सेंगोल का उल्लेख आते ही भारतीय जनमानस का मन अपनी गौरवशाली विरासत के गर्व की अनुभूति में खो जाता और फिर संभव था कि पंडित नेहरू के ‘Tryst with Destiny’ का प्रभाव इतिहास में फीका पड़ने लगता, इसी विचार से न केवल सेंगोल को अपितु इससे जुड़े पूरे घटनाक्रम को ही कांग्रेस पोषित इतिहासकारों द्वारा पाठ्यक्रमों से गायब कर दिया गया। इस तरह सेंगोल म्यूजियम में चला गया और ‘Tryst with Destiny’ स्वतंत्रता प्राप्ति का महान प्रसंग बनकर इतिहास में प्रतिष्ठित हो गया।
पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जब अपनी प्रेसवार्ता में ‘सेंगोल’ के विषय में जानकारी दे रहे थे, तब मेरे मन-मस्तिष्क में यही बात घूम रही थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतिहास के इतने महत्त्वपूर्ण प्रसंग की मुझे कोई जानकारी क्यों नहीं है ? अब जानकारी कैसे होती, जब इतिहास के पाठ्यक्रम (जितना मैंने पढ़ा) में इस घटना का कोई उल्लेख ही नहीं है। यह उल्लेख क्यों नहीं है, इसे समझने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति की घटना में सेंगोल का क्या महत्त्व है।
दरअसल हुआ ये था कि जब भारत की स्वतंत्रता का समय तय हो गया तब लार्ड माउंटबेटन ने पंडित नेहरू से पूछा कि सत्ता हस्तांतरण का तरीका क्या होगा ? इसपर नेहरू सोच में पड़ गए। उन्होंने सी. राजगोपालाचारी से इस विषय में चर्चा की तो भारतीय संस्कृति और परंपरा की समझ रखने वाले राजाजी ने उन्हें चोल साम्राज्य से संबंधित सेंगोल के विषय में बताया और तय हुआ कि सेंगोल ही सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बनेगा। फिर दक्षिण भारत से आए अधिनम द्वारा गंगाजल से शुद्ध करके मंत्रगान के साथ पंडित नेहरू को सेंगोल प्रदान किया गया और इस प्रकार भारत की स्वतंत्रता के नए युग का शुभारंभ हुआ।
लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की घटनाओं का जो विवरण इतिहास की पाठ्यक्रम पुस्तकों में मिलता है, वो ये है कि 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, फिर लाल किले पर झंडा फहराया गया और पंडित नेहरू का ऐतिहासिक भाषण ‘Tryst with Destiny’ हुआ। इन घटनाक्रमों में भी, स्वतंत्रता प्राप्ति के पूरे प्रसंग पर ‘Tryst with Destiny’ की छाया इस कदर पसरी हुई है कि इसके आवरण में शेष सभी बातें गौण हो जाती हैं।
विडंबना देखिये कि जो सेंगोल भारतीय स्वाधीनता और स्व-शासन के गौरवशाली प्रतीक के रूप में संसद में स्थापित होना चाहिए था, वो इतिहास से बेदखल होकर म्यूजियम में ‘Golden Walking Stick’ बनकर दशकों तक धूल खाता रहा।
प्रश्न यह है कि सेंगोल और उसके विवरण को इतिहास से गायब क्यों कर दिया गया ? दरअसल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक का समस्त श्रेय एक दल और विशेष रूप से एक परिवार तक सीमित रहे, इसके लिए हमारे इतिहास से कई छल किए गए।
सेंगोल का उल्लेख आते ही भारतीय जनमानस का मन अपनी इस गौरवशाली विरासत के गर्व की अनुभूति में खो जाता और फिर संभव था कि पंडित नेहरू के ‘Tryst with Destiny’ का प्रभाव इतिहास में फीका पड़ने लगता, इसी विचार से न केवल सेंगोल को अपितु इससे जुड़े पूरे घटनाक्रम को ही कांग्रेस पोषित इतिहासकारों द्वारा पाठ्यक्रमों से गायब कर दिया गया। इस तरह सेंगोल म्यूजियम में चला गया और ‘Tryst with Destiny’ स्वतंत्रता प्राप्ति का महान प्रसंग बनकर इतिहास में प्रतिष्ठित हो गया।
यह तो एक कारण हुआ लेकिन सेंगोल की उपेक्षा का केवल यही एक कारण नहीं था। दरअसल समाजवाद को ‘दुनिया और भारत की समस्याओं का एकमात्र हल’ मानने वाले पंडित नेहरू की चिंतन-दृष्टि भारतीयता की जड़ों से कटी हुई और आयातित विचारधारा से प्रभावित थी। इतिहास में जो प्रसंग मिलते हैं, उनसे यही प्रतीत होता है कि भारत के गौरवशाली अतीत और विरासतों के प्रति उनमें कोई विशेष लगाव नहीं था।
इसका एक उदाहरण सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के प्रसंग में देखा जा सकता है। इस मंदिर के उद्घाटन कार्यक्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के जाने का नेहरू ने विरोध किया। हालांकि राजेंद्र प्रसाद, नेहरू की बात को दरकिनार करते हुए इस कार्यक्रम में शामिल हुए। प्रख्यात पत्रकार दुर्गादास अपनी किताब ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में लिखते हैं कि राजेंद्र बाबू ने नेहरू की आपत्ति का जवाब देते हुए कहा था कि मैं अपने धर्म में विश्वास करता हूं और अपने आप को इससे अलग नहीं कर सकता।
इसी तरह पंडित नेहरू अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए आर्य आक्रमण सिद्धांत के भी समर्थक थे और मानते थे कि आर्य भारत में बाहर से आए और यहाँ के मूल निवासियों को दक्षिण में खदेड़कर यहाँ बस गए। अतः ऐसा संभव है कि भारतीय विरासतों के प्रति पंडित नेहरू की विरोधी दृष्टि भी कहीं न कहीं एक कारण रही होगी जिसके चलते सेंगोल को संसद में स्थापित करने के बजाय म्यूजियम में रखवा दिया गया।
सेंगोल को हटाने के पक्ष में एक तर्क यह दिया जा रहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजतंत्र के प्रतीक सेंगोल की कोई आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे म्यूजियम में रखा गया। भारतीय संस्कृति और परंपरा को न जानने वाले लोग ही ऐसा तर्क दे सकते हैं। वास्तव में, आधुनिक लोकतंत्र का श्रेय भले पश्चिमी जगत लेता हो, लेकिन लोकतंत्र की असल जड़ें तो भारतीय परंपरा में ही निहित हैं।
आज का लोकतंत्र जिन मूल्यों पर आधारित है, वैसे ही मूल्यों पर आधारित शासन पद्धतियों के अनेक उदाहरण भारतीय वांग्मय में भी मिल जाते हैं। वैशाली का गणतंत्र तो एक उदाहरण है ही, वेदों और महाभारत सहित विभिन्न भारतीय ग्रंथों में भी गणतंत्र से सम्बंधित व्यवस्थाओं, पद्धतियों और मूल्यों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के शांतिपर्व में तो स्पष्ट रूप से गणतंत्र राज्य और उसकी नीति का वर्णन आता है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज विश्व की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए शासन का आदर्श माना जाने वाला राजतंत्रीय शासन पर आधारित ‘रामराज्य’ का मॉडल भी भारतीय ही है। संविधान निर्माण के समय भी प्राचीन भारत की शासन पद्धतियों से भी बहुत-सी बातें उसमें शामिल की गई थीं।
अतः भारत के सेंगोल यानी धर्मदंड को किसी निरंकुश शासन के प्रतीक के रूप में देखना सर्वथा अनुचित और अज्ञान का प्रमाण है। यह तो भारत के गौरवशाली अतीत को प्रतिबिंबित वाला एक महान प्रतीक है। सुखद है कि वर्तमान सरकार आज जब नए संसद भवन का उद्घाटन करने जा रही है, तब उसे इस विस्मृत विरासत का ध्यान आया और अब यह धर्मदंड संसद में स्थापित होकर देश के लोकतंत्र को और अधिक दृढ़ता, आत्मविश्वास और गौरव से युक्त करेगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)