भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का चुनाव एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा रहा है। यद्यपि मोदी सरकार के आने के बाद छात्रसंघ चुनावों से लेकर निगम/पंचायत चुनावों तक भी मोदी लहर को पढ़ने की कोशिश राजनीतिक विश्लेषक करते रहे हैं, परंतु वास्तविकता में उत्तर प्रदेश चुनाव को मोदी समेत पूरी भाजपा भी बेहद गंभीरता से ले रही है, वहीं मोदी-विरोधी संपूर्ण तबका इस बार भी बिहार जैसे परिणामों की जद्दोजहद में लगा हुआ है। उत्तर प्रदेश चुनाव ने एक बात स्पष्ट कर दी है जो हमें आगामी लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगी कि अगर विपक्ष टुकड़ों में बंटता है तो भाजपा की स्थिति अपराजेय हो जाएगी। तभी तो धुर-विरोधी दल भी अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए अपने सिद्धांतों को परे रख सिद्धांतहीन गठजोड़ से विमुख नहीं हो पा रहे हैं।
मोदी के उदय के बाद विपक्षी दलों की दृष्टि से कुछ भी अप्रत्याशित प्रतीत नहीं होता। राजनीति में सिद्धांतों, विचारों और नैतिकता की बात बेमानी लगने लगी है। लगभग 6 महीने पहले उत्तर प्रदेश में चतुष्कोणीय मुकाबला होने की संभावना थी। जिन उम्मीदों को लेकर कांग्रेस शीला दीक्षित के ब्राह्मण चेहरे और “27 साल यूपी बेहाल ” के नारे के साथ मैदान में उतरी थी, लेकिन चुनाव आते-आते जमीनी हकीकत से रुबरु होने पर कांग्रेस नेतृत्व समेत पूरी पार्टी हांफने लगी और अपनी रही सही प्रतिष्ठा को बचाने की जद्दोजहद में लग गई। गत तमाम चुनावों के परिणामों से कांग्रेस का आत्मविश्वास इस कदर डोल चुका है कि वह किसी भी स्थिति में किसी भी गैर भाजपा दल से समझौते को तैयार हो जाती है, इसी कारण वो मायावती द्वारा गठबंधन के लिए झिड़क देने के बाद आखिरकार समाजवादी पार्टी से अपमान पूर्ण समझे समझौते को सहज ही तैयार हो गई।
अखिलेश यादव ऊपरी तौर पर कितने ही संतुष्ट और आत्ममुग्ध दिखें, परंतु वास्तविकता यही है कि टीवी स्क्रीन पर जो उत्तर प्रदेश वह देश के सामने परोस रहे हैं, जमीन पर काफी अलग है। उत्तर प्रदेश की जनता टीवी स्क्रीन की चकाचोंध तस्वीरों से उकता रही है। पिछले 5 सालों में जमीन पर कोई भी खास परिवर्तन हो नहीं पाया। कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमराई रही, पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत पूरे प्रदेश के लोगों का स्पष्ट मानना है कि थानों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों और यादवी गुंडा तत्वों का कब्जा रहा है। किसी की कोई सुनवाई नहीं है। एक के बाद एक सांप्रदायिक दंगों में झुलसता प्रदेश और बहुसंख्यक आबादी के साथ सपा सरकार का अन्यायपूर्ण व्यवहार किसी से छिपा नहीं है।
अपमान पूर्ण समझौते को करने की कांग्रेस की स्थिति तो समझ में आती है, परंतु स्वयं को विकासपुरुष के खांचे में फिट करने की जिद में लगे अखिलेश यादव तमाम उपलब्धियों का ढोल पीटने के बाद भी इतना आत्मविश्वास क्यों अर्जित नहीं कर पाए कि खुद की पार्टी को 403 सीटो पर मैदान में उतार पाते? जब इसका विश्लेषण करते हैं तो कुछ चीजें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं। लेकिन उन्हें शरारत पूर्ण तरीके से चुनावी विश्लेषकों ने जन-विमर्श से दूर किया हुआ है।
अखिलेश यादव ऊपरी तौर पर कितने ही संतुष्ट और आत्ममुग्ध दिखें, परंतु वास्तविकता यही है कि टीवी स्क्रीन पर जो उत्तर प्रदेश वह देश के सामने परोस रहे हैं, जमीन पर काफी अलग है। उत्तर प्रदेश की जनता टीवी स्क्रीन की चकाचोंध तस्वीरों से उकता रही है। पिछले 5 सालों में जमीन पर कोई भी खास परिवर्तन हो नहीं पाया। कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमराई रही, पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत पूरे प्रदेश के लोगों का स्पष्ट मानना है कि थानों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों और यादवी गुंडा तत्वों का कब्जा रहा है। किसी की कोई सुनवाई नहीं है। एक के बाद एक सांप्रदायिक दंगों में झुलसता प्रदेश और बहुसंख्यक आबादी के साथ सपा सरकार का अन्यायपूर्ण व्यवहार किसी से छिपा नहीं है।
आज भी उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति बदतर है। भले ही केंद्र सरकार की ग्राम ज्योति योजना के तहत जिन गावों में बिजली नहीं थी, वहां बिजली पहुंचाने का काम किया गया हो, परंतु प्रदेश सरकार जनता को औसतन 10 घंटे बिजली देने में भी नाकाम रही है। इसके अलावा उल्लेखनीय होगा कि मुलायम सिंह स्वयं को धरतीपुत्र कहलवाना पसंद करते थे, परंतु उनके पुत्र मुख्यमंत्री के रूप में वास्तविक धरतीपुत्रों की समस्याओं को सुलझाने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं। गन्ना किसानों के हित के लिए केंद्र सरकार ने तो अवश्य ही प्रयास किया है, परंतु पिछले 5 साल में अखिलेश के पास गन्ना किसानों के लिए कोई रोड मैप नहीं दिखा। गन्ने का भुगतान, मूल्यवृद्धि, धान और गेहूं की सरकारी खरीददारी, सब मोर्चों पर किसानों को निराशा ही हाथ लगी। कई जगह पर किसानों को एम एस पी से 300-400 रुपए कम पर अपना धान देना पड़ा, जिसमें सीधे-सीधे सरकार की लापरवाही सामने आई है। जबकि नजदीकी हरियाणा तथा मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी खरीददारी की स्थिति बेहतर आंकी गयी। प्रदेश में पलायन भी एक बड़ा मुद्दा है। कैराना से लेकर अलीगढ तक बदमाशों के सामने कानून व्यवस्था बिल्कुल पस्त दिखी।
यही स्थिति महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भी रही है। हाईवे रेप कांड हो या फिर अन्य स्थानों पर महिलाओं के साथ बदतमीज़ी, हर मोर्चे पर अखिलेश सरकार विफल रही है। आंकड़ो के अनुसार बेहद भयावाह स्थिति उभरकर सामने आती है। पिछले एक साल में 161 प्रतिशत रेप के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। बदहाल स्थिति प्रदेश में युवाओं के साथ भी रही है। सपा सरकार ने सरकारी नौकरियों में केवल यादवों, अपने रिश्तेदारों और मुस्लिम वर्ग को ही तरजीह दी, कोई भी भर्ती निष्पक्ष नहीं हो पाई जिस कारण युवाओं के मन में वर्तमान सरकार के लिए आक्रोश है और वह इस भ्रष्ट व्यवस्था से मुक्त होने को छटपटा रहे हैं।
अखिलेश यादव राहुल गांधी से ज्यादा समझदार हैं, जमीनी स्थिति भी समझते होंगे। वे जानते हैं कि चाहे कितना भी दुष्प्रचार कर लो, परंतु नरेंद्र मोदी के लिए जनता में विश्वास डिगा नहीं है, अपितु सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के बाद मोदी के प्रति विश्वास और आकर्षण बढ़ा ही है। मोदी पर न तो भ्रष्टाचार का आरोप लगा, न ही भाई-भतीजा के संरक्षणवाद का। ऐसे में, तुष्टिकरण, गुंडाराज और भरष्टाचार से ऊब चुकी प्रदेश की जनता मोदी को एक ऐसे कुशल नेता के रुप में देख रही है, जिसे अपनी भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता पर गर्व है और वह उसे आगे बढ़ाने का काम कर रहा है। उज्जवला योजना, जन-धन खाते, कौशल विकास, रेलवे ओर हाईवे का विस्तार, फसल बीमा योजना तथा नक़द सब्सिडी हस्तांतरण जैसी योजनाओं को जनता जमीन पर क्रियान्वित होते देख रही है।
अखिलेश यादव का सबसे बड़ा डर अमित शाह जैसे रणनीतिकार से भी है, जिसने लोकसभा चुनाव में अखिलेश को ऐसी पटकनी दी थी कि सपा को दिन में तारे नजर आ गए थे। ऐसी स्थिति में अखिलेश यादव के पास वही पुराना विकल्प बचता था, मुस्लिम-यादव मतदाताओं की एकजुटता, जिसे मायावती 97 मुस्लिम उम्मीदवारों के द्वारा चुनौती दे रही थी तथा मुस्लिम वर्ग में काफी लोग कांग्रेस के भी वोटर हैं। ऐसी स्थिति में मुस्लिम मतदाताओं के बिखराव को रोकने के लिए एक तथाकथित विकास पुरुष ने विकास के नाम पर चुनाव न लड़कर कथित सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए नापाक गठजोड़ कर चुनाव लड़ने का कायराना फैसला किया। अब असली परिणाम तो 11 मार्च को आएगा परंतु इस समय अखिलेश, राहुल और मायावती तीनों ही अपने आत्मविश्वास को प्राप्त करने के लिए जूझ रहे हैं, जबकि भाजपा पूरी तरह आत्मविश्वास से लबरेज और आक्रामक दिख रही है। मोदी की रैलियां शुरू होने के बाद जमीन पर यह ग्राफ और तेजी से बढ़ेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)