दीनदयाल मानव की संपूर्णता को खंडित करने में पश्चिमी विचार की भूमिका को ठीक से रेखांकित करते हैं। पश्चिम में दो प्रमुख विचार उभरे एक पूंजीवाद एक मार्क्सवाद। दोनों ही विखंडन को ही प्राथमिकता देते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था जो व्यक्तिवाद का ही पोषक है, ने व्यक्ति और समाज के हितों को अलग अलग बताया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही सर्वोपरि माना। इस स्वतंत्रता के नाम पर तमाम ज्यादती की गई। वहीं मार्क्सवाद ने समाजिक समानता की बात तो की, लेकिन इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की परिधि संकुचित हुई।
आज दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि है। शुरुआत में ही यह भी जोड़ना उचित होगा कि दीनदयाल उपाध्याय को याद करने की एकमात्र वजह यह नहीं होनी चाहिए कि उनको मानने वाले लोग अभी सत्ता में हैं बल्कि इसलिए भी उनको याद करना जरूरी है कि समन्वयवाद की जो धारा हमेशा से भारतीय चिंतन के केंद्र में रही है, दीनदयाल भी उसी के पोषक हैं। आज दीनदयाल को याद करने की एक बड़ी वजह यह भी है कि वो कट्टरता के धुर विरोधी थे। किसी भी प्रकार से अतिवाद से दूर दीनदयाल एक संश्लेषित समाधान की बात करते हैं जिसका समुच्चय एकात्म मानववाद के रूप में उभरता है।
एकात्म मानववाद का साधारण सा भाव है कि मानव को अलग अलग खंडों में देखने की बजाय संपूर्णता में देखना। मानव अपने आप में एक संपूर्ण इकाई है और इसे इसी रूप में देखना चाहिए। जीवन और विचार के अलग अलग क्षेत्रों में एकात्म का यह विचार उभर कर आता है। यह एकात्मकता व्यक्ति – समाज, व्यक्ति-प्रकृति, भौतिकता-आध्यात्मिकता, परंपरा-नवीनता, स्वदेशी-विदेशी के परस्पर समन्वय का उद्घोषक है।
दीनदयाल मानव की संपूर्णता को खंडित करने में पश्चिमी विचार की भूमिका को ठीक से रेखांकित करते हैं। पश्चिम में दो प्रमुख विचार उभरे एक पूंजीवाद एक मार्क्सवाद। दोनों ही विखंडन को ही प्राथमिकता देते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था जो व्यक्तिवाद का ही पोषक है, ने व्यक्ति और समाज के हितों को अलग अलग बताया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही सर्वोपरि माना। इस स्वतंत्रता के नाम पर तमाम ज्यादती की गई। वहीं मार्क्सवाद ने समाजिक समानता की बात तो की, लेकिन इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की परिधि संकुचित हुई।
दीनदयाल इस विभाजन को ही गलत मानते हैं और कहते हैं कि व्यक्ति और समाज का सुख परस्पर विरोधी न होकर पूरक होता है। अर्थात् यदि व्यक्ति सुखी है तो समाज भी सुखी होगा तथा समाज सुखी होगा तो व्यक्ति भी। मानव समुदाय का ही एक हिस्सा है और सामुदायिक सुख में व्यक्ति का सुख निहित है। दीनदयाल ने इसी मार्ग पर चलने की राह दिखाई।
पश्चिमी विचार की विखंडनवादी प्रवृत्ति के दीनदयाल इस अर्थ में भी विरोधी थे कि वो या तो व्यक्ति को एक भौतिक इकाई मानता है या फिर आध्यात्मिक जबकि भारतीय संस्कार इसके ठीक विपरीत है। बुद्ध भारत में हुए क्योंकि उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य का मार्ग बताया यानी भौतिकता और आध्यात्मिकता का संश्लिष्ट रूप।
गांधी भी यही कहते हैं और अध्यात्म को मानव जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए भी उसके भौतिक स्वरूप की अवहेलना नहीं करते। दीनदयाल भी इसी धारा के चिंतक हैं। और यही भारतीय चिंतन धारा भी है। यहाँ जोर देकर इस बात को कहना चाहिए कि यदि अध्यात्म और भौतिकता के रूपक के सहारे धर्म और राजनीति के यथार्थ का वर्णन करें तो यह न तो धर्मविहीन राजनीति की बात करता है और न ही साम्प्रदायिक राजनीति की। दीनदयाल का यह सबक आज याद रखने लायक है।
पश्चिमी विचार के बरक्स दीनदयाल भारतीय विचार को अपनाने की बात करते हैं। सभ्यता के इस प्रश्न से पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधी भी जूझते रहे और कालांतर में दीनदयाल। दोनों में आधुनिकता का नकार है लेकिन कोई भी पुनरुत्थानवादी का दुस्साहसी नहीं। यानी जहाँ एकतरफ दोनों चिंतक पश्चिम के हर विचार को श्रेष्ठ मानते हुए हर भारतीय परंपरा को निम्नतर मानने की सभ्यताई दृष्टि को अनुचित मानते थे, वहीं हर परंपरा को ही श्रेष्ठ मानने की कूढ़मगजता को भी अस्वीकारते थे।
दीनदयाल जोर देकर कहते हैं कि समय की गति के विरुद्ध पीछे लौटना संभव नहीं है, इसलिए विचार दृष्टि आगे की ओर होनी चाहिए न कि संपूर्ण ऊर्जा अतीत के गौरव को स्थापित करने की विवशता में ही खर्च हो जाए। वर्तमान नई जरूरतों और नए विचारों से बनता है और उसमें सभ्यताई विकास की पृष्ठभूमि भी होती है। आज के समय में दीनदयाल कितने प्रासंगिक हो उठते हैं! खासकर अतीत में हर सुख खोजने वालों के लिए।
आज संपूर्ण विश्व तमाम तरह की पर्यावरणीय समस्याओं से घिरा हुआ है। कहीं ग्लेशियर के पिघलने से प्रलयकारी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं तो कहीं सूखा की विपदा छाई है। हर तरफ पर्यावरणीय असंतुलन है और इस विकट स्थिति को पूंजीवादी व्यवस्था विभिन्न उत्पादों के सहारे भुना रही है। इस विद्रूपता की पहचान दीनदयाल ने काफी पहले कर ली थी। उनका मानना था कि पश्चिमी विचार चाहे वो पूंजीवाद हो या मार्क्सवाद, दोनों जीव और प्रकृति के अलग अलग अस्तित्व की कल्पना करते हैं।
दोनों ही विचार जब मानव और प्रकृति को अलग-अलग इकाई मान लेता है तो किसी एक के लिए दूसरे की बलि से नहीं हिचकता। पूंजीवादी व्यवस्था ने संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर मानव उत्थान का झूठा महल खड़ा किया जिसकी भयावहता आज हम महसूस कर ही रहे हैं तो दूसरी तरफ मार्क्स ने भी प्रकृति को मानव समुदाय के उत्थान का एक साधन मात्र माना। जाहिर सी बात है कि यह विचार भी प्रकृति के विनाश में सहयोगकारी है।
दीनदयाल कहते हैं व्यक्ति का हित प्रकृति के हित के साथ ही जुड़ा है, इसलिए प्रकृति को नुकसान किसी भी सूरत में मानव के हित में नहीं हो सकता है। गांधी भी यही कहते हैं कि ‘पृथ्वी पर हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए सबकुछ है मगर लालच की पूर्ति के लिए कुछ भी नहीं है’।
(लेखक शोधार्थी हैं। स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)