बुद्ध जहाँ कहीं भी गए उनको हिन्दू संत और विद्वानों का भरपूर साथ मिला। प्रारंभिक दौर में जो प्रमुख लोग तथागत को अध्यात्म की ओर ले गए वो सभी ब्राहमण संत और विद्वान ही थे जिसमे प्रमुख रूप से गुरु विश्वामित्र, अलार, कलम और उद्दाका राम्पुत्त थे जो की सभी ब्राहमण संत और विद्वान थे, जिसमे से विश्वमित्र ने तथागत को वेद और उपनिषद की शिक्षा दी थी।
तथागत बुद्ध सनातन परम्परा और भारतीय अध्यात्म के वो स्तम्भ थे जिन्होंने कभी सनातन मूल्यों को अस्वीकार नहीं किया। तमाम बौद्ध ग्रन्थ और धम्म देशनाओं के अवलोकन के बाद यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि बुद्ध कभी हिन्दू धर्म के विरोधी नहीं थे, अपितु वो वर्तमान में फैले आडंबर और कुप्रथाओं के विरोधी थे, लेकिन उनके विरोध का तरीका भी अनुकरणीय था।
जब हम बुद्धचर्या का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि तथागत वैदिक कर्मकांडों, अंध विश्वास और बलि परम्परा के प्रबल विरोधी थे, उन्होंने इन सबसे समाज को उबरना चाहा, समाज को अलग दिशा देनी चाही लेकिन कालान्तर में उनके इस विरोध को गलत रूप में परिभाषित किया गया, उनकी इच्छा और आकांक्षाओ को गहराई से समझने की जगह पर कुछ प्रतिक्रियावादी लोग उनकी आलोचना करने लगे जबकि उनके विरोध के केंद्र में भी केवल प्रेम, करुणा और मानवहित की भावना ही निहित थी।
तथागत ने भारतीय परम्परा, ज्ञान, योग और चिंतन को एक अलग दिशा देनी चाही जिसके मूल में प्राचीन भारतीय और वैदिक परम्परा ही विद्यमान थी। बुद्ध जिज्ञासु थे और भारतीय ज्ञान की परम्परा में जिज्ञासा ही आत्मज्ञान का आधार रहा है, जिज्ञासु व्यक्ति ही चिंतन की धारा को प्रभावित कर नई ज्ञान परम्परा और चिंतन को विकसित करता है, तथागत ने भी यही किया था।
वर्तमान में बौद्ध धर्म की कुछ शाखाएं मानती हैं कि बुद्ध को अवतार मानना ब्राहमणवादी मानसिकता है, और इसी के आड़ में ये शाखाएं इस बात की घोर निंदा करती हैं, लेकिन असल में यह बुद्ध की प्रासंगिकता को स्वीकार करना है, उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करना है, हिन्दू विद्वान दुनिया को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि तथागत वैदिक परम्परा के ही व्यक्ति थे, जिसे साजिश के तहत सनातन द्रोही सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है और वैसे भी तथागत मानव को मानव से जोड़ने वाले व्यक्ति थे।
स्वयं महात्मा गाँधी भी तथागत को सर्वश्रेठ हिन्दू मानते थे, वो अक्सर कहा करते थे कि बुद्ध की शिक्षाओं को पूरा भारतवर्ष आत्मसात किया है, इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। सनातन धर्म उनकी प्राणवायु था, वेद और पुराणों की गूढ़ शिक्षाओं को जिसे लोगों ने विस्मृत कर दिया था उसको समाज और दुनिया के सामने लाकर तथागत ने भारतीयता को मजबूत करने का काम किया। अगर तथागत हिन्दू धर्म के विरोधी होते तो अपने उपदेशों का आधार हिन्दू शास्त्र और वेदों को नहीं बनाते। देश और दुनिया को तथागत ने ही सिखाया था कि व्यक्ति को आलोचक होना चाहिए निंदक नहीं।
बुद्ध जहाँ कहीं भी गए उनको हिन्दू संत और विद्वानों का भरपूर साथ मिला। प्रारंभिक दौर में जो प्रमुख लोग तथागत को अध्यात्म की ओर ले गए वो सभी ब्राहमण संत और विद्वान ही थे जिसमे प्रमुख रूप से गुरु विश्वामित्र, अलार, कलम और उद्दाका राम्पुत्त थे जो की सभी ब्राहमण संत और विद्वान थे, जिसमे से विश्वमित्र ने तथागत को वेद और उपनिषद की शिक्षा दी थी।
वामपंथी अक्सर यह यह तर्क देते हैं कि बुद्ध अनीश्वर वादी थे, वो इश्वर की किसी भी सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। वामपंथी इसी को आधार बनाकर उनके भारत के अध्यात्मिक परम्परा से अलग होने की बात कहते हैं, नव बौद्धों को यही तर्क देकर हिन्दू धर्म के विरूद्ध खड़ा करने की कुचेष्टा की जाती है। जबकि बुद्ध ने किसी मानवीकृत इश्वर की बाहरी सत्ता को अस्वीकार करते हुए, इश्वर को नए रूप में परिभाषित किया था, उनका इश्वर कार्य-करण के सिद्धांत या यूं कहें कि प्रकृति के शाश्वत नियमों पर आधारित था।
तथागत के उक्त सिद्धांत के मूल में भी वैदिक नियम और परम्परा ही दिखती है। क्योंकि प्राचीन भारतीय परम्परा भी कर्म के सिद्धांत और प्रकृति को सृष्टि का आधार मानती है, लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि हम इश्वर की व्यवस्था को ही नकार दें। तथागत ने इश्वर की सत्ता को नाकारा नहीं बल्कि उसके अलग रूप की व्याख्या की थी।
(लेखक श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध अधिष्ठान में रिसर्च एसोसिएट हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)