पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता का अध्ययन करने से पहले हमें एक तथ्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ। वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को ‘प्रसिद्धि परांगमुख’ होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है। अपने संगठन के इस मंत्र को दीनदयालजी ने आजन्म गाँठ बांध लिया था।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीतिज्ञ, चिंतक और विचारक के साथ ही कुशल संचारक और पत्रकार भी थे। उनके पत्रकार-व्यक्तित्व पर उतना प्रकाश नहीं डाला गया है, जितना कि आदर्श पत्रकारिता में उनका योगदान है। उनको सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है।
उन्होंने देश में उस समय राष्ट्रीय पत्रकारिता की पौध रोपी थी, जब पत्रकारिता पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था। कम्युनिस्टों के प्रभाव के कारण भारतीय विचारधारा को संचार माध्यमों में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा था, बल्कि राष्ट्रीय विचार के प्रति नकारात्मकता वातावरण बनाने के प्रयत्न किये जा रहे थे।
देश को उस समय संचार माध्यमों में ऐसे सशक्त विकल्प की आवश्यकता थी, जो कांग्रेस और कम्युनिस्टों से इतर दूसरा पक्ष भी जनता को बता सके। पत्रकारिता की ऐसी धारा, जो पाश्चात्य नहीं अपितु भारतीयता पर आधारित हो। दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी दूरदर्शी सोच से पत्रकारिता में ऐसी ही भारतीय धारा का प्रवाह किया।
उन्होंने राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’, साप्ताहिक समाचारपत्र ‘पाञ्चजन्य’ (हिंदी), ‘ऑर्गेनाइजर’ (अंग्रेजी) और दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ प्रारंभ कराए। उन्होंने जब विधिवत पत्रकारिता (1947 में राष्ट्रधर्म के प्रकाशन से) प्रारंभ की, तब तक पत्रकारिता मिशन मानी जाती थी। पत्रकारिता राष्ट्रीय जागरण का माध्यम थी।
स्वतंत्रता संग्राम में अनेक राजनेताओं की भूमिका पत्रकार के नाते भी रहती थी। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, डॉ. भीमराव आंबेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक नाम हैं, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे और पत्रकार भी। ये महानुभाव समूचे देश में राष्ट्रबोध का जागरण करने के लिए पत्रकारिता का उपयोग करते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पत्रकारिता कुछ समय तक मिशन बनी रही, उसके पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व थे। जिनके लिए पत्रकारिता अर्थोपार्जन का जरिया नहीं, अपितु राष्ट्र जागरण का माध्यम थी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता का अध्ययन करने से पहले हमें एक तथ्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ।
वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को ‘प्रसिद्धि परांगमुख’ होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है।
अपने संगठन के इस मंत्र को दीनदयालजी ने आजन्म गाँठ बांध लिया था। इसलिए उन्होंने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित तो करायीं, लेकिन उनके ‘प्रधान संपादक’ कभी नहीं बने। जबकि वास्तविक संचालक, संपादक और आवश्यकता होने पर उनके कम्पोजिटर, मशीनमैन और सबकुछ दीनदयाल उपाध्याय ही थे। उन्होंने जुलाई-1947 में लखनऊ से ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर वैचारिक पत्रकारिता की नींव रखी और संपादक बनाया अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव लोचन अग्निहोत्री को।
राष्ट्रधर्म को सशक्त करने और लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने प्राय: उसके हर अंक में विचारोत्तेजक लेख लिखे। इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन भी दीनदयालजी स्वयं ही करते थे।
इसी प्रकार मकर संक्राति के पावन अवसर पर 14 जनवरी, 1948 को उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ प्रारंभ कराया। राष्ट्रीय विचारों के प्रहरी पाञ्चजन्य में भी उन्होंने संपादक का दायित्व नहीं संभाला। यह दायित्व उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा।
पाञ्चजन्य में भी दीनदयालजी ‘विचारवीथी’ स्तम्भ लिखते थे। जबकि अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ऑर्गेनाइजर में वह ‘पॉलिटिकल डायरी’ के नाम से स्तम्भ लिखते थे। इन स्तंभों में प्रकाशित सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दीनदयालजी की तत्कालीन घटनाओं एवं परिस्थितियों पर कितनी गहरी पकड़ थी। उनके लेखन में तत्कालीन परिस्थितियों पर बेबाक टिप्पणी के अलावा राष्ट्रजीवन की दिशा दिखाने वाला विचार भी समाविष्ट होता था।
दीनदयालजी ने समाचार पत्र-पत्रिकाएं ही प्रकाशित नहीं करायीं, बल्कि उनकी प्रेरणा से कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और आगे चलकर इस क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर बने। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, देवेंद्र स्वरूप, महेशचंद्र शर्मा, यादवराव देशमुख, राजीव लोचन अग्निहोत्री, वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चंद्र मिश्र आदि प्रमुख हैं। ये सब पत्रकारिता की उसी पगडंडी पर आगे बढ़े, जिसका निर्माण दीनदयाल उपाध्याय ने किया।
दीनदयालजी पत्रकारिता में आदर्शवाद के आग्रही थे। वे मानते थे कि एक संवाददाता या संपादक को अपने लेखन में शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। शब्दों का चयन करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। किसी मुद्दे पर विरोध होने पर लिखते समय पत्रकार को अनावश्यक उत्तेजना से बचना चाहिए। क्योंकि, अनावश्यक उत्तेजना हमारे लेखन को कमजोर और अप्रभावी बनाती है। पत्रकारिता के धर्म का निर्वहन करने के लिए अपनी भावनाओं पर काबू रखना अनिवार्य है।
लेखक और पत्रकार को हमेशा याद रखना चाहिए कि अंगुली सिर्फ चाकू से ही नहीं कटती, कभी-कभी कागज की कोर से भी कट जाती है। कागज और कलम के क्षेत्र काम करने वाले विद्वानों को चाकू की भाषा के बजाय तर्कों में धार देने पर ध्यान देना चाहिए।
दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में अहंकार और कटुता का समावेश अंश मात्र भी नहीं था। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकार ने दीनदयालजी को याद करते हुए लिखा था- ‘उनके हृदय के अंदर कोई कटुता नहीं थी। शब्दों में भी कटुता नहीं थी। बड़े प्रेम से बोला करते थे। कभी किसी पर जरा भी नाराज नहीं हुए। बहुत खराबी होने पर भी खराबी करने वाले के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया।’
पत्रकारिता में नैतिकता, शुचिता और उच्च आदर्शों के वे कितने बड़े हिमायती थे, इसका जिक्र करते हुए दीनदयालजी की पत्रकारिता पर आधारित पुस्तक के संपादक डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने लिखा है- संत फतेहसिंह के आमरण अनशन को लेकर पाञ्चजन्य में एक शीर्षक लगाया गया ‘अकालतख्त के काल’।
दीनदयालजी ने यह शीर्षक हटवा दिया और समझाया कि सार्वजनिक जीवन में इस प्रकार की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए, जिससे परस्पर कटुता बढ़े तथा आपसी सहयोग और साथ काम करने की संभावना ही समाप्त हो जाए।
अपनी बात को दृढ़ता से कहने का अर्थ कटुतापूर्वक कहना नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार का एक और उदाहरण है। जुलाई, 1953 के पाञ्चजन्य के अर्थ विशेषांक की संपादकीय में संपादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने अशोक मेहता की शासन के साथ सहयोग नीति की आलोचना करते हुए ‘मूर्खतापूर्ण’ शब्द का उपयोग किया था।
दीनदयालजी ने इस शब्द के उपयोग पर संपादक को समझाइश दी। उन्होंने लिखा- ‘मूर्खतापूर्ण शब्द के स्थान पर यदि किसी सौम्य शब्द का प्रयोग होता तो पाञ्चजन्य की प्रतिष्ठा के अनुकूल होता।’ इसी प्रकार चित्रों और व्यंग्य चित्रों के उपयोग में भी शालीनता का ध्यान रखने के वह आग्रही थे।
एक और प्रसंग उल्लेखनीय है। पाञ्चजन्य के संपादक यादवराव देशमुख ने तिब्बत और चीन के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की नीतियों से क्षुब्ध होकर पहला संपादकीय लिखा था। उन्होंने शीर्षक दिया था- ‘गजस्तत्र न हन्यते’।
इस संपादकीय को पढ़ने के बाद दीनदयालजी ने यादवराव देशमुख को कहा था- ‘भाई आपका अग्रलेख बहुत अच्छा रहा, लेकिन उसका शीर्षक तुमने शायद बहुत सोचकर नहीं लिखा है। पंडित नेहरू से हमारा वैचारिक मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि वे हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। उनकी आलोचना करते समय हल्के शब्दों का प्रयोग करना तो उचित नहीं होगा।’ कितनी महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही थी।
संपादक या पत्रकार होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि हमारे मन में जो आक्रोश है, उसे अपनी लेखनी के जरिए प्रकट किया जाए। देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखना ही चाहिए। आज की परिस्थितियों में हम देखें, तब क्या इस प्रकार की पत्रकारिता दिखाई देती है? हमारे समय के अनेक मूर्धन्य लेखक और पत्रकार वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जिस प्रकार के शब्द और वाक्य उपयोग करते हैं, उनसे तो यही प्रतीत होता है कि उनका अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं है।
दीनदयालजी की पत्रकारिता में जिस प्रकार की सौम्यता थी, वह अब दिखाई नहीं देती है। 1968 में तीन दिन से भी कम अवधि में हरियाणा, पश्चिम बंगाल और पंजाब की गैर-कांग्रेसी सरकारें गिरा दी गईं, तब ऑर्गेनाइजर में एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित हुआ। इस कार्टून में तत्कालीन गृहमंत्री चव्हाण लोकतंत्र के बैल को काटते हुए दर्शाये गए थे। उस समय केआर मलकानी ऑर्गेनाइजर के संपादक थे।
दीनदयालजी ने इस व्यंग्य चित्र के लिए उनको समझाया था कि चाहे व्यंग्य चित्र ही क्यों न हो, गो-हत्या का यह दृश्य मन को धक्का पहुंचाने वाला है। इस प्रकार के व्यंग्य चित्रों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। उनकी पत्रकारिता की शुचिता और नैतिकता का स्तर इतना ऊंचा था कि अपने विरोधी के प्रति भी असंसदीय और अमर्यादित शब्दों, फोटो या फिर व्यंग्य चित्रों के उपयोग को उपाध्यायजी सर्वथा अनुचित मानते थे।
यह माना जा सकता है कि यदि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राजनीति में नहीं भेजा जाता तो निश्चय ही उनका योगदान पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में और अधिक होता। पत्रकारिता के संबंध में उनके विचार अनुकरणीय है, यह स्पष्ट ही है। यदि उन्होंने पत्रकारिता को थोड़ा और अधिक समय दिया होता, तब वर्तमान पत्रकारिता का स्वरूप संभवत: कुछ और होता। पत्रकारिता में उन्होंने जो दिशा दिखाई है, उसका पालन किया जाना चाहिए।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)