बिहार चुनाव ने सिद्ध किया कि देशहित की राजनीति को ही मिलेगा जनसमर्थन

मोदी की लोकप्रियता बिहार में एनडीए को विजयी बना लाई। उससे छिटकने वाली लोजपा 135 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल 01 सीट पर सिमट कर रह गई। इससे स्पष्ट है कि भारतीय समाज की समग्रता, एकता और अखंडता को बल प्रदान करने की राजनीतिक दृष्टि ही भविष्य के भारत में स्वीकृत होगी। निजी लाभ-लोभ और सत्ता पर अधिकार करने के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के नए विवाद उत्पन्न करके वोट-बैंक बनाने वाली कूटनीतियां धीरे-धीरे हाशिए पर जाती दिख रही हैं।

बिहार चुनाव के परिणामों ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि देश की राजनीति राजनेताओं के वोट कबाड़ने वाले हथकंडों से उबरने का प्रयत्न कर रही है। यादव-मुस्लिम समीकरण, दलित-सवर्ण आकलन, दलों के गठजोड़ आदि फार्मूले भविष्य में सफल होने वाले नहीं हैं। जनता जनार्दन की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की अनदेखी करने वालों को भी अब जनसमर्थन मिलना कठिन है। 

चुनाव के समय किए जाने वाले लोकलुभावन झूठे वादे भी अब काम आने वाले नहीं हैं। आधारहीन आरोपों-आक्षेपों के प्रायोजित भ्रम, दलीय दलदल में धंसे अन्ध समर्थकों से तो तालियां बटोर सकते हैं किंतु जनता के मन में बेईमानों-भ्रष्टों की ईमानदारी के प्रति विश्वास नहीं जगा सकते। प्रचार माध्यमों के प्रसार के कारण अब देश के सामाजिक-राजनीतिक शुभ-अशुभ का संपूर्ण चित्र पटल पर हैं, सहज दृष्टव्य है। 

साभार : DNA India

जनता से सच छिपाया नहीं जा सकता, उसे बहकाया नहीं जा सकता। ऐसे दुष्प्रयत्न करके केवल अपनी ही छवि बिगाड़ी जा सकती है। कांग्रेस का गिरता ग्राफ इस स्थिति का साक्षी है। कोरोना के संकटकाल में बिहार विधानसभा के पक्ष-विपक्ष की जो भूमिका बिहार की जनता ने देखी और अनुभव की उसी के अनुरूप परिणाम देकर उसने अपनी जागरूकता प्रमाणित की है। 

मध्यप्रदेश में भी विधानसभा की 28 सीटों के लिए हुए निर्वाचन में यही तथ्य रेखांकनीय है। समूचे मध्यप्रदेश के संसाधनों का अधिकतम समेटकर छिंदवाड़ा ले जाना, स्थानांतरण उद्योग का नवीनीकरण कर निरंतर पैसा कमाना और अपने-अपने पुत्रों की राजनीतिक ताजपोशी के फेर में पहले से प्रतिष्ठित युवा नेतृत्व को पार्टी छोड़ने की सीमा तक उपेक्षित करना कांग्रेस के तथाकथित दिग्गज नेताओं को भारी पड़ गया।

2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की जीत में यूपीए की घोर असफलता कारण बनी थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी बहुमत से वापसी उसकी देशहितकारी कार्यशैली के कारण हुई। 

आंतरिक विकास, सीमाओं की सुरक्षा, आतंक पर लगाम और पड़ोसी देशों के साथ यथोचित व्यवहार ने प्रधानमंत्री मोदी को इतना लोकप्रिय बना दिया कि चैकीदार चोर हैजैसे नारे सिरे से अस्वीकृत हो गए। नोटबंदी के कारण हुए कष्ट को भी जनता ने देशहित में आवश्यक समझकर सहज भाव से सह लिया। 

विपक्षी दलों में प्रमुख कांग्रेसी नेतृत्व वाली यूपीए सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा, चीनी घुसपैठ, कोरोना वायरस आदि बिंदुओं पर सरकार के विरुद्ध जितना अधिक दुष्प्रचार करती है उतनी ही कमजोर पड़ रही है क्योंकि प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक प्रचार माध्यमों के कारण सरकार की नीतियों-रीतियों का सच जनता के सामने उपस्थित है। 

मोदी की लोकप्रियता बिहार में एनडीए को विजयी बना लाई। उससे छिटकने वाली लोजपा 135 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल 01 सीट पर सिमट कर रह गई। इससे स्पष्ट है कि भारतीय समाज की समग्रता, एकता और अखंडता को बल प्रदान करने की राजनीतिक दृष्टि ही भविष्य के भारत में स्वीकृत होगी। निजी लाभ-लोभ और सत्ता पर अधिकार करने के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के नए विवाद उत्पन्न करके वोट-बैंक बनाने वाली कूटनीतियां धीरे-धीरे हाशिए पर जाती दिख रही हैं।

राष्ट्रीय-हितों को सर्वाेपरि मानकर कठोर निर्णय लेने का साहस दिखाकर भाजपाई नेतृत्व वाली एनडीए देश में निरंतर लोकप्रियता अर्जित कर रही है। यह उसके लिए और देश के लिए शुभ संकेत है फिर भी अभी एनडीए के लिए आत्ममुग्ध होने का समय नहीं है क्योंकि अभी भी राष्ट्रीय-हित के विचार को दरकिनार कर देश की सत्ता का उपभोग निजी स्वार्थों के लिए करने वाली शक्तियां कमजोर नहीं पड़ी हैं।

बिहार विधानसभा में नई सरकार के लिए सामने आने वाले पक्ष-विपक्ष के मध्य केवल कुछ सीटों का ही अंतर है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता संतुलन की दृष्टि से तो यह सर्वथा उचित है किंतु सरकार की जनहितकारी योजनाओं में निजी हितों के लिए विपक्ष द्वारा व्यवधान उत्पन्न करने की दृष्टि से चिंतनीय भी है।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि यदि हमारी लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष अधिक सशक्त होता तो देश को खंडित करने वाली दुरभिलाषाओं की आधार भूमि धारा 370 का विलोपन कभी संभव नहीं हो पाता। अखंड, सशक्त और सुरक्षित भारत के लिए पक्ष-विपक्ष की एकजुटता भी आवश्यक है। 

इस आवश्यकता को पहचान कर हम सबका साथ और सबका विकासके लिए ईमानदारी से सेवाभावी राजनीति करें, सत्तापक्ष देश-कल्याण के लिए नीतियां बनाएं और विपक्ष अपने दलगत हितों के लिए उनका विरोध करना बंद करें। इसी में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का शुभ भविष्य संभव है। 

यदि राष्ट्रहित में हमारे नेतृत्व ने कठोर निर्णय भी लिए तो देश उनका स्वागत करेगा। भारतीय राजनीति की यथार्थवादी निभ्र्रांत दृष्टि ही भविष्य के भारत का स्वर्णपथ प्रशस्त करेगी। अब काल्पनिक मान्यताओं  और थोथे आदर्शों के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है।

(लेखक शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, होशंगाबाद, म.प्र. में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)