‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ शीर्षक पढ़कर किसी को भी लग सकता है कि यह किताब मार्क्सवाद की आलोचना में लिखी गयी है। किंतु मुझे ऐसा लगा कि यह किताब किसी की आलोचना से ज्यादा उसके वास्तविक चेहरे से साक्षात्कार कराती है। निस्संदेह मार्क्सवाद की विचारधारा अपने आप में अनेक विडंबनाओं से घिरी हुई है। इस विचारधारा के कथ्य और तथ्य के बीच सत्य की कसौटी पर भारी अंतर है।
कुछ विषय, कुछ लेख, कुछ कथाएं तथा कुछ किताबें सिर्फ इसलिए नहीं लिखी जातीं क्योंकि उनका उद्देश्य किसी को बेनकाब करना होता है। वे इसलिए भी लिखी जाती हैं कि उन्हें पढ़कर सत्य का करीब से परीक्षण किया जा सके अथवा सत्य-असत्य के भेद को समझा जा सके। पिछले दिनों मुझे पत्रकार अनंत विजय की लिखी एक किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ पढ़ने का अवसर मिला। कहा जाता है कि किताब के आवरण से उसके कथानक का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए।
‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ शीर्षक पढ़कर किसी को भी लग सकता है कि यह किताब मार्क्सवाद की आलोचना में लिखी गयी है। किंतु मुझे ऐसा लगा कि यह किताब किसी की आलोचना से ज्यादा उसके वास्तविक चेहरे से साक्षात्कार कराती है। निस्संदेह मार्क्सवाद की विचारधारा अपने आप में अनेक विडंबनाओं से घिरी हुई है। इस विचारधारा के कथ्य और तथ्य के बीच सत्य की कसौटी पर भारी अंतर है।
मार्क्सवाद का वैचारिक समर्थन करने वाले लोग हर छोटी-बड़ी बहस में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का झंडा बुलंद करने के अभ्यस्त रहे हैं। किंतु यह विडंबना नहीं तो क्या है कि वे कई ऐसे मौकों पर मौन साध लेते हैं जब सच में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के प्रश्न समाज के लिए जरुरी होते हैं। मार्क्सवाद के अर्धसत्य में यह प्रश्न खड़ा होता है ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की बात करने वाले मार्क्सवादियों को कहीं ‘अभिव्यक्ति के माध्यम से आजादी’ तो नहीं चाहिए ?
यह प्रश्न इसलिए भी है, क्योंकि भारत के मूल दर्शन में सहमत-असहमत सबको स्वीकारने की परंपरा है। यहाँ ईश्वरवादी भी उतने ही स्वीकार्य रहे हैं, जितने अनीश्वरवादी। चार्वाक इसके बड़े उदाहरण हैं। लेकिन उन देशों का सत्य क्या है जहां मार्क्सवादी विचारधारा का सत्ता में एकमेव वर्चस्व है ? जहां मार्क्सवाद सत्ता में है, वहां लोकतंत्र और चुनाव नहीं है। जहां मार्क्सवाद का राजनीतिक वर्चस्व है, वहां सत्ता को जनमत के दबाव की चुनौती नहीं है। कहना गलत नहीं होगा कि मार्क्सवाद वहीं है, जहां दूसरे के लिए जगह नहीं है। ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’- अर्थात जहां हम हैं वहां दूसरा कोई नहीं हो।
पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे एक महत्वपूर्ण संदर्भ मिला जिसमें लेखक कहते हैं, ‘समानता के अधिकार को हासिल करने के लिए व्यक्तिगत आजादी को सूली पर टांग दिया जाता है।’ यह संदर्भ इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे मार्क्सवाद के सिद्धांतों के आदर्शलोक और समाज जीवन की व्यावहारिकता के बीच की खाई को समझने में मार्क्सवाद की दृष्टि असफल नजर आती है।
दुनिया के तमाम देश जहां मार्क्सवाद सत्ता के वर्चस्व में रहा है, वहां वैयक्तिक आजादी के हनन का एक विद्रूप इतिहास हम सबने देखा और पढ़ा है। यह मार्क्सवाद की आलोचना नहीं बल्कि उसकी वैचारिक दृष्टि का कटु सत्य है। असहमति के स्वरों पर प्रतिबन्ध से आगे बढ़कर उनका क्रूरता से दमन तक का इतिहास उन देशों में मिलता है। चयन के विकल्प, असहमति पर चर्चा, पुस्तकों का निर्बाध प्रकाशन, मीडिया की स्वतंत्रता तथा संस्थानों की स्वायत्ता के विषय उन देशों में न के बराबर होते हैं। यह मार्क्सवाद का वह सत्य है, जिसपर मार्क्सवादी चर्चा करने से कतराते हैं।
सवाल है कि आखिर यह सब क्यों ? इसका सीधा उत्तर है- राजसत्ता की प्राप्ति की अभिलाषा। मार्क्सवादी विचारों में गरीब सत्ता प्राप्ति का साधन है। उनकी दृष्टि ‘रजस’ उन्मुख है, न कि कल्याणकारी। यही वजह है कि चालीस साल सत्ता में रहने के बावजूद वे बंगाल में गरीबी को समाप्त नहीं कर पाए। मार्क्सवादियों ने समानता पर जोर देते समय स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना को दरकिनार किया। जबकि इन तीनों के बीच संतुलन के साथ चलना मानव समाज के लिए जरूरी भी है और व्यावहारिक भी।
भारत में मार्क्सवाद की जनता के बीच स्वीकार्यता बरकरार न हो पाने की बड़ी वजह यही है कि उन्होंने ‘समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समतामूलक दृष्टि’ के बीच संतुलन की अनदेखी की। भारत न तो इसे राजनीतिक रूप से स्वीकार कर सका और न ही समाज में ही इसकी स्वीकार्यता बन पाई। भारत की दृष्टि संतुलन और समन्वय की दृष्टि है।
मार्क्सवाद की एक बुराई यह भी है कि उसने अपने नायकों की कमजोरियों को स्वीकार नहीं किया। इससे यह पता चलता है कि मार्क्सवादी अपने नायकों की कमजोरियों को बताने में असहज और असुविधा महसूस करते हैं। भारत की दृष्टि इससे इतर रही है। भारत के विद्वानों ने अपने नायकों की अच्छाइयों को भी स्वीकार किया है तथा बुराइयों को भी माना है। अर्थात सत्य से साक्षात्कार करने की शक्ति भारतीय विचारों को आयातित मार्क्सवाद से अलग तथा अधिक मजबूत बनाती है।
यही कारण है कि जब हमारे आसपास समाज में कुछ घटनाएँ घटित होती हैं, तो कई बार मार्क्सवादी विचारकों द्वारा उसमें से अर्धसत्य को निकालकर एक ख़ास वैचारिक आवरण ओढ़ाने का प्रयास किया जाता है। बेशक उसका सत्य से कोई लेना-देना न हो, किंतु ऐसा करना, कुछ ख़ास विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के अभ्यास में शामिल हो चुका है। इससे वे सत्य को छिपाने का प्रयास करते हैं।
भारत के मार्क्सवादियों में यह बुराई अधिक है। इसका नुकसान उन्हें यह होता है कि क्षणिक वातावरण में तो वे स्वयं को विजयी महसूस कर लेते हैं, किंतु सत्य सामने आते ही उनका खोखलापन उजागर हो जाता है। यही कारण है कि देश में लंबे समय तक कोई मार्क्सवादी आन्दोलन न तो टिका है और न ही जनता के बीच स्वीकार किया गया है।
कई बार लगता है कि भारत में मार्क्सवाद का ठहराव इसलिए भी हुआ है क्योंकि वे द्वन्द की भावना से निकल ही नहीं पाए। इस द्वन्द ने उन्हें उनके सीमित दायरे में बांधे रखा है, जिसकी जकड़न को तोड़ने का प्रयास मार्क्सवादियों ने कभी किया नहीं है।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव एवं राज्यसभा के सांसद हैं।)