संदीप दीक्षित ने कुछ नया नहीं किया, सेना का अपमान करना तो कांग्रेस की पुरानी परम्परा रही है !

काग्रेस सरकारों ने सेना को कभी खुली छूट नहीं दी, जिस कारण पाकिस्तानी गोलीबारी से लेकर कश्मीर के अराजक तत्वों  तक से निपटने में सेना को अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। अब मोदी सरकार ने सेना को खुली छूट दे दी है, जिसका परिणाम है कि हमारे जवान न केवल आतंकियों का सफाया कर रहे, बल्कि कश्मीर के अराजक तत्वों से भी कठोरता के साथ निपट रहे हैं। कांग्रेस सत्ता में तो है नहीं कि वो अपने निर्णयों से सेना का कुछ कर सके, ऐसे में पार्टी नेताओं के बयानों के जरिये सेना के प्रति उसका दृष्टिकोण लगातार सामने आ रहा है।

दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे और कांग्रेस के प्रवक्ता संदीप दीक्षित ने अपने एक हालिया बयान में देश के थलसेना प्रमुख को ‘सड़क का गुंडा’ कह दिया था। जब इसपर उनकी फजीहत होने लगी, तब उन्होंने माफ़ी मांगकर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की। लेकिन, क्या इससे उनकी गलती कम हो जाती है। किसी भी पार्टी के प्रवक्ता का बयान उस पार्टी का पक्ष होता है और दूसरी चीज कि कांग्रेस ने इस बयान के बाद संदीप दीक्षित पर किसी तरह की कार्रवाई तो दूर उन्हें चेतावनी तक नहीं दी। ऐसे में, सवाल कांग्रेस पर भी उठता है।

दरअसल यह कोई पहला मामला नहीं है, जब कांग्रेस की तरफ से सेना का अपमान किया गया है। गत वर्ष जब उड़ी हमले के बाद भारतीय जवानों ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक की थी, तो उसपर सवाल उठाने वालों में कांग्रेस भी अग्रिम पंक्ति में थी। सेना की तरफ से खुद कहा गया था कि हमने सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया है, मगर बावजूद इसके कांग्रेस ने इसपर सवाल उठाया। ऐसे ही, कश्मीर में पत्थरबाजों के खिलाफ सेना की कार्रवाइयों को लेकर भी कांग्रेस सेना के समर्थन में कभी नज़र नहीं आयी है। यह सेना के प्रति कांग्रेस के अविश्वास को दिखाता है।

ये तो कुछ हालिया उदाहरण थे, इनके अलावा इतिहास बताता है कि कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं द्वारा जिस-तिस प्रकार से सेना के समर्पण और सेवाओं का न केवल अपमान किया गया है, बल्कि जवानों की अनदेखी भी की गयी है। कितना विचित्र है न कि आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू को भारतीय सेना का पहला प्रमुख बनाने के लिए कोई भारतीय जवान योग्य नहीं दिखा और उन्होंने एक अंग्रेज लोकहार्ट को सेना प्रमुख बना दिया। नेहरू का मानना था कि किसी भारतीय को सैन्य संचालन का अनुभव नहीं है। अब इस आधार पर तो देश चलाने का अनुभव भी तब किसी भारतीय को नहीं था, तो फिर नेहरू की जगह किसी अंग्रेज को ही प्रधानमंत्री बनना चाहिए था।

जवानों की पेंशन को लेकर भी कांग्रेस सरकारों का जो रुख रहा है, उससे समझा जा सकता है कि इस पार्टी की नज़र में सेना की क्या अहमियत है। गौर करें तो ब्रिटिश शासन के समय फौजियों की पेंशन उनकी तनख्वाह की ८३ प्रतिशत थी, जिसे आज़ादी के बाद सन १९५७ में मौजूदा नेहरू सरकार ने कम कर दिया और इसके मद से सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों जिन्हें तब वेतन की ३३ फीसदी पेंशन मिलती थी, की पेंशन को बढ़ा दिया। आगे १९७१ की लड़ाई में हमारे सैनिकों की बहादुरी का इनाम इंदिरा गाँधी ने सन १९७३ में उनकी ‘वन रैंक वन पेंशन’ ख़त्म करके दिया। सिविल कर्मियों की पेंशन बढ़ाई गई और इसकी भरपाई सेना की पेंशन काटकर की गई।

फिर आए इंदिरा-पुत्र राजीव गाँधी जिन्होंने सेना की बेसिक पे में भी कमी कर दी, जिससे सैनिकों की पेंशन और भी कम हो गई। ये उदाहरण दिखाते हैं कि सेना की अमूल्य सेवाओं के बदले जवानों को कुछ पैसे देने में भी कांग्रेस सरकारों को हमेशा तकलीफ रही है। हालांकि मोदी सरकार ने सैनिकों की इन समस्याओं को समझते हुए वर्षों से लंबित उनकी ‘वन रैंक वन पेंशन’ की मांग को पूरा कर दिया है।

एक तथ्य यह भी है कि काग्रेस सरकारों ने जवानों को कभी खुली छूट ही नहीं दी, जिस कारण पाकिस्तानी गोलीबारी से लेकर कश्मीर के अराजक तत्वों तक से निपटने तक में सेना को अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। अब मोदी सरकार ने सेना को खुली छूट दे दी है, जिसका परिणाम है कि अब हमारे जवान न केवल आतंकियों का सफाया कर रहे बल्कि कश्मीर के अराजक तत्वों से भी कठोरता के साथ निपट रहे हैं। अब कांग्रेस सत्ता में तो है नहीं कि अपने निर्णयों से सेना का कुछ कर सके, ऐसे में पार्टी नेताओं के बयानों के जरिये सेना के प्रति उसका दृष्टिकोण सामने आ रहा है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)