वास्तव में भारतीय संस्कृति के मूल में ही प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना निहित रही है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नदियों, वृक्षों, पर्वतों आदि का मानवीकरण करते हुए उनमें जीवन की प्रतिष्ठा की गयी है। नदियों को माता कहने से लेकर पेड़ और पहाड़ का पूजन करने की भारतीय परंपराओं को पूर्वाग्रहवश कोई अन्धविश्वास भले कहे, परन्तु ये परम्पराएं हमारी संस्कृति के प्रकृति-प्रेमी चरित्र की ही सूचक हैं।
भारत पर्वों का देश है। यहाँ एक पर्व बीतता नहीं कि अगला हाजिर हो जाता है। भारतीय पर्वों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे किसी न किसी आस्था से प्रेरित होते हैं। अधिकाधिक पर्व अपने साथ किसी न किसी व्रत अथवा पूजा का संयोजन किए हुए हैं। ऐसे ही पर्वों की कड़ी में पूर्वी भारत में सुप्रसिद्ध छठ पूजा का नाम भी प्रमुख रूप से आता है। लोकमान्यता के अनुसार इसकी आराध्य देवी छठ मईया हैं, वहीं देवता के रूप में इस पर्व में सूर्य की प्रतिष्ठा है। बहरहाल, चाहें जिन देवी-देवताओं की आराधना को माध्यम बनाए, परन्तु वास्तव में यह पर्व अपने मूल रूप में प्रकृति-पूजन व संरक्षण की वैज्ञानिक और लोकमंगलकारी दृष्टि का ही संवहन करता है।
विचार करें तो इस अखिल ब्रह्माण्ड में जहां सूर्य स्वयं प्रकृति का एक अंग हैं, वहीं इस धरती पर अवस्थित प्राकृतिक संपदाओं के पोषक पिता भी हैं। सूर्य की उपासना ही वह बिंदु है जहां से छठ पर्व का प्रकृति से जुड़ाव स्थापित हो जाता है। इस पर्व के विविध पक्षों में प्रकृति के महत्व और उपयोगिता का संदेश विद्यमान है। प्रसाद से लेकर इसके पूजा-विधान तक सबकुछ प्रकृतिमय ही होता है।
छठ के प्रसाद के रूप में लगभग सभी प्रमुख फल प्रयुक्त होते हैं। सुथनी, शरीफा, गागर जैसे कितने अल्प-प्रचलित फल तक इसमें चढ़ाए जाते हैं। गन्ना भी इसका एक आवश्यक प्रसाद होता है। ख़ास बात कि इस सब प्रसाद को चढ़ाने के लिए प्रयुक्त पात्र जैसे कि सूप, डलिया आदि भी बांस से बने होते हैं। इन सब चीजों के माध्यम से यह पर्व मनुष्य को प्रकृति से जोड़ने और प्रकृति से प्रेम करना सिखाने का प्रयत्न करता है। आज के दौर में जब लगातार कटते पेड़ों के कारण विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है और तेजी से पिघलते ग्लेशियरों के कारण धरती पर संकट बढ़ता जा रहा है, तब छठ से निकलते इस संदेश की प्रासंगिकता व महत्ता और भी बढ़ जाती है।
इसकी पूजा-पद्धति भी अन्य पूजाओं से हटकर है। छठ की पूजा मंदिर आदि की बजाय किसी नदी या पोखरे के किनारे प्रकृति की खुली गोद में बैठकर संपन्न होती है। जाहिर है, यह सामूहिकता का उत्सव होता है और ख़ास बात ये कि इस पूजा में समाज में व्याप्त ऊंच-नीच और बड़े-छोटे के सब भेदभाव मिट जाते हैं और प्रकृति की छाया में सभी मनुष्य एक समान धरातल पर खड़े नजर आते हैं। सामाजिक समानता की यह भावना छठ-पूजा को मानव कल्याण के धरातल पर बहुत ऊपर प्रतिष्ठित करती है।
उल्लेखनीय होगा कि जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाना छठ का सबसे जरूरी नियम है। वहीं जल की वर्तमान स्थिति को देखें तो आज मानव द्वारा अपने अबाध स्वार्थों की पूर्ती के लिए किए जा रहे अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन ने जल का संकट भी खड़ा कर दिया है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक पानी खत्म होने की कगार पर पहुँच जाने का अनुमान है। देश के कितने इलाकों में जब-तब पानी के लिए त्राहिमाम मची ही रहती है।
दरअसल समय के साथ हमने जल के महत्व को हल्के में लेते हुए उसके संचयन के तालाब आदि पारम्परिक उपायों की उपेक्षा की है, परिणामतः आज जल संकट इतना गंभीर रूप लेकर हमारे सामने है। ऐसे समय में जीवन में जल की महत्ता को रेखांकित करते हुए उसके प्रकृति निर्मित और मानव-निर्मित दोनों प्रकार के स्रोतों के संरक्षण व विकास पर ध्यान देने का संदेश छठ पर्व देता है।
इसके अलावा जल में खड़े होकर सूर्य की किरणों से पोषित हो उपजे अन्न और फल का प्रसाद उन्हें अर्घ्य रूप में अर्पित करने के पीछे शायद यही भाव है कि प्रकृति से सिर्फ लिया ही नहीं जाता, वरन उसको देने का संस्कार भी मनुष्य को सीखने की जरूरत है। केवल लेते रहने से एकदिन प्रकृति अपने हाथ समेट लेगी, तब मनुष्य के लिए कोई चारा नहीं बचेगा।
सामान्यतः लोग उदय सूर्य को उत्तम मानते हुए उसकी आराधना करते हैं। शायद इसीकी प्रेरणा से ‘उगते सूरज को दुनिया सलाम करती है’ जैसी कहावत भी समाज में प्रचलित है। लेकिन छठ पर्व इन बातों को चुनौती देता है। इसमें डूबते और उगते दोनों सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है। इसमें भी पहली अर्घ्य डूबते सूर्य को दी जाती है, जिसका संदेश साफ़ है कि जो आज डूब रहा है, उसकी अवहेलना न करिए, बल्कि सम्मान के साथ उसे विदा करिए क्योंकि कल को फिर वही जरा अलग रंग-ढंग के साथ पुनः उदित होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो छठ का ये अर्घ्य-विधान अतीत के सम्मान और भविष्य के स्वागत का संदेश देने की भावना से पुष्ट है।
छठ के गीतों की भी अपनी ही एक छटा होती है। धुन, लय, बोल आदि सभी मायनों में वे एक अनूठा और अत्यंत मुग्धकारी वैशिष्ट्य लिए चलते हैं। साथ ही, इस पर्व में निहित प्रकृति की प्रतिष्ठा का भाव भी छठ के गीतों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ‘कांच ही बांस के बहन्गियाँ’, ‘मरबो जे सुगवा धनुष से’, ‘केलवा के पात पर’, ‘पटना के घाट पर’ आदि इस पर्व के कुछ सुप्रसिद्ध गीत हैं, जिन्हें तमाम बड़े-छोटे गायकों द्वारा गाया भी जा चुका है। इन गीतों में प्राकृतिक तत्वों को पकड़कर बड़ा सुन्दर और संदेशप्रद अर्थ-विधान गढ़ा गया है।
वास्तव में भारतीय संस्कृति के मूल में ही प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना निहित रही है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नदियों, वृक्षों, पर्वतों आदि का मानवीकरण करते हुए उनमें जीवन की प्रतिष्ठा की गयी है। नदियों को माता कहने से लेकर पेड़ और पहाड़ का पूजन करने की भारतीय परंपराओं को पूर्वाग्रहवश कोई अन्धविश्वास भले कहे, परन्तु ये परम्पराएं हमारी संस्कृति के प्रकृति-प्रेमी चरित्र की ही सूचक हैं।
संभवतः हमारे पूर्वज भविष्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरादर के प्रति सशंकित थे, इसलिए उन्होंने इसको धर्म से जोड़ दिया ताकि लोग धार्मिक विधानों में बंधकर ही सही, प्रकृति का सम्मान व संरक्षण करते रहें। छठ से लेकर कुंभ जैसे पर्व हमारे पूर्वजों की इसी दृष्टि का परिणाम प्रतीत होते हैं और अपने निर्धारित उद्देश्यों को कमोबेश साधते भी आ रहे हैं। अतः कथित विकास के वेग में प्राकृतिक विनाश करता आज का आधुनिक मनुष्य छठ आदि पर्वों में निहित प्रकृति से प्रेम के संदेश को यदि सही प्रकार से समझ ले तो यह धरती सबकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अनंतकाल तक जीवनयोग्य रह सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)