ओलम्पिक विवाद: क्योंकि शर्म तो आपको आती नहीं है ‘शोभा डे’!

रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे खिलाडिय़ों के संबंध में विवादित लेखिका शोभा डे ने ट्वीटर पर अशोभनीय टिप्पणी करके अपनी ओछी मानसिकता का प्रदर्शन किया है। भारतीय दल के शुरुआती प्रदर्शन पर उन्होंने लिखा कि ‘ओलंपिक में भारतीय खिलाडिय़ों के लक्ष्य हैं- रियो जाओ, सेल्फी लो, खाली हाथ वापस आओ, पैसे और मौकों की बरबादी। जिस वक्त समूचा देश रियो में भारत के बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रार्थना कर रहा है, तब इन महोदया के दिमाग में इस घटिया विचार का जन्म होता है। शोभा डे की इस बेहूदगी की सब ओर से निंदा की गई। यहाँ तक कि ओलंपिक में हिस्सा ले रहे खिलाड़ी भी आहत होकर खुद को शोभा डे के विरोध में टिप्पणी करने से नहीं रोक सके।

ओलंपिक के शुरुआती तीन दिन में कोई पदक नहीं जीतने पर मिल्खा सिंह ने भी सवाल उठाया है, लेकिन किसी ने भी उनकी टिप्पणी का विरोध नहीं किया है। इसके लिए शोभा डे को मिल्खा सिंह की प्रतिक्रिया के निहितार्थ को समझना चाहिए। मिल्खा सिंह के सवाल और शोभा डे की टिप्पणी में मानसिकता का अंतर है। यह अंतर ही महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि मिल्खा सिंह का सवाल किसी को चुभा नहीं, जबकि शोभा डे की टिप्पणी ने न केवल खिलाडिय़ों को हतोत्साहित किया, बल्कि सभी खेलप्रेमियों की भावनाओं को भी ठेस पहुँचाई। भले ही ‘शोभा डेओं’ से देश को सार्थक और सकारात्मक टिप्पणी की उम्मीद नहीं है, फिर भी उन्हें ऐसी ‘अशोभनीय’ बातें नहीं कहनी चाहिए।

निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने नसीहत देते हुए कहा कि शोभा डे यह थोड़ा अनुचित है। आपको अपने खिलाडिय़ों पर गर्व होना चाहिए, जो पूरी दुनिया के सामने मानवीय श्रेष्ठता हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं। पूर्व हॉकी कप्तान वीरेन रसकिन्हा ने सही ही कहा कि हॉकी के मैदान में ६० मिनट तक दौड़कर देखिए, अभिनव और गगन की राइफल ही उठाकर देख लीजिए, आपको समझ आ जाएगा कि आप जैसा सोचती हैं, यह काम उससे कहीं अधिक कठिन है। कुछ मिलाकर सब जगह शोभा डे की भद्द पिट रही है।

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शोभा डे का विवादित ट्वीट

            दरअसल, ऐसी टिप्पणी लिखने में शोभा डे का कोई दोष नहीं है, बल्कि दोष उस मानसिकता का है, जिससे उनकी वैचारिक परवरिश हुई है। पूर्व में भी उनकी टिप्पणियाँ घोर आपत्तिजनक रही हैं। असहिष्णुता की बहस के दौरान उन्होंने हिंदुओं की भावनाओं को सीधे चोट करते हुए चुनौती दी थी कि मैंने बीफ खाया है, आओ मेरी हत्या करो। भारतीयता को ठेस पहुँचाकर चर्चा में आना उनका प्रिय शगल है। यही कारण है कि रियो ओलंपिक में उन्हें खिलाडिय़ों की मेहनत और उनका पसीना दिखाई नहीं दिया। भारतीय खिलाडिय़ों के प्रयास उन्हें दिखाई नहीं दिए। सुविधाजनक और ऐशो-आराम की जिंदगी जीने वाली शोभा डे को शायद यह दिखाई नहीं दिया होगा कि भारतीय खिलाडिय़ों ने संसाधनों के अभाव में भी दुनिया के सबसे बड़े खेलों के मंच पर लडऩे का साहस किया है। खिलाडिय़ों का हौसला बढ़ाने की बजाय शोभा डे अपनी बुद्धि का उपयोग उनका उपहास उड़ा रही हैं। यह बेहद शर्मनाक बयान है, जो उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि से उपजा है। उनकी विचार परंपरा में इतनी नकारात्मकता भरी है कि वह सकारात्मक सोच ही नहीं सकतीं। बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने शोभा डे की सोच पर उचित ही प्रहार किया है। उन्होंने कहा है कि शायद तब चीजों में बदलाव हो, जब आपके जैसे लोगों की सोच में बदलाव आए।

यह माना कि ओलंपिक में शामिल होने के लिए गए भारतीय दल का प्रारंभिक प्रदर्शन निराशाजनक रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उनकी निष्ठा, प्रतिभा तथा परिश्रम पर सवाल खड़े करें। ओलंपिक के शुरुआती तीन दिन में कोई पदक नहीं जीतने पर मिल्खा सिंह ने भी सवाल उठाया है, लेकिन किसी ने भी उनकी टिप्पणी का विरोध नहीं किया है। इसके लिए शोभा डे को मिल्खा सिंह की प्रतिक्रिया के निहितार्थ को समझना चाहिए। मिल्खा सिंह के सवाल और शोभा डे की टिप्पणी में मानसिकता का अंतर है। यह अंतर ही महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि मिल्खा सिंह का सवाल किसी को चुभा नहीं, जबकि शोभा डे की टिप्पणी ने न केवल खिलाडिय़ों को हतोत्साहित किया, बल्कि सभी खेलप्रेमियों की भावनाओं को भी ठेस पहुँचाई। भले ही ‘शोभा डेओं’ से देश को सार्थक और सकारात्मक टिप्पणी की उम्मीद नहीं है, फिर भी उन्हें ऐसी ‘अशोभनीय’ बातें नहीं कहनी चाहिए। देश की उम्मीद अपने खिलाडिय़ों से हैं। देश प्रतीक्षा कर रहा है कि उनका प्रदर्शन तमाम ‘शोभाओं’ को करारा जवाब देगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)