नरेंद्र मोदी जब कहते हैं कि राजनीति उनके लिए सत्ता व सुविधा की मंजिल नहीं, सेवा का माध्यम रही है तो उनका यह वक्तव्य अतिरेकी या अविश्वसनीय नहीं लगता। लोगों को लगता है कि उन्होंने लिया बहुत कम है और दिया बहुत ज़्यादा है। राजनीति में परिश्रम, पुरुषार्थ, त्याग और सेवा का जैसा दुर्लभ दृष्टांत उन्होंने स्थापित किया है, वह उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और अधिकांश देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
राजनीति भी व्यापक मानवीय संस्कृति का एक प्रमुख आयाम है। भारतीय जनमानस के लिए राजनीति कभी अस्पृश्य या अरुचिकर नहीं रही। स्वतंत्रता-आंदोलन के दौर से ही राजनीति जनसेवा एवं सरोकारों के निर्वाह का सशक्त माध्यम रही है।
स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक दशकों में भी राजनीति जनसरोकारों को लेकर चली। बाद के दिनों में एक ऐसा कालखंड अवश्य आया जब जातिवाद, क्षेत्रवाद, वंशवाद एवं छद्म धर्मनिरपेक्षता का घोल पिलाकर मतदाताओं को लामबंद कर सत्ता बनाए रखने के कुचक्र रचे गए और उसमें कुछ दशकों तक राजनीतिज्ञ सफ़ल होते भी दिखे।
परंतु, जैसे काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती वैसे ही सफ़लता की गारंटी माने जाने वाले ये सूत्र भी विफ़ल हुए। भारतीय जनमानस का इससे मोहभंग हुआ। जातिवाद एवं सूडो सेकुलरिज़्म का झुनझुना लोगों को दो वक्त की रोटी नहीं दे सकता, इसलिए लोग इससे विमुख होकर विकास और सेवा की राजनीति की आकांक्षा और स्वप्न संजोने लगे।
आम मतदाताओं के इस मन और मिज़ाज को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में ही पढ़ और समझ लिया था। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए ही विकास को राजनीति के केंद्र में स्थापित करना शुरू कर दिया था।
गुजरात में विकास की रफ़्तार को देखकर बाक़ी राज्यों को भी लगने लगा कि यदि दिशा, दृष्टि और इच्छाशक्ति हो तो जनभावनाओं एवं जनाकांक्षाओं को साकार किया जा सकता है। मुख्यमंत्री रहते हुए भी नरेंद्र मोदी की एक राष्ट्रीय अपील थी। राज्येतर जनाधार था। वे राजनीति में एक उम्मीद बनकर उभरे।
यदि हम तटस्थ एवं ईमानदार विश्लेषण करें तो यह दावा अतिरेकी नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के स्वाभाविक उम्मीदवार घोषणा से पूर्व ही मान लिए गए थे। वे दल के नहीं, सही अर्थों में जनता के प्रधानमंत्री हैं। और कोई अचरज नहीं कि अपने व्यापक अपील एवं लोकप्रियता के बल पर उन्होंने राजनीति को विकास एवं सेवा का माध्यम ही नहीं, पर्याय बना डाला।
राजनीति में उन्होंने कई साहसिक प्रयोग किए जिसे जनता का अपार समर्थन मिला। वे एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में सामने आए जो केवल शासन-प्रशासन को ही चाक-चौबंद नहीं रखता, अपितु जनसरोकारों से जुड़े लोकहित के छोटे-छोटे मुद्दों पर भी खुलकर अपनी राय रखता है और सरकार की भागीदारी सुनिश्चित करता है।
नरेंद्र मोदी से पूर्व शायद ही किसी ने सोचा हो कि एक प्रधानमंत्री स्वच्छता-अभियान को ऐसे जन-आंदोलन में परिणत कर सकता है, छोटे-छोटे बच्चे जिसके सेवा-सैनिक और दूत बनकर बड़ों को दिशा देने लगें।
इतना ही नहीं, उनके द्वारा प्रारंभ की गई ‘प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’ महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक ठोस क़दम साबित हुई। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना ने गिरते शिशु लिंगानुपात पर रोक लगाई और कन्या भ्रूण हत्या जैसे नृशंस एवं मानवीय कुकृत्य पर अंकुश लगाने में एक हद तक सफलता पाई। ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ ने बेटियों को लक्ष्मी एवं शक्ति स्वरूपा मानने की दिशा में समाज को प्रेरित किया।
प्रधानमंत्री आवास योजना, स्टार्ट अप इंडिया, प्रधानमंत्री मुद्रा बैंक योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, प्रधानमंत्री फसल योजना” जैसी जन कल्याणकारी योजनाओं ने प्रधानमंत्री की सरोकरधर्मिता को स्पष्ट एवं उजागर किया है।
प्रधानमंत्री मोदी का अब तक का द्वितीय कार्यकाल भी कई मायनों में ऐतिहासिक एवं उपलब्धिपूर्ण रहा। उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 समाप्त कर अपने मज़बूत इरादे स्पष्ट कर दिए, तीन तलाक के ख़िलाफ़ क़ानून और नागरिकता संशोधन विधेयक पारित कर उन्होंने साफ़ संदेश दिया कि तमाम विरोधों एवं दबावों के बावजूद राष्ट्रहित के मुद्दों पर वे किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगें।
कोरोना-काल में भी हर मोर्चे पर वे और उनकी सरकार जिस प्रकार मुस्तैद और सक्रिय दिखती है, वह उत्साहजनक है। राम-मंदिर के शिलान्यास एवं भूमि-पूजन कार्यक्रम में जाकर उन्होंने उसका विरोध कर रहे तमाम दलों एवं नेताओं को साफ़-साफ़ संदेश दिया कि राम-मंदिर उनकी पार्टी के लिए केवल एक चुनावी नहीं, अपितु सुदीर्ध-सुविचारित चिंतन से निःसृत सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय मुद्दा रहा है और उसे लेकर वे या उनकी सरकार किसी भ्रम या द्वंद्व के शिकार नहीं हैं।
उनकी सरकार विचारधारा से जुड़े मुद्दों पर प्रतिबद्धता से काम करने के साथ-साथ महात्मा गाँधी और संघ समर्थित स्वदेशी आधारित अर्थव्यवस्था की दिशा में भी तत्परता से काम करती दिख रही है। ‘आत्मनिर्भर भारत’ एवं ‘लोकल के लिए वोकल’ का उनका विचार केवल नारों तक सीमित नहीं दिख रहा। वे इस दिशा में बड़े सधे हुए क़दम बढ़ा रहे हैं। तमाम चीनी ऐप पर प्रतिबंध और चीन के साथ किए गए विभिन्न व्यापारिक समझौतों की समीक्षा एवं उनमें से कुछ का रद्दीकरण उसी दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम है।
इतना ही नहीं, विभिन्न स्रोतों से छन-छनकर आ रही खबरों के अनुसार लद्दाख में पहली बार भारत सीमा पर मज़बूती से सीना ताने खड़ा है और चीनी सेना से आँखें मिलाकर बात कर रहा है। अमेरिकी मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक गलवान घाटी में लगभग 60 चीनी सैनिकों के हताहत होने की पुष्टि हुई है।
राष्ट्र की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता से उनकी सरकार किसी प्रकार की समझौता करती हुई दिखाई नहीं देती, बल्कि इस कोरोना-काल में भी विभिन्न मोर्चों पर उनकी सरकार जिस दृढ़ता से खड़ी और लड़ती हुई दिखाई देती है, वह उम्मीद की रोशनी बनकर जनता का हौसला बढ़ाने वाली बात है।
उनकी बातों, कार्यों एवं योजनाओं में गाँव, गरीब, किसान, वंचित, शोषित जनों का ज़िक्र बार-बार आना अकारण नहीं है। बल्कि वे उनके हितों के लिए प्राणपण से प्रयास करते हुए प्रतीत होते हैं। वे एक ऐसा नेता हैं जो संघर्षों की रपटीली राहों पर चलकर और अनुभव की आँच में तपकर केंद्रीय सत्ता के शिखर-पुरुष बने हैं। अच्छी बात यह है कि ग़रीबी की पीड़ा उन्होंने न केवल देखी और सुनी है, अपितु भोगी भी है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन का कण-कण और आयु का क्षण-क्षण देश-सेवा के लिए अर्पित कर रखा है।
जब वे कहते हैं कि राजनीति उनके लिए सत्ता व सुविधा की मंजिल नहीं, सेवा का माध्यम रही है तो उनका यह वक्तव्य अतिरेकी या अविश्वसनीय नहीं लगता। लोगों को लगता है कि उन्होंने लिया बहुत कम है और दिया बहुत ज़्यादा है। राजनीति में परिश्रम, पुरुषार्थ, त्याग और सेवा का जैसा दुर्लभ दृष्टांत उन्होंने स्थापित किया है, वह उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और अधिकांश देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
क्या आज से पूर्व भारत में किसी ने सोचा होगा कि सांसद कोरोना से उत्पन्न विषम एवं संकटकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए अपने वेतन-भत्ते-सुविधाओं में कटौती का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करेंगें? क्या ऐसे प्रस्तावों को पारित और स्वीकृत कराने की पहल और परिकल्पना राजनीति में आए परिवर्तन की परिचायक नहीं?
नकारात्मक सोच वाले प्रलय के भविष्यवक्ताओं की प्रतिक्रियाओं को यदि कुछ पल के लिए भूल जाएँ तो ऐसा कौन होगा जो यह कहे कि प्रधानमंत्री ने कोरोना से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने एवं उसकी रोकथाम में कोई कोर-कसर बाक़ी रखी? ऐसा कौन होगा जो कहे कि प्रधानमंत्री ने अपने परिश्रम एवं प्रयासों में कोई कोताही बरती?
निःसंदेह इस संकट-काल में भी उन्होंने अपनी स्वतःस्फूर्त सक्रियता, सजगता, सतर्कता, त्वरित निर्णय एवं प्रत्युत्पन्नमति से शासन-व्यवस्था को गति दी, नौकरशाही एवं सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को प्रेरित-प्रोत्साहित किया, यहाँ तक कि विभिन्न मुख्यमंत्रियों से भी ताल-मेल बनाए रखकर उन्हें भी सार्थक एवं सम्यक दिशा देने का प्रयास किया।
कोरोना महामारी से उपजी इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री ने ‘सेवा को राजनीतिक गतिविधियों’ के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। सेवा जिसे आज तक सामाजिक संगठनों, धार्मिक संस्थाओं, जनकल्याणकारी समितियों का कार्य समझा जाता था, उसे जनतांत्रिक कार्यकर्त्ताओं के गले उतारना इतना आसान नहीं था। इसके लिए दिशा और दृष्टि, प्रेरणा और पाथेय दोनों की आवश्यकता होती है।
सौभाग्य से प्रधानमंत्री जिस विचार-परिवार से आते हैं वहाँ ऐसे सेवाव्रती तपोनिष्ठों की कमी नहीं, जिनके जीवन का ध्येय ही राष्ट्र-देव की सेवा में स्वयं का अर्पण है। स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी जैसे दृष्टिसंपन्न महापुरूषों से लेकर संघ-परिवार से जुड़े हजारों सेवाव्रती प्रचारकों ने सेवा-कार्य को महत्ता प्रदान की है।
‘सेवा भारती’ के माध्यम से संघ ने सदैव प्राकृतिक आपदाओं से लेकर वंचितों-शोषितों की सेवा में मन-प्राण लगाए हैं। स्वाभाविक है कि अपने मातृ संगठन की प्रेरणा से इस कोरोना-काल में भाजपा के हजारों-लाखों कार्यकर्त्ताओं ने भी अपनी जान की परवाह न करते हुए दुःखियों-पीड़ितों-प्रवासियों की निःस्वार्थ सेवा की है। और प्रधानमंत्री ने सेवा के लिए अपने दल के लाखों-करोड़ों कार्यकर्त्ताओं को पल-पल प्रेरित-उत्साहित किया है।
एक आँकड़े के अनुसार लॉकडाउन के दौरान भाजपा कार्यकर्त्ताओं ने लगभग 22 करोड़ से अधिक फूड पैकेट्स एवं 5 करोड़ से अधिक राशन किट्स का वितरण किया। इसके अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं ने 5 करोड़ से अधिक फेसकवर्स भी जरूरतमंदों तक पहुँचाए।
और 17 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी जब अपने जीवन के 70 वर्ष पूरा करने जा रहे हैं तो भाजपा ने इसे सेवा-सप्ताह के रूप में मनाने का निर्णय किया है जो निश्चय ही इस कोरोना-काल में एक सराहनीय क़दम है। पार्टी की योजना इसके अंतर्गत वृक्षारोपण, ब्लड डोनेशन एवं स्वच्छता-कार्यक्रम आयोजित करने की है। इसके अंतर्गत पार्टी हर जिले में 70 जगहों पर सेवा-कार्य संपन्न करेगी।
उल्लेखनीय है कि कोई भी दल केवल औपचारिक कार्यक्रमों के ज़रिए जनता के हृदय में स्थायी स्थान नहीं बना सकता, उसे सचमुच ज़मीन पर काम करना होगा और लोगों का, गाँव-ग़रीब-किसान का दिल जीतना होगा। आपदाओं और विपदाओं के इस संक्रमण-काल में सभी राजनीतिक दल सेवा को सत्ता तक पहुँचने या सत्ता में बने रहने का माध्यम बनाएँ तो सचमुच भारत की राजनीति में यह एक सुधारात्मक एवं सकारात्मक बदलाव सिद्ध होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)