इसे विडंबना ही कहेंगे कि जो किसान आंदोलन तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुआ था वह अब भाजपा विरोधी अभियान में बदल चुका है। किसानों के तथाकथित रहनुमा खुलेआम कह रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की हार हुई है और अब इसे पंजाब और उत्तर प्रदेश में दुहराना है। इससे स्पष्ट है कि यह आंदोलन किसानों का न होकर मोदी सरकार और भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों, वाम रूझान वाले पत्रकारों का आंदोलन बन चुका है।
एक ओर देश के कुछेक किसान संगठन कृषि कानूनों की प्रतियां जलाकर विरोध दर्ज करा रहे हैं तो दूसरी ओर देश में गेहूं की रिकॉर्ड सरकारी खरीद हो रही है। अब तक 44.4 लाख किसानों से 76,000 करोड़ रूपये का गेहूं खरीदा जा चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि गेहूं खरीद की रकम बिना किसी बिचौलियों के सीधे किसानों के बैंक खातों में पहुंच चुकी है। सीधे भुगतान पाने वालों में पंजाब-हरियाणा के किसान अग्रणी रहे हैं।
उदाहरण के लिए कुल भुगतान में से 26,000 करोड़ रूपये पंजाब और 16,700 करोड़ रूपये हरियाणा के गेहूं किसानों के बैंक खातों में भेजे गए। जहां गेहूं की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर हो रही है वहीं खुले बाजार में सरसों की कीमतें रिकार्ड बना रही हैं। देश की कई मंडियों में सरसों 8000 रूपये प्रति क्विंटल की दर से बिकी है जबकि सरसों का एमएसपी 4650 रूपये प्रति क्विंटल है।
गेहूं और सरसों की खरीद–बिक्री के बनते रिकार्ड को देखें तो कुछेक किसान संगठनों द्वारा तीनों कृषि कानूनों का विरोध बेमानी लगता है। किसान संगठन अब कृषि कानूनों के विरोध से आगे बढ़कर भारतीय जनता पार्टी को हराने की मुहिम में जुट गए हैं।
स्पष्ट है किसान आंदोलन अब राजनीतिक विरोध में तब्दील हो चुका है। यही कारण है कि आम किसान इस आंदोलन से दूरी बनाने लगे हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि आंदोलन करने वाले किसान संगठन उन गलतियों से सबक सीखने को तैयार नहीं हैं जिनके चलते खेती-किसानी बदहाली का शिकार बनी।
भारतीय खेती की सबसे बड़ी समस्या यह रही कि सरकारों का पूरा जोर दूरगामी महत्व वाले निवेश पर न होकर सब्सिडी देने पर रहा। यह सब्सिडी भी चुनिंदा क्षेत्रों-फसलों पर केंद्रित रही। इसका नतीजा यह निकला कि विविध फसलों की खेती करने वाला भारतीय किसान चुनिंदा फसलों की खेती में उलझ कर रह गया। हरित क्रांति रूपी एकांगी कृषि विकास से शुरू में तो खेती में खुशहाली आई लेकिन जल्दी ही उसकी सीमाएं प्रकट होने लगीं।
सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि सरकारों ने हरित क्रांति की इन खामियों को दूर न करके सब्सिडी, मुफ्त बिजली-पानी, कर्जमाफी जैसे चुनावी पासें फेंकना शुरू कर दिया जिससे समस्या और गंभीर हुई। इस प्रकार धीरे-धीरे खेती-किसानी घाटे के सौदे में तब्दील हो गई।
बदहाली के दुष्चक्र के फंसी खेती-किसानी को उबारने के लिए कृषि विशेषज्ञ लंबे समय से सुझाव दे रहे हैं कि विविधीकृत फसल प्रणाली अपनाई जाए लेकिन गेहूं-धान केंद्रित फसल चक्र को तोड़ना आसान नहीं था। खेती-किसानी की इन्हीं खामियों को दूर करने और कृषि के आधुनिकीकरण के लिए मोदी सरकार ने तीन नए कृषि कानून बनाए।
दुर्भाग्यवश फसलों की खरीद-बिक्री से जुड़े बिचौलियों की ताकतवर लॉबी को ये सुधार रास नहीं आ रहे हैं। बहुसंख्यक किसानों की भागीदारी के बिना यह कथित आंदोलन छह महीने से जारी है तो इसकी असली वजह यही नकली किसान हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)