साहित्य में एक ख़ास विचारधारा का अनुकरण व स्थापन करने वाले कुछ कविजन जब अटल जी की कविताओं को हल्का कहते हैं, तो उनकी सोच की संकीर्णता पर तरस ही आता है। अटल जी की कविताओं को वही खारिज करेगा जिसमें भारत और भारतीयता के भावों के प्रति समझ और लगाव का अभाव हो, अन्यथा भारतीयता से पुष्ट कोई भी ह्रदय इन कविताओं पर मुग्ध और भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता।
देश का बहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस एक ऐसी तारीख के रूप में इतिहास में दर्ज हो चुका है, जिसके अगले ही दिन राजनीतिक जीवन में नैतिक निष्ठा और वैचारिक शालीनता के पर्याय, समावेशी राजनीति के अग्रदूत, जनप्रिय नेता, प्रखर वक्ता, काल के कपाल पर जीवन के गीत लिखने वाले मूर्धन्य कवि और देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 93 वर्ष की अवस्था में मृत्यु की महानिद्रा में सदा-सदा के लिए सो गए।
राजनेता, पत्रकार, वक्ता आदि अटल जी के व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं, परन्तु इन सबसे पूर्व वे एक कवि थे। कविता के संस्कार उन्हें विरासत में मिले थे। पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी अपने जमाने और इलाके के ख्यातिप्राप्त कवि थे। बड़े भाई अवध बिहारी वाजपेयी भी पिता के प्रभाव में आकर कविता करने लगे थे, फिर छोटे अटल पर इस कवितामय वातावरण का प्रभाव क्योंकर न पड़ता!
छोटी-मोटी तुकबन्दियाँ करते-करते किशोरवय अटल ने आखिर एक दिन अपनी पहली कविता लिख डाली जिसका विषय था – ताजमहल। ताजमहल का नाम सुनकर यह विचार स्वाभाविक रूप से आ सकता है कि कविता में उसकी सुन्दरता का बखान होगा और कम से कम जिस उम्र में अटल जी ने यह कविता लिखी थी, तब ऐसा होना भी कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन इस कविता में ‘ताजमहल’ की निर्माण-प्रक्रिया में हुए शोषण की ऐतिहासिक कथा को स्वर दिया गया था।
अटल जी के कविता संग्रहों ‘मेरी इक्यावन कविताएँ’, ‘न दैन्यं न पलायनम’ आदि में तो यह कविता नहीं मिलती, लेकिन भाजपा नेता प्रभात झा की पुस्तक ‘हमारे अटलजी’ में अटल जी के हवाले से ही इसके कुछ अंश अवश्य प्राप्त होते हैं। कुछ पंक्तियाँ देखें, ‘यह ताजमहल यह ताजमहल/ यमुना की रोती धार विकल/ जब रोया हिंदुस्तान सकल/ तब बन पाया यह ताजमहल’ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि इस कविता के वक्त किशोर अटल बिहारी में कवि का करुणामय ह्रदय और संवेदना की सूक्ष्म दृष्टि विद्यमान थी, जिसके कारण उनका ध्यान ताजमहल के सहज आकर्षित करने वाले सौन्दर्य की बजाय उसके शोषणपूर्ण इतिहास की तरफ गया तथा यमुना को उस शोषण का साक्षी मानकर उन्होंने ‘यमुना की रोती धार विकल’ जैसी गहरी पंक्ति लिखी।
ऐसे में कह सकते हैं कि अटल जी के काव्योन्मुख होने में पारिवारिक काव्यमय वातावरण की तो भूमिका थी ही, परन्तु इसमें उनके करुणा और संवेदना से भरे ह्रदय का प्रमुख योगदान था। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘कविता एकांत चाहती है, लेकिन प्रतिदिन भाषण देने की जो मजबूरी है, वो कविता को घुमड़ने नहीं देती…’ इस बात से समझा जा सकता है कि अटल जी सिर्फ वातावरण के प्रभाव से पैदा हुए शौकिया कवि नहीं थे जो अन्य सभी कामों से अवकाश मिलने पर अपना शौक पूरा करता रहे; वे स्वभाव से कवि थे।
स्वराघातों के साथ रुक-रुक कर बोलने का प्रभावशाली ढंग उनमें अनायास नहीं था, बल्कि ये उनके अंतर में रचे-बसे एक कवि की वैयक्तिक अभिव्यक्ति थी। हालांकि उन्हें कविता के लिए जिस एकांत की कामना थी, वो राजनीतिक सक्रियताओं के बढ़ते जाने के कारण मिला नहीं। इसीलिए तो वे अक्सर कहा करते थे, ‘राजनीति के रेगिस्तान में आकर मेरी कविता की धारा सूख गयी है’।
अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं में पारम्परिकता और आधुनिकता दोनों के रंग दिखाई देते हैं, परन्तु रंग कोई भी हो उसके मूल में भारतीयता का भाव विद्यमान रहा है। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय छंदों से लेकर आधुनिक मुक्तछंद और छंदमुक्त तक हर प्रकार की रचनाएं लिखी हैं। आपातकाल के दौरान जब वे जेल में बंद थे, तब ‘कैदी कविराय’ के नाम से कुण्डलिया लिखा करते थे। बाद में कुण्डलिया के लिए यह उनका तखल्लुस ही बन गया।
अटल जी की कुण्डलियों की धार कितनी तेज होती थी, इसका अंदाजा इस एक कुण्डलिया से लगाया जा सकता है जो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ द्वारा ‘इंदिरा इज इंडिया’ कथन के बाद लिखी थी। उन्होंने लिखा, ‘इंदिरा इंडिया एक है, इति बरुआ महाराज/ अकल घास चरने गई, चमचों के सरताज/ चमचों के सरताज, किया अपमानित भारत/ एक मृत्यु के लिए कलंकित भूत भविष्यत्/ कह कैदी कविराय, स्वर्ग से जो महान है/ कौन भला उस भारतमाता के समान है’। इस कुण्डलिया में हम देख सकते हैं कि अटल जी ने इस छंद के पारंपरिक शिल्प विधानों का भी बराबर ध्यान रखा है, जिससे इसकी स्वाभाविक लय में कहीं अवरोध नहीं नजर आता। लेकिन उन्होंने इसके एक नियम कि जिस शब्द से ये शुरू होती है उसीसे इसका अंत भी होता है, की उपेक्षा भी की है।
विचार करें तो कुण्डलिया का यह नियम उसकी रचनागत कठिनाइयों में अनावश्यक वृद्धि करने और भावाभिव्यक्ति को कठिन बनाने के अलावा और कुछ नहीं करता है; इससे छंद के सौन्दर्य में कोई विशेष वृद्धि नहीं होती है, ऐसे में इसकी उपेक्षा उचित भी है। इस नियम की अनदेखी के द्वारा उन्होंने यह भी जाहिर किया है कि परम्परा का पालन तो उचित है, परन्तु उसको पकड़कर बैठ जाना ठीक नहीं।
आओ फिर से दीया जलाएं, गीत नया गाता हूँ, हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन, मौत से ठन गयी जैसी अनेक कविताएँ अटल जी ने लिखी हैं, जो शास्त्रीय छंद-विधान से तो मुक्त हैं, परन्तु तत्सम हिंदी के प्रवाहपूर्ण शब्द-संयोजन से पुष्ट होकर अपनी एक स्वतंत्र और प्रभावी लय का निर्माण व निर्वाह करती हैं।
‘गागर में सागर’ भरने का कौशल भी अटल जी की कविताओं में प्रभावी ढंग से मौजूद है। इस सम्बन्ध में उनकी एक लघु कविता ‘कौरव और पांडव’ उल्लेखनीय होगी जिसमें वे लिखते हैं, ‘…बिना कृष्ण के, आज महाभारत होना है/ कोई राजा बने, रंक को तो रोना है’। क्या इन पंक्तियों के बाद निरर्थक वैश्विक युद्धों से लेकर छोटे-छोटे गृहयुद्धों तथा राजनीतिक घमासानों के विद्रूपकारी स्वरूप के विषय में कुछ कहने को बाकी रह जाता है?
अटल जी को मनाली से ख़ासा लगाव था और अक्सर वहाँ समय बिताने जाया करते थे। बताया जाता है कि एकबार मनाली जाते हुए अव्यवस्था के कारण उन्हें यात्रा में कुछ परेशानी हुई तो इसपर उन्होंने कविता लिखी – मनाली मत जइयो गोरी, राजा के राज में। इस कविता की लय लोकगीतों के निकट और बड़ी मधुर है। लोकगीतों से परिचित लोग इसकी लय को पकड़कर इसे सस्वर गा सकते हैं। अटल जी के काव्य के उपर्युक्त छंद, लय, भाषा, विषय आदि सब पक्षों पर दृष्टिपात करने पर वे अपनी मौलिकता के बावजूद निराला के बाद रिक्त पड़ी उनकी परम्परा के निकटस्थ कवि प्रतीत होते हैं।
अटल जी की काव्य-रचना का सागर इतना विस्तृत और गहरा है कि उसे समेटने में एक पुस्तक भी कम पड़ सकती है, परन्तु एक पंक्ति में कहें तो उनकी कविताओं का मूल भाव भारतीयता थी। भारत और भारतीयता का कण-कण तथा क्षण-क्षण उनकी कविताओं का विषय बन जाता था।
साहित्य में एक ख़ास विचारधारा का अनुकरण व स्थापन करने वाले कुछ कविजन जब अटल जी की कविताओं को हल्का कहते हैं, तो उनकी सोच की संकीर्णता पर तरस ही आता है। अटल जी की कविताओं को वही खारिज करेगा जिसमें भारत और भारतीयता के भावों के प्रति समझ और लगाव का अभाव हो, अन्यथा भारतीयता से पुष्ट कोई भी ह्रदय इन कविताओं पर मुग्ध और भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)