छिपाने की कोशिश होती है। जब भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने पहले-पहल यह दावा किया कि कैराना से हिन्दू परिवारों ने पलायन किया है तो स्थानीय प्रशासन ने सिरे से इंकार किया और सपा-कांगेस के नेताओं ने इस दावे का मजाक उड़ाया। बाकी दलों को हमेशा की तरह सांप सा सूंघ गया, क्योंकि यह उनके लिए असुविधाजनक था। इसके बाद जब स्थानीय मीडिया ने अपने स्तर पर पड़ताल कर यह रेखांकित किया कि कुछ परिवारों के पलायन के पीछे अवैध वसूली या धमकी भी हो सकती है और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मामले का संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी की तो शासन-प्रशासन में हलचल मची। आनन-फानन जांच शुरू हुई, लेकिन भाजपा सांसद की उसी सूची के आधार पर जिसे पहले सिरे से खारिज किया जा रहा था। आखिर शामली प्रशासन ने अपने स्तर पर कोई जांच करने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या बंद घरों-दुकानों के ताले भी सवालों का जवाब देने में सक्षम हैं? क्या ताले ही यह बता रहे हैं कि हमारे मालिक इस-इस कारण अन्य कहीं जा बसे हैं? सवाल और भी हैं। क्या शामली प्रशासन ने कैराना से अन्यत्र जा बसे लोगों से बात की? क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि जो लोग कैराना में रहकर ही ठीक-ठाक कमाई कर रहे थे उन्हें दूसरे शहर जाकर कारोबार करने की जरूरत क्यों पड़ी? बेहतर आय और जीवन की लालसा में गांव से कस्बे और फिर वहां से पड़ोस के बड़े शहर जाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। ऐसा हर कहीं होता है, लेकिन इस क्रम में मोहल्ले वीरान नहीं होते। लगता है कि कैराना में कुछ अस्वाभाविक हुआ है। चूंकि यह अस्वाभाविक घटनाक्रम कथित सेक्युलर दलों और उनके जैसी प्रवृत्ति वालों के एजेंडे के अनुरूप नहीं इसलिए उनके पास सबसे मजबूत तर्क यही है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए भाजपा यही सब तो करेगी ही। इसमें दोराय नहीं कि भाजपा कैराना सरीखे मसलों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन क्या ऐसे मसलों पर अन्य किसी राजनीतिक दल को ध्यान नहीं देना चाहिए? नि:संदेह कैराना कश्मीर नहीं है, लेकिन इन दिनों कश्मीरी पंडितों की वापसी के सवाल को लेकर भाजपा पर खूब कटाक्ष हो रहे हैं? अगर भाजपा कश्मीरी पंडितों की वापसी कराने में नाकाम है तो क्या यह खुशी की बात है? हाल में नेशनल कांफ्रेंस के जिन फारुक अब्दुल्ला ने कोलकाता जाकर कथित सेक्युलर ताकतों की एकजुटता पर खूब जोर दिया उनके ही दल के नेता कश्मीरी पंडितों की वापसी के मसले पर वही भाषा बोल रहे हैं जो हुर्रियत के नेता बोल रहे हैं। इस सबके बावजूद सेक्युलर खेमे के नेताओं के माथे पर शिकन नहीं। असुविधाजनक सच से मुंह मोड़ना हमारे सभी राजनीतिक दलों को खूब अच्छे से आता है। अब इस कला में उनके तहत काम करने वाला प्रशासन भी माहिर हो गया है। असुविधाजनक तथ्य को खारिज करने का काम कैसे होता है, इसका एक नमूना यह ट्वीट है: ‘शिक्षक-यूपी के एक गांव में दो सौ हिन्दू थे, 90 चले गए, कितने बचे? छात्र-पलायन।’ यह ट्वीट यही कहता है कि किसी गांव से दो सौ में से नब्बे लोगों का पलायन कोई मायने नहीं रखता, लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दो सौ से अधिक लोग इस ट्वीट को पसंद कर चुके हैं। ये अनाम-गुमनाम लोग हैं, लेकिन इनके जैसा रवैया ही तमाम स्वनाम धन्य लोगों का भी है। ये सभी कैराना की जांच पूरी होने और उसकी हकीकत सामने आने के पहले ही इस बात को खारिज करने के लिए उतावले हो उठे हैं कि वहां वैसा कुछ हुआ है जिसके संकेत मिल रहे हैं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर है.यह लेख दैनिक जागरण में १४ जून को प्रकाशित है)