शहीद तो भगत सिंह के अलावा राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस समेत सैकड़ों हुए। इन सभी को जनमानस स्वत:स्फूर्त भाव से शहीद पुकारने लगा। तो भगत सिंह शहीद-ए-आजम कैसे बन गए ? भगत सिंह संभवत: देश के पहले चिंतक क्रांतिकारी थे। वे राजनीतिक विचारक थे। वे लगातार लिख-पढ़ रहे थे। उनसे पहले या बाद में कोई उनके कद का चिंतनशील क्रांतिकारी सामने नहीं आया। भगत सिंह को फांसी की सज़ा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले ‘प्रताप’ और इलाहाबाद से छपने वाले ‘भविष्य’ जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था। यानी कि जनमानस ने उन्हें अपने स्तर पर ही शहीदे-ए-आजम कहना शुरू कर दिया था। जब भगत सिंह को शहीद-ए-आजम अवाम कहने लगे तो सरकार कहां से आती है।
भगत सिंह को शहीद हुए एक अरसा गुजर चुका हैं। उसके बाद भी वे देश के नौजवानों को प्रेरित करते हैं। बीते साल एक प्रमुख पत्रिका ने एक पोल किया था। सवाल पूछा गया था कि जनता सबसे अधिक किस स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी शख्सियत से प्रभावित है। उस पोल में भगत सिंह अन्य सब पर भारी पड़े थे। दरअसल वास्तविकता तो यह है कि गांधी, नेताजी, भगत सिंह जैसी शख्सियतों को किसी प्रकार के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है कि वे क्या थे।
भगत सिंह अपने जीवन काल में ही लीजैंड बन गए थे। उनकी फांसी की खबर जैसे ही देश को मालूम चली, बस तब देश गुस्से में उबलने लगा। अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश चरम पर था। जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे। भगत सिंह जैसे राष्ट्र भक्त सदियों में एक बार जन्म लेते हैं। वे किसी उपाधि या पुरस्कार के मोहताज नहीं थे। बहरहाल, भगत सिंह को शहीद हुए एक अरसा गुजर चुका हैं। उसके बाद भी वे देश के नौजवानों को प्रेरित करते हैं। बीते साल एक प्रमुख पत्रिका ने एक पोल किया था। सवाल पूछा गया था कि जनता सबसे अधिक किस स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी शख्सियत से प्रभावित है। उस पोल में भगत सिंह अन्य सब पर भारी पड़े थे। गांधी जी भी शहीद हुए। पर उन्हें कोई शहीद या शहीदे-ए-आजम नहीं कहता। हालांकि इससे उनका कद छोटा नहीं हो जाता। गांधी, नेताजी, भगत सिंह जैसी शख्सियतों को किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है कि वे क्या थे।
इस बीच, भगत सिंह के जीवन से जुड़े अनेक स्थान धूल में मिल रहे हैं। दिल्ली और कानपुर का शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन से गहरा रिश्ता रहा है। दिल्ली में उनका बार-बार आना-जाना रहता था। उन्होंने इधर 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका। कानपुर से छपने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारी अख़बार ‘प्रताप’ में नौकरी करते वक्त वे दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगा कवर करने आए । दंगा दरियागंज में हुआ था। वे दिल्ली में सीताराम बाजार की एक धर्मशाला में रहते थे। अब आप लाख कोशिश करें पर आपको मालूम नहीं चल पाएगा कि वह धर्मशाला कौन सी थी,जहां पर भगत सिंह ठहरते थे। अब कानपुर पर आते हैं। वे 1925 में प्रताप में नौकरी करने कानपुर गए थे। पीलखाना में प्रताप की प्रेस थी। वे उसके पास ही रहते थे। वे रामनारायण बाजार में भी रहे। वे नया गंज के नेशनल स्कूल में पढ़ाते भी थे। यानी कि उनका इन दोनों शहरों से खास तरह का संबंध रहा। पर, अफसोस कि इन दोनों शहरों में वे जिधर भी रहे या उन्होंने काम किया, बैठकों में शामिल हुए, उधर उनका कोई नामों-निशान तक नहीं है। उऩ्हें एकाध जगह पर बहुत मामूली तरीके से याद करने की कोशिश की गई है। जिस स्कूल में भगत सिंह पढ़ाते थे, उसका नाम भी भगत सिंह पर नहीं रखा गया। अब सोच लीजिए कि कानपुर जैसे शहर ने उनको लेकर कितना ठंडा रुख अपनाया।
किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि प्रताप से जुड़ने के चलते उन्हें समझ आया कि कलम की ताकत के बल पर बहुत कुछ किया और बदला जा सकता हैं। ‘प्रताप’ में भगत सिंह ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। भगत सिंह यहां पर बैठकर घंटों पढ़ते थे। वस्तुत: प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी।
दिल्ली में 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में भगत सिंह ने बम फेंका। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों ख़ाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद वे “इंकलाब! – ज़िन्दाबाद!! साम्राज्यवाद! – मुर्दाबाद!!” का नारा लगा रहे थे और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल रहे थे। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया। यह दुखद ही है कि उस स्थान ( संसद) में उस घटना के 79 वर्षों के बाद उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। हालांकि उस प्रतिमा को लेकर भगत सिंह के परिवार को आपत्ति है। उनका कहना है कि संसद में लगी प्रतिमा में उन्हें पगड़ी पहने दिखाया गया है। जबकि वे यूरोपीय अंदाज की टोपी पहनते थे।
भगत सिंह ने दिल्ली में अपनी भारत नौजवान सभा के सभी सदस्यों के साथ का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय किया और काफी विचार-विमर्श के बाद आम सहमति से ऐसोसिएशन को एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन। ये अहम बैठक दिल्ली में फिरोजशाह कोटला मैदान के साथ वाले मैदान में हुई। इसमें चंद्रशेखर आजाद, बिजय कुमार सिन्हा, भगवती चरण वोहरा, शिव वर्मा जैसे क्रांतिकारों ने भाग लिया था। इस स्थान पर एक स्मृति चिन्ह एक जमाने में लगा था, जो अब धूल खा रहा है। पहले तो इधर शहीद भगत सिंह बस टर्मिनल था। इस वजह से कुछ लोगों को मालूम चल जाता था कि इसका भगत सिंह से क्या संबंध रहा है। यह सब देखते हुए कहना न होगा कि भगत सिंह इस देश के दिल में बेशक हैं, मगर उनसे जुड़े स्मृति-स्थलों को सहेजने और सँवारने की तरफ भी देश को प्रयास करना चाहिए। यह बहुत हद तक देश के आम जनमानस की ही जिम्मेदारी है।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)