जब जनसंघ की स्थापना हुई उसके उपरांत दीनदयाल जी ने जनसंघ की अर्थ नीतियों में स्वदेशी, स्वावलंबन, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, आम जन को स्वावलंबी बनाने के लिए कुटीर उद्योग, श्रम का अधिकार, सयंमित उपभोग और कृषि का उत्पादन इत्यादि विषयों को शामिल किया था। यह सब नीतियाँ तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल और देश के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए कारगर थीं। यदि उस वक्त वैचारिक मतभेदों के कारण तत्कालीन सरकार ने इन आवश्यक सुझावों एवं विचारों से आँखें नहीं मूंदी होतीं तो आज देश की स्थिति दूसरी होती।
कोरोना संकट के दौरान अपने पांचवे राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना के बाद के भारत की मजबूत रुपरेखा देशवासियों के सामने रखी। कोरोना के कारण हुए आर्थिक नुकसान एवं आर्थिक ढांचे के चरमरा जाने के पश्चात सबके मन में यही सवाल था कि आगे भारत की आर्थिक नीति क्या होगी ? सरकार किन नीतियों का सहारा लेकर नई आर्थिक व्यवस्था को खड़ा करेगी ?
गौर करें तो पिछले कुछ दिनों से स्वदेशी एवं आत्मनिर्भर भारत की चर्चा सबसे ज्यादा देखने-सुनने को मिली है। प्रधानमंत्री खुद ग्राम स्वावलंबन की बात सरपंचो से बातचीत के दौरान करते नजर आए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी स्वदेशी आर्थिक मॉडल का सुझाव दिया था।
लिहाज़ा अटकलें लगाई जाने लगी थीं कि अब सरकार इसी दिशा में बढ़ने वाली नीतियों को अंगीकृत करेगी और हुआ भी यही। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ की घोषणा की। इसके लिए प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये का अभूतपूर्व आर्थिक पैकेज देने का भी एलान किया। प्रधानमंत्री की इस ऐतिहासिक घोषणा से भारत के पारंपरिक उद्योग-धंधे जो आज नेपथ्य में दिखाई देते हैं, पुनः तकनीकयुक्त होकर भारत को आत्मनिर्भर बनाने में पहली पंक्ति में नजर आएंगे।
राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं जिन्हें समझना आवश्यक है। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए पांच स्तंभों का जिक्र किया। इसमें अर्थव्यवस्था, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम टेक्नोलॉजी ड्रिवेन व डिमांड और सप्लाई की ताकत को इस्तेमाल करने की बात कही।
अब इन्ही चीजों की बुनियाद पर आत्मनिर्भर भारत ईमारत तैयार करने की दिशा में सरकार बढ़ रही है। अगर चीजें ठीक ढंग बढ़ती रहीं तो सरकार एवं देशवासियों के दृढ़ विश्वास और आर्थिक पैकेज की संयुक्त शक्ति से निःसंदेह हम पुनः एक नए भारत, आत्मनिर्भर भारत का निर्माण कर सकेंगे। आर्थिक पैकेज में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह किसी विशेष आर्थिक क्षेत्र अथवा केवल बड़े उद्योगपतियों के लिए नहीं है, बल्कि इस पैकेज में किसान, श्रमिक, छोटे-मझौले व्यापारी सभी को शामिल किया गया है।
यह कहना ठीक होगा कि ये पैकेज संघर्षरत लघु, कुटीर एवं सूक्ष्म उद्योगों के लिए एक संजीविनी बूटी की तरह है, जिसका सीधा लाभ गाँव, गरीब और छोटे कस्बों के लोगों को होगा। इससे गाँव आत्मनिर्भर होंगे, जिसके परिणामस्वरूप देश का आत्मनिर्भर होना स्वाभाविक है।
प्रधानमंत्री ने स्थानीय वस्तुओं की महत्ता को समझाते हुए देशवासियों को लोकल प्रोडक्ट खरीदने एवं उसका प्रचार करने का भी आह्वान किया। ये सब तभी संभव होगा जब व्यवस्था का ज्यादा से ज्यादा विकेन्द्रीकरण होगा। आर्थिक विकेंद्रीकरण का जिक्र हो तो मानसपटल पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम आना स्वाभविक है क्योंकि आज़ादी के बाद से ही दीनदयाल उपाध्याय बार-बार अपने लेखों एवं उद्बोधनों में गांव को मजबूत करने के साथ-साथ आर्थिक केन्द्रीकरण के खतरों को इंगित करते रहे।
जब जनसंघ की स्थापना हुई उसके उपरांत उन्होंने जनसंघ की अर्थ नीतियों में स्वदेशी, स्वावलंबन, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, आम जन को स्वावलंबी बनाने के लिए कुटीर उद्योग, श्रम का अधिकार, सयंमित उपभोग और कृषि का उत्पादन इत्यादि विषयों को शामिल किया था। यह सब नीतियाँ तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल और देश के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए कारगर थीं। यदि उस वक्त वैचारिक मतभेदों के कारण तत्कालीन सरकार ने इन आवश्यक सुझावों एवं विचारों से आँखें नहीं मूंदी होतीं तो आज देश की स्थिति दूसरी होती।
बहरहाल, गत छह वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार ने कई ऐसी नीतियों को अमल में लाया है, जो गांवो को मजबूत करने की दिशा में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। मसलन ई-मंडी हो, अन्नदाता को ऊर्जादाता बनाने की अभिनव पहल हो, गांवों को डिजिटल बनाना हो अथवा जनधन, स्वच्छ भारत, उज्ज्वला इत्यादि तमाम योजनाओं के जरिये गांवो को मजबूत करना हो। इसके अलावा गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए सरकार ने पशुपालन और बांस की खेती को भी बढ़ावा दिया है।
इन सब बातों को बताने का अभिप्राय यह है कि इस सरकार ने गांवो में रोजगार मूलक योजनाओं की आवश्यकता को समझा है और उसकी नीतियों में दीनदयाल जी के विचारों का प्रभाव रहा है। परन्तु कोरोना नामक इस मौजूदा आपदा के कारण अब स्थिति सामान्य नहीं रही। लाखों की संख्या में श्रमिक अपने गाँव की तरफ लौट चुके हैं और अब भी लौट रहे हैं।
ऐसी विकट परिस्थिति में, साठ के दशक में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हमारे अर्थतंत्र को मजबूत करने के लिए जो विचार दिए, वह पूरी तरह प्रासंगिक नजर आ रहे हैं। सुखद है कि आज सत्ता में दीनदयाल उपाध्याय की वैचारिक नींव पर खड़ी पार्टी है। यह सर्वविदित है कि भाजपा दीनदयाल द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद को अपना वैचारिक दर्शन मानती है। वर्तमान परिस्थितियों के लिहाज से दीनदयाल उपाध्याय के आर्थिक विचारों को बड़े स्तर पर लेकर आगे बढ़ना ही देश के लिए हितकारी रहता और सरकार ने वही किया है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक दर्शन भारतीयता के मूल से निकला हुआ दर्शन है, किन्तु वैचारिक मदभेदों के कारण देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेसनीत सरकारों ने उनके विचारों की उपेक्षा की, जिसका दुष्परिणाम हम आज बढ़ते पूंजीवाद, आर्थिक व्यवस्थाओं के केन्द्रीकरण, आयात पर निर्भरता, असंतुलित औद्योगीकरण आदि के रूप में देख सकते हैं।
दीनदयाल जी विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि हमारे अर्थव्यवस्था का आधार हमारे गांव और जनपद होने चाहिए। हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए। अपनी पुस्तक ‘भारतीय अर्थनीति : विकास की एक दिशा’ में दीनदयाल जी लिखते हैं, “यह भी आवश्यक है कि हम आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनें। यदि हमारे कार्यक्रमों की पूर्ति विदेशी सहायता पर निर्भर रही तो वह अवश्य ही हमारे उपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बंधनकारक होगी। हम सहायता देने वाले देशों के आर्थिक प्रभाव में आ जायेंगे। अपनी आर्थिक योजनाओं की सफलपूर्ति में संभव बाधाओं को बचाने की दृष्टि से हमें अनेक स्थानों पर मौन रहना पड़ेगा”।
इसके आगे दीनदयाल बहुत गंभीर बात कहते हैं। “जो राष्ट्र दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेता है, उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। ऐसा स्वाभिमानशून्य राष्ट्र कभी अपनी स्वतन्त्रता की कीमत नहीं आंक सकता है”।
भारत गाँव और किसानों का देश है। यहाँ गांव और किसान अगर समृद्ध हुए तो देश की प्रगति हर दिशा में संभव है। मजदूरों के पलायन और देश के सामने खड़ी आर्थिक चुनौतियों के बीच यकीनन दीनदयाल का दर्शन हमें रास्ता दिखा रहा है। नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित आर्थिक पैकेज में लघु, सूक्ष्म कुटीर (अंशकालिक एवं पूर्ण कालिक) उद्योग को बढ़ावा देना वक्त की मांग थी, क्योंकि मजदूर अपने गांवो की तरफ पलायन कर रहे हैं। वो किसी तरह अपने घर पहुंचना चाहते हैं। उनके पास इस संकट की घड़ी में जीवनयापन करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। भोजन और स्वास्थ्य के साथ आजीविका को चलाने का संकट उन्हें बेचैन किए हुए है।
एकबात स्पष्ट है कि श्रमिक वर्ग इतनी जल्दी अब अपना गांव-घर को छोड़कर शहरों की तरफ नहीं जायेंगे। इसलिए आवश्यक था कि उनके रोजगार की व्यवस्था उनके शहर या गाँव में ही की जाए। ये तभी संभव है जब कुटीर, लघु उद्योगों की शुरुआत हो और उन्हें इससे जोड़ा जाए।
कुटीर उद्योग की महत्ता को समझते हुए 25 जनवरी 1954 में पांचजन्य के लिए लिखे अपने विस्तृत लेख में दीनदयाल जी ने लिखा, “औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने, जनता को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने तथा सम्पत्ति के सम विभाजन की व्यवस्था करने के लिए हमें कुटीर उद्योगों को पुन: विकसित करना पड़ेगा। प्राचीन भारत में सम्पूर्ण आर्थिक ढांचा इन कुटीर उद्योगों पर ही खड़ा था। उस समय न केवल देश स्वावलंबी था वरन उसकी लघुतम इकाई ग्राम तक स्वावलंबी थे। आर्थिक स्वाधीनता के लिए हमें इस रीढ़ को पुनः खड़ा करना होगा।”
दीनदयाल जी केवल कुटीर उद्योगों को पुरानी पद्धति से शुरू करने की बात नहीं करते थे बल्कि आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने की बात करते थे।
यही समय है जब आयात पर निर्भरता छोड़कर स्वदेशी वस्तुओं पर निर्भरता बढ़ानी होगी और निर्यात के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना होगा। यह सुखद है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने वक्त की मांग को बखूबी समझा है। मजदूरों का पलायन, किसानों की समस्याएँ, रोजगार के संकटों को देखकर हम खुद समझ सकते हैं कि जो बात दीनदयाल जी ने उस वक्त कही थी वह सत्य के कितने करीब थी। हमारे पास फिर एक अवसर आया है जब हम आत्मनिर्भरता के लिए नई व्यवस्था को विकसित कर सकते हैं और सरकार यह करने की ओर कदम बढ़ा चुकी है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसियेट हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)