पिछले दिनों दो-तीन अहम घटनाएं हुईं। उर्दू भाषा के एक कार्यक्रम जश्न-ए-रेख्ता में पाकिस्तानी-कनाडाई मूल के लेखक-विचारक तारिक फतह के साथ बदसलूकी और हाथापाई हुई, माननीय पत्रकार सह विचारक सह साहित्यकार ‘रवीश कुमार’ के भाई सेक्स-रैकेट चलाने के मामले में आरोपित हुए और अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में फिर से एक ‘सेमिनार’ के बहाने जेएनयू में ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी-जंग रहेगी..’ वाले कुख्यात एक छात्र को बुलाया गया। ज़ाहिर तौर पर अपने देश से प्यार करनेवाले छात्र विरोध करते ही और वामपंथियों ने अपनी परंपरा के मुताबिक उन्माद मचाया ही। परिणाम, छात्रों के दो गुटों के बीच हाथापाई हुई। अब, वामी उन्मादी इसको मसला बना रहे हैं।
यह तीनों घटनाएं पाठकों को याद दिलाने का एक मकसद है। वह मकसद है, वामपंथियों की ख़तरनाक चुप्पी (जो अक्सर बलात्कार के मामले में सहमति या पक्षधरता तक में बदलती है) और चुनिंदा विस्मरणों यानी ‘सेलेक्टिव एमनेज़िया’ का है। इस लेखक को याद है कि विनोद मेहता को भी पिछले साल उनकी मौत के बाद महानता की श्रेणी में धकेल दिया गया। उनकी जयगाथा गाने वाले दरअसल उसी बिरादरी के सदस्य थे, जो तरुण तेजपाल के छेड़खानी (या बलात्कार) मामले में आरोपित होने पर उनकी तरफदारी करते हैं, क्योंकि वह उनकी बिरादरी से हैं। यह लेखक बस आपको याद दिलाना चाहता है कि यह शहरी सुविधाभोगी अभिजात्य वामपंथी कुटुंब किस कदर अपने हिसाब से इतिहास की व्याख्या करता है; व्यक्तियों को प्रमाणपत्र देता है; लोगों का चरित्रहनन करता है और सेकुलर-कम्युनल के गणित में अपनी दुकान साधता है।
अभी एक साल मात्र हुआ है, जब इसी फरवरी महीने में जेएनयू के ही कुछ लड़कों ने – भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहने और टुकड़े करने की कसमें खायी थीं। उनमें से एक लड़के को ये ज़बरदस्ती नेता भी बना रहे हैं और मज़े की बात देखिए कि वह नेता कौन है? जिस पर लड़की छेड़ने का आरोप है..आरोप ही नहीं, वह साबित भी हो चुका है और वह पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष अर्थदंड भी भुगत चुका है। उसी की टोले के एक सदस्य को डीयू में बुलाया गया था, जिसका विरोध लाजिमी ही था। यह तो खुशी की बात है कि अभी भी हमारे विश्वविद्यालयों में ऐसे विद्यार्थी बचे हैं, जो इन वामपंथी बदमाशों का विरोध करने की कूव्वत रखते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बोलने की आज़ादी के नाम पर इस देश के टुकड़े करने की आजादी नहीं दी जा सकती, कॉमरेड।
दिसंबर 2013 की एक घटना में पूर्वोत्तर की एक लड़की के बलात्कार का आरोप स्वनामधन्य खुर्शीद अनवर पर लगा था, जिसके मीडिया और प्रकाश में आने के बाद एनजीओ चलाने वाले खुर्शीद ने आत्महत्या कर ली थी। उसके बाद तो वाम-बिरादरी का रोना-धोना सब को याद ही होगा। किस तरह खुर्शीद को शहीद बनाया गया, उनकी आत्महत्या को हत्या बता दिया और जावेद नकवी से लेकर ओम थानवी तक के बड़े लिक्खाड़ उस घटना की लीपापोती में जुट गए। आज फिर, पंडित रवीश कुमार के भाई के सेक्स-रैकेट चलाने के आरोपों के बीच पंडित रवीश कुमार जहां अपने दर्शकों को ‘कंगारू कोर्ट’ और ‘मीडिया ट्रायल’ की याद दिला रहे हैं, वहीं फिर से वही ओम थानवी संघ और भक्तों को रवीश कुमार के पीछे पड़ जाने का आरोप लगा रहे हैं। मैं बड़ी विनम्रता से उनसे इस ब्रह्मज्ञान के पीछे का तर्क पूछना चाहूंगा।
दरअसल, यह जेएनयू की ऊर्ध्वमूल खाप है, जिसका सिरा लंदन से लेकर वाया हांगकांग समूचे उपमहाद्वीप में फैला है। खाप ने तय कर लिया है कि अपने किसी सदस्य के लिए किस सीमा तक झूठ की सफेदी पोतनी है। आप ज़रा यह भी देखिए कि सोशल मीडिया से लेकर तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया पर तारिक फतह के साथ मारपीट की कोई ख़बर कहीं चल रही है, क्या? आखिर, हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी सलमान रश्दी, तसलीमा नसरीन या फिर तारिक फतह के मामले में अपने मुंह में लड्डू डालकर क्यों बैठ जाते हैं? आखिर, इन वामपंथियों को सेमिनार (?) के लिए ऐसे वक्ता और विषय ही क्यों मिलते हैं, जो केवल और केवल नफरत की भाषा बोलते हैं।
अभी एक साल मात्र हुआ है, जब इसी फरवरी महीने में जेएनयू के ही कुछ लड़कों ने – भारत की बर्बादी तक जंग जारी रहने और टुकड़े करने की कसमें खायी थीं। उनमें से एक लड़के को ये ज़बरदस्ती नेता भी बना रहे हैं और मज़े की बात देखिए कि वह नेता कौन है? जिस पर लड़की छेड़ने का आरोप है..आरोप ही नहीं, वह साबित भी हो चुका है और वह पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष अर्थदंड भी भुगत चुका है। उसी की टोले के एक सदस्य को डीयू में बुलाया गया था, जिसका विरोध लाजिमी ही था। यह तो खुशी की बात है कि अभी भी हमारे विश्वविद्यालयों में ऐसे विद्यार्थी बचे हैं, जो इन वामपंथी बदमाशों का विरोध करने की कूव्वत रखते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बोलने की आज़ादी के नाम पर इस देश के टुकड़े करने की आजादी नहीं दी जा सकती, कॉमरेड।
यह लेखक जेएनयू की खदान का उत्पाद है और कविता से लेकर वीजू और कॉमरेड बत्तीलाल तक का दौर देख चुका है। जेएनयू में भी 89-90 तक रूस में बारिश होने पर छाता खोलने का चलन रहा है। जेएनयू में फिलस्तीन से लेकर सीरिया तक के मसले तो निबटाए जाते हैं, लेकिन मेस के बिल या कंस्ट्रक्शन वर्कर पर कोई चर्चा नहीं होती है। हां, कभी कुछ लोगों का ‘वाइट मेन्स बर्डेन’ सिंड्रोम जागता है, तो वे कुछ बाल-मजदूरों को अक्षर-ज्ञान कराने लगते हैं। वैसे भी, डोल्चे-गबाना की जींस पहनकर अभय देओल जिस कौमी नेता का किरदार ”रांझना” में निभाते हैं, जेएनयू के हमारे कौमी भाई भी उस यूटोपिया से आगे नहीं निकल पाते। आपकी सहिष्णुता और आज़ादी कश्मीरी अलगाववादियों को बुलाने में तो ठीक रहती है, लेकिन इंदिरा गांधी से लेकर मुरली मनोहर जोशी तक आप अपना ही स्वतंत्रता का अधिकार भूल जाते हैं। अपनी ही यूनिवर्सिटी में आपने कितनी बार वीसी से लेकर कर्मचारियों को बंद किया है, यह भी क्या भूल गए कॉमरेड?
छात्रों के दो गुटों में हुई मारपीट पर ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलानेवाले मियां ज़रा यह बताओ कि तारिक फतह के साथ मारपीट कितने दिन पहले हुई? उनकी अभिव्यक्ति किस राह से निकल गयी, यह भी न देखा आपने। पंडित रवीश कुमार के भाई के कुकर्मों की सज़ा उनको न देने की अपील करते वक्त आप यह कैसे भूल जाते हैं कि भाजपा के किसी प्रदेश के किसी ज़िले के पार्षद के किसी दूर के रिश्तेदार की किसी करनी पर आप सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफा मांगने लगते हैं?
राजनीति में निष्पक्ष प्रेक्षक की भूमिका से कैसे आप पार्टी में बदल जाते हैं, यह पता भी नहीं चलता। नतीजा, जिंदगी भर का सारा लिखा-पढ़ा ऐन उसी वक्त कूड़ा हो जाता है जब इसका सबसे कड़ा इम्तिहान आता है। विनोद मेहता, तरुण तेजपाल, जावेद नकवी, ओम थानवी, रवीश कुमार, अभय कुमार दुबे, बरखा दत्त, वीर सांघवी… और यह सूची अंतहीन है। कहना गलत नहीं होगा कि ये सारे बड़े नाम ऐन परीक्षा के वक्त असफल हो गए।
ज़रा याद कीजिए राजदीप सरदेसाई का वह उन्मुक्त बयान, जब उन्होंने संसद मामले के स्टिंग को प्रसारित करने का एलान किया। फिर क्या हुआ, सबको मालूम है। उन्होंने उस स्टिंग का प्रसारण नहीं किया। आज भी वह मुल्क के नामचीन पत्रकारों में हैं। याद कीजिए राडिया टेपकांड औऱ उसमें हमारे समय की जुझारू पत्रकार बरखा दत्त की भूमिका। आज, वह पत्रकारों को बनाने की फैक्टरी लगाने चली हैं। हमें पूरी उम्मीद है, वह अपने प्रशिक्षुओं को ज़रूर वे सारे गुर सिखाएंगी, जो उन्होंने राडिया-कांड में आजमाए थे। याद कीजिए पंडित रवीश कुमार का ‘बागों में बहार है..’, एनडीटीवी की स्क्रीन का ब्लैंक होना और आज उनकी ख़तरनाक चुप्पी, चुनिंदा विस्मरण, मनचाही अनदेखी और षडयंत्रकारी गोलपोस्ट बदलने की कवायद। इन सभी घटनाओं को याद दिलाने का एक ही मकसद है, वामी–कौमी प्रपंच को, दोहरेपन को उजागर करना। इनकी चुनी हुई चुप्पी इतनी दमदार है कि आज भी ये मीडिया की संप्रभुता और ईमानदारी का बखान करने का दुस्साहस करते हैं।
अंग्रेजी में एक कहावत है- No one’s closet is without skeletons. जिस चैनल में बरखा दत्त और राजदीप काम कर चुके हैं, वह अगर पत्रकारिता की दुहाई दे रहा है, तो फिर दुहाई पर ही दुहाई दी जानी चाहिए। ऊपर इस लेखक ने जिन तीन घटनाओं की चर्चा की है, उसे इतिहास जब भी याद करेगा तो जरूर ही मानेगा कि वामपंथी प्रपंचियों और वंचकों ने बड़ी सफाई से शब्दों के मायने बदलने की कोशिश की और मुंह की खायी।
(लेखक पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)