आज बाबा साहेब के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने बाबा साहेब का कितना सम्मान किया है, इसका इतिहास बहुत बड़ा है। अधिक न कहते हुए, बाबा साहेब की ही इस लेखनी का मैं उल्लेख करूँगा, जिसमें उन्होंने लिखा है, “मुझे कैबिनेट की किसी कमिटी में नहीं रखा गया, न ही विदेश मामलों की कमेटी में, न ही रक्षा कमेटी में, जब आर्थिक मामलों की कमेटी बन रही थी, तो मुझे लगा कि मुझे शामिल किया जाएगा, लेकिन वहां भी मुझे जगह नहीं दी गई।” इसके बाद कहने-सुनने और समझने को क्या रह जाता है।
देश में जब भी बड़े चुनाव होने को होते हैं, तो दलित विमर्श का मुद्दा ज़ोरों-शोरों से उठाया जाने लगता है। कुछ राजनीतिक पार्टियों में ये बताने की होड़ मच जाती है कि वही दलितों की सबसे बड़ी हितैषी हैं और फिर चुनाव के बाद दलित भुला दिए जाते हैं। याद रखा जाना चाहिए कि देश एक दिन में नहीं बनता, देश का इतिहास भी एक दिन में सृजित नहीं होता। दलितों की बात राजनीतिक फायदे के लिए करना एक बात है और दलितों के हितों के लिए वास्तव में काम करना, दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं।
एक वक़्त था, जब बाबा साहेब आंबेडकर को नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा। जब 1972 में आंबेडकर स्मारक का विचार आया, कांग्रेस सरकार ने इस प्रोजेक्ट की फाइलें ही दबा दीं। आज मोदी सरकार में वो स्मारक कार्य पूरा हो गया है। सन्दर्भ को और आगे बढ़ाते हैं, कांग्रेस को आज अगर आंबेडकर का इतना ज्यादा ख्याल है, तो उसे इतिहास में दबे इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए कि नेहरू ने उन्हें लोकसभा में जाने से एक बार नहीं, दो-दो बार क्यों रोका था ?
कांग्रेस ने 1952 के आम चुनाव और 1953 के उपचुनाव में आंबेडकर के खिलाफ न सिर्फ अपना उम्मीदवार उतारा, बल्कि उन्हें हराने के लिए नेहरू ने खुलकर प्रचार भी किया। आज नेहरू होते तो शायद उनसे यह सवाल पुछा जा सकता था, लेकिन, कांग्रेस को यही सलाह देना ठीक रहेगा कि भाजपा को दलित विरोधी और खुद को आंबेडकर का अनुयायी कहने से पूर्व वह इतिहास ज़रूर पढ़ ले। जब बाबा साहेब 1952 में लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे, तो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का क्या रुख था, यह भी चर्चा का विषय है।
इतना ही नहीं, बाबा साहेब के प्रति अगर कांग्रेस का तिरस्कार भाव नहीं होता, तो 1956 में जब नेहरू खुद को भारत-रत्न दे रहे थे, तो उन्हें आंबेडकर की याद आती। 1971 में बेटी इंदिरा ने भी खुद को भारत रत्न दिया, लेकिन उस समय भी बाबा साहेब याद आते। 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, लेकिन उन्हें भी आंबेडकर याद नहीं आए।
देश के संविधान निर्माता के प्रति कांग्रेस की यह उपेक्षित दृष्टि क्यों रही ? उनका ऐसा तिरस्कार क्यों किया गया ? यह महज आरोप नहीं, इतिहास और राजनीति की किताबों में भी दर्ज है। यह तो महज संयोग ही था कि 1989 में एक गैर-कांग्रेसी सरकार आई, तो आंबेडकर को भारत रत्न दिया गया। आज आंबेडकर के लिए मोदी जो कर रहे हैं, वह काम आज से 40-50 साल पहले तबकी सरकारों को करना चाहिए था।
यह जानकर कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि सालों तक बाबा साहेब की तस्वीर संसद भवन की गैलरी में नहीं लग सकी, कांग्रेस कहती रही कि तस्वीर लगाने के लिए जगह नहीं है। वाकई तस्वीर लगाने के लिए पहले तो दिल में जगह बनानी पड़ेगी, फिर दीवार पर तो बन ही जाएगी। नेहरू की कैबिनेट में बाबा साहिब को कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नहीं दी गई थी।
आज बाबा साहेब के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने बाबा साहेब का कितना सम्मान किया है, इसका इतिहास बहुत बड़ा है। अधिक न कहते हुए, बाबा साहेब की ही इस लेखनी के साथ मैं अपनी बात समाप्त करूँगा, जिसमें उन्होंने लिखा है, “मुझे कैबिनेट की किसी कमेटी में नहीं रखा गया, न ही विदेश मामलों की कमेटी में, न ही रक्षा कमेटी में, जब आर्थिक मामलों की कमेटी बन रही थी, तो मुझे लगा कि मुझे शामिल किया जाएगा, लेकिन वहां भी मुझे जगह नहीं दी गई।” इसके बाद कहने-सुनने और समझने को क्या रह जाता है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)