लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अखिलेश और मायावती के उस मंसूबे पर पानी फिर गया जिसके तहत अखिलेश 2022 के यूपी चुनाव में खुद को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और मायावती इस लोकसभा चुनाव में खुद को देश के प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने वाले थे। सो जब मंसूबे ही नहीं बचे तो इन धुरविरोधी दलों का अवसरवादी गठबंधन भला किस बात के लिए टिकेगा? कह सकते हैं कि लोकसभा चुनाव के साथ ही बुआ-बबुआ का लगाव भी खत्म हो गया है।
उत्तर प्रदेश की सियासत में इन दिनों कुछ ऐसा हो रहा है जिसे आप हास्यास्पद कह सकते हैं। यहाँ जितनी तेजी के साथ गठबंधन बना उससे कहीं तेजी से उसका पटाक्षेप भी होता दिख रहा है। आम चुनाव से ठीक पहले मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए मायावती और अखिलेश ने चुनावी गठबंधन किया, जिसका आशय था दलित और यादव वोट बैंक को एकदूसरे के खाते में ट्रांसफर कर एकदूसरे को जीतने में मदद करना। यह स्वार्थों पर आधारित विशुद्ध अवसरवादी गठबंधन था।
कयास यह लगाया गया था कि दलित और यादव वोट बैंक को आपस में मिलाकर महागठबंधन को कम से कम 50 सीटें मिलेंगी और बीजेपी महज 30 सीटों पर ही सिमट जाएगी लेकिन हुआ यहाँ उससे सीधा उलट। बीजेपी को 80 में से 62 सीटें मिल गईं, वहीं बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटों से और समाजवादी पार्टी को 5 सीटों से संतोष करना पड़ा।
कहा यह जा रहा है कि इस गठबंधन से पहले मुलायम सिंह ने अखिलेश को साफ़ तौर मना किया था कि ऐसे गठबंधन का कोई भविष्य नहीं है लेकिन अखिलेश ने जोश में दोबारा गलती कर दी। इससे पहले अखिलेश ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, लेकिन राहुल और अखिलेश का साथ भी जनता को पसंद नहीं आया।
बहरहाल, सपा-बसपा के इस गठबंधन में और कुछ हुआ हो या नहीं, लेकिन बबुआ के मुकाबले बुआ को फायदा जरूर हो गया। मायावती की बहुजन समाज पार्टी को पिछले 2014 के चुनाव में कोई सीट नहीं मिली थी लेकिन इस बार बुआ की झोली में 10 सीटें आ गईं।
चुनावी गठबंधन करने के लिहाज से देखें तो अब अखिलेश के राजनीतिक सूझ-बूझ पर ही सवाल उठाया जा रहा है। एक तरह से अखिलेश का राजनीतिक भविष्य अब खतरे में दिख रहा। इसके साथ अब एक नया राजनीतिक घटना विकास यह हुआ है कि मायावती ने प्रदेश में होने जा रहे उपचुनावों में अकेले हिस्सा लेने का फैसला किया है। उनके तेवर भी कड़े हैं, जिससे अनुमान लगाया जा रहा कि अब यह महागठबंधन खत्म तमाम ही है।
दरअसल लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद अखिलेश और मायावती के उस मंसूबे पर पानी फिर गया जिसके तहत अखिलेश आने वाले यूपी चुनाव में खुद को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री और मायावती इस चुनाव में खुद को देश के प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने वाले थे। सो जब मंसूबे ही नहीं बचे तो इन धुरविरोधी दलों का अवसरवादी गठबंधन भला किस बात के लिए टिकेगा। सो अब इस महागठबंधन का खेल भी ख़त्म ही मानिए।
अब तक क्षुद्र स्वार्थों को आधार बनाकर जाति के नाम पर वोट की रोटियाँ सेंकी जा रही थीं, लेकिन ऐसे लोगों के लिए एक बड़ी चेतावनी देश की जनता ने जारी कर दिया है कि हिन्दू समाज को जाति के नाम पर बाँटने वाले अब और कामयाब नहीं हो सकते।कभी काशीराम ने एक नारा दिया था “मिले मुलायम-काशीराम, हवा हो गए जय श्री राम” यह 90 के दशक की बात थी, अब वक्त बदल गया है जिसका सन्देश जनता की तरफ से लगातार दिया जा रहा है। आज के समय में अखिलेश और मायावती को जातिवादी राजनीति को त्यागकर विकास के राह पर आगे बढ़ना पड़ेगा, अन्यथा इन जाति आधारित पार्टियों की दुकानों पर हमेशा के लिया ताला लगना तय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)