पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए मतदान शुरू हो चुका है। गोवा और पंजाब की सभी सीटों पर मतदान होने के बाद अब आगामी ११ फ़रवरी को यूपी में प्रथम चरण का मतदान होने जा रहा। इसके मद्देनजर हमारे राजनेता अपनी राजनीतिक बिसात बिछाकर प्रचार–प्रसार करने में लगे हैं। यूपी में अगर सभी दलों के प्रचार पर नजर डालें तो स्पष्ट पता चलता है कि बीजेपी को छोड़ अधिकांश दल सिर्फ सियासी नूरा-कुश्ती में लगे हुए हैं। दरअसल बीजेपी यूपी के सर्वांगीण विकास को अपने एजेंडे के केंद्र में रखकर चुनाव में ताल ठोंक रही है, इसके ठीक उलट अन्य विपक्षी दलों का इस चुनाव का मुख्य लक्ष्य है कि बीजेपी को किसी तरह रोको। यहाँ उनके लिए सूबे का विकास और अपने सिद्धांत कुछ मायने नहीं रखते। उनका एकमेव लक्ष्य बीजेपी को रोकना है। अखिलेश और कांग्रेस का गठबंधन इसी की बानगी है।
आज अखिलेश यूपी में ‘काम बोलता है’ के दावे के साथ सत्ता में आने की दावेदारी कर रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि अगर उनका काम बोलता है, तो फिर कांग्रेस की बैशाखी के सहारे चुनाव मैदान में क्यों उतरें हैं ? जिस कांग्रेस को वो और जो कांग्रेस उनको लगातार कोसती रही है, अब उसी कांग्रेस के साथ आकर ‘यूपी को साथ पसंद है’ का नारा क्यों बुलंद किये हुए हैं ? साफ़ है कि अखिलेश यादव को अपने खिलाफ सूबे की जनता के आक्रोश और सत्ता खिसकने की आहट मिल चुकी है।
दरअसल यूपी में बीजेपी मजबूत स्थिति में आ खड़ी हुई है। बीजेपी की रैलियों में उमड़ने वाला विशाल जनसमूह इस बात की पुष्टि भी कर रहा है। ये देखते हुए विरोधी दलों में बौखलाहट सी मच गई है, जिसका नतीज़ा राहुल और अखिलेश का अपने सिद्धांतों और विचारधारा को ताक पर रखकर साथ आना है। जाहिर है कि यह गठबंधन अवसर को देखते हुए तथा भाजपा की ताकत को कमजोर करने के लिए किया गया है। यह पूरी तरह से भाजपा को रोकने की बेबसी का गठबंधन है। ऐसे में, सवाल खड़ा होता है कि क्या यह ‘बीजेपी रोको’ गठबंधन अपने लक्ष्य में कामयाब होगा ? विचार करें तो इसका जवाब नकारात्मक ही प्रतीत होता है।
उत्तर प्रदेश की जनता इस बात को बखूबी जानती है कि अखिलेश के पिछले पांच साल के शासन में सूबे की क्या दशा हो गयी है। अखिलेश राज के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा, दमन, शोषण, बलात्कार, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी चरम पर रहे हैं और अखिलेश मौन बने तमाशा देखते रहे। आज राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क नही है तथा गाँव आज भी मुख्यमार्ग से कोसो दूर हैं। जातिवाद, परिवारवाद अपनी पराकाष्ठा को पार कर चुका है। प्रदेश आज भी वहीँ खड़ा हैं, जहां एक दशक पहले खड़ा था। रोजगार के कोई अवसर नहीं है, जिस कारण युवाओं को प्रदेश से बाहर जाकर रोजी–रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि अगर अखिलेश ने यूपी में विकास किया है, तो उसका कोई असर क्यों नही दिख रहा ? क्यों उत्तर प्रदेश में आज शिक्षा व्यवस्था बदतर है ? क़ानून-व्यवस्था बदहाली का शिकार क्यों है ? हर तरफ अपराध का बोलबाला क्यों है ? अखिलेश कैसे नेता हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जो गायत्री प्रजापति अखिलेश यादव के लिए कभी भ्रष्टाचारी थे, खनन माफिया थे, जिनको उन्होंने मंत्रीमंडल से बाहर तक निकाल दिया था, आज वही गायत्री उनकी नज़र में ईमानदार और कर्मठ बने हुए हैं और अखिलेश उन्हें पुनः विधायक बनाने के लिए उनका प्रचार कर रहे हैं।
आज अखिलेश यूपी में ‘काम बोलता है’ के दावे के साथ सत्ता में आने की दावेदारी कर रहे हैं, लेकिन सवाल उठता है कि अगर उनका काम बोलता है, तो फिर कांग्रेस की बैशाखी के सहारे चुनाव मैदान में क्यों उतरें है ? जिस कांग्रेस को वो और जो कांग्रेस उनको लगातार कोसती रही है, अब उसी कांग्रेस के साथ आकर ‘यूपी को साथ पसंद है’ का नारा क्यों बुलंद किये हुए हैं ? साफ़ है कि अखिलेश यादव को अपने खिलाफ सूबे की जनता के आक्रोश और सत्ता खिसकने की आहट मिल चुकी है, इसीलिए वे कांग्रेस का हाथ थामकर जीत का भरोसा पाले बैठे हैं।
दूसरी तरफ हैं कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिनकी पार्टी की दस साल तक केंद्र में सरकार रही, तब राहुल को यूपी में विकास की याद आना तो दूर यूपी में ही मौजूद अपनी संसदीय सीट अमेठी तक का ख्याल नहीं आया और अब उन्हें यूपी में विकास की याद आ रही है! इतना ही नहीं, अभी चंद रोज़ पहले तक जो राहुल गांधी ‘सत्ताईस साल यूपी बेहाल’ का नारा लगाते हुए अखिलेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे, अब उन्हीं अखिलेश के साथ गलबहियां करते हुए ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ गा रहे हैं। अपने शासन के दौरान अखिलेश कई मर्तबा कह चुके हैं कि जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी, तब यूपी के साथ सौतेला व्यवहार होता था। ऐसे में, आज अखिलेश को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि आखिर क्या ऐसी बात हो गई कि आज सौतेला व्यवहार करने वाला दल उन्हें इतना रास आने लगा है ? सिद्धांतों और विचारधारा के स्तर पर बात करें तो जो लोहिया जीवन भर गैर-कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करते रहे, आज खुद को उनका अनुयायी बताने वाले अखिलेश कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की नाकाम कोशिश में लगे हुए हैं। खुद को परम लोहियावादी कहने वाले मुलायम भी इस गठबंधन को अपना आशीर्वाद दे चुके हैं। इन बातों से साफ़ है कि इन दलों का कोई सिद्धांत, कोई विचारधारा नहीं है, इन्हें जहां और जिस रूप में सत्ता की संभावना दिखती है, ये वहाँ वैसा ही रूप धारण कर लेते हैं। लेकिन, यूपी की जनता इनकी राजनीति के इस अवसरवादी चरित्र को समझने में अब चूक नहीं करेगी। यूपी की वर्तमान दुर्दशा के सवालों का जवाब न केवल अखिलेश यादव की सपा को, बल्कि सपा से पूर्व सत्ता में रही बसपा तथा इन सबसे से पहले सर्वाधिक समय तक सूबे पर शासन करने वाली कांग्रेस को भी देना होगा। ये अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)