दीन दयाल उपाध्याय समाजवाद, साम्यवाद और पूँजीवाद को मानव कल्याण का संपूर्ण सूत्र नहीं मानते थे। उनका मानना था कि भारतीय विचार नहीं होने की वजह से ये भारत की समस्याओं से निपटने और समाधान देने में अक्षम हैं। उन्होंने एकात्म मानववाद का ऐसा वैचारिक आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसमे मानव को संपूर्णता में एक इकाई मानकर उसकी संपूर्ण जरूरतों को समझने एवं उनकी संतुलित आपूर्ति करने का सूत्र प्रस्तुत किया गया है।
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास को लेकर दुनिया के तमाम विद्वानों ने अलग-अलग वैचारिक दर्शन प्रतिपादित किए हैं। लगभग प्रत्येक विचारधारा समाज के राजनीतिक, आर्थिक उन्नति के मूल सूत्र के रूप में खुद को प्रस्तुत करती है। पूँजीवाद हो, साम्यवाद हो अथवा समाजवाद हो, प्रत्येक विचारधारा समाज की समस्याओं का समाधान देने के दावे के साथ सामने आती है।
हालांकि, इनके दावों की सफलता का प्रश्न अभी भी बहस और चर्चा का विषय है। स्वतंत्रता के बाद भारत में विचारधाराओं का प्रभाव किस प्रकार रहा, इसपर व्यापक चर्चा होती रही है। यह सच है कि प्रधानमंत्री नेहरू का समाजवादी नीति के प्रति आकर्षण था। नेहरू के उस आकर्षण का परिणाम हुआ कि देश लंबे कालखंड तक समाजवाद की आर्थिक नीतियों के अनुरूप चलता रहा और उसका व्यापक प्रभाव अभी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था में काफी हदतक कायम है।
जब पंडित नेहरु समाजवाद की नीतियों के सहारे देश की दशा-दिशा तय कर रहे थे, तब भारतीय जनसंघ के नेता पंडित दीन दयाल उपाध्याय अनेक बिन्दुओं पर उन नीतियों का न सिर्फ विरोध कर रहे थे बल्कि भारत एवं भारतीयता के अनुकूल वैचारिक दर्शन की पृष्ठभूमि भी तैयार कर रहे थे।
दीन दयाल उपाध्याय समाजवाद, साम्यवाद और पूँजीवाद को मानव कल्याण का संपूर्ण सूत्र नहीं मानते थे। उनका मानना था कि भारतीय विचार नहीं होने की वजह से ये भारत की समस्याओं से निपटने और समाधान देने में अक्षम हैं। उन्होंने एकात्म मानववाद का ऐसा वैचारिक आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसमे मानव को संपूर्णता में एक इकाई मानकर उसकी संपूर्ण जरूरतों को समझने एवं उनकी संतुलित आपूर्ति करने का सूत्र प्रस्तुत किया गया है।
दीन दयाल उपाध्याय के अनुसार “व्यक्ति मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर का एक समुच्चय है।” अत: मानव के संदर्भ में इन चारों को विभाजित करके नहीं देखा जा सकता है, ये परस्पर अंतर्संबद्ध हैं। सरल शब्दों में कहें तो दीन दयालजी द्वारा व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि के बीच अंतर्निहित, पूरक संबंध की आवश्यकता पर विचार किया गया है।
वे व्यक्ति को परिवार से, परिवार को समाज से, समाज को राष्ट्र और राष्ट्र को चराचर सृष्टि से अलग करके नहीं देखते हैं। उनका कहना था, “प्रत्येक व्यक्ति ‘मै’ और ‘मेरा’ विचार त्यागकर ‘हम’ और ‘हमारा’ विचार करे।” उनके विचार दर्शन में ‘यत पिंडे, तत ब्रह्मांडे, अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है वही पिंड में भी है’ का भाव नजर आता है।
मानव की आवश्यकताओं का संबंध भी इसी व्यापकता में हैं। मनुष्य की जरूरतें भी उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इच्छाओं के अनुरूप ही होती हैं। अत: एक मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति अथवा उसकी संतुष्टि का समाधान विभाजित करके नहीं खोजा जा सकता है।
वे मानवमात्र का हर उस दृष्टि से मूल्यांकन करने की बात करते हैं, जो उसके सम्पूर्ण जीवन काल में छोटी अथवा बड़ी जरूरत के रूप में संबंध रखता है। चाहें राजनीति का प्रश्न हो, चाहें अर्थव्यवस्था का प्रश्न हो अथवा समाज की विविध जरूरतों का प्रश्न हो, उन्होंने मानवमात्र से जुड़े लगभग प्रत्येक प्रश्न की समाधानयुक्त विवेचना अपने वैचारिक लेखों में की है।
भारतीय अर्थनीति कैसी हो, इसका स्वरूप क्या हो, इन विषयों को पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने ‘भारतीय अर्थनीति : विकास की दिशा’ में लिखा है। दीन दयाल उपाध्याय धर्म और अर्थ को परस्पर संबद्ध करके देखते थे। उनका मानना था कि धर्म सर्वोपरि है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म का पालन नहीं किया जा सकता। एक प्रसिद्ध उक्ति भी है- जो भूख से मर रहा हो वो कोई पाप करने से ज़रा भी नहीं हिचकिचायेगा, जो सब कुछ खो देते हैं, वो निर्दयी बन जाते हैं।
दीन दयाल उपाध्याय द्वारा सरकार के व्यापारिक गतिविधियों में हाथ डालने से असहमति प्रकट की गयी। उनका स्पष्ट मानना था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए और व्यापारी के हाथ में शासन नहीं आना चाहिए। साठ के दशक में जो चिंताएं उन्होंने अपने लेखों तथा विचारों के माध्यम से प्रस्तुत की थीं, वो चार दशक के बहुधा समाजवादी नीतियों वाले शासन प्रणाली में समस्या की शक्ल में दिखने लगी थीं। वे उस दौरान लायसेंस राज में भ्रष्टाचार की चिंताओं से शासन को अवगत कराते रहे। वे विकेन्द्रित व्यवस्था के पक्षधर थे, तथा समाजिक क्षेत्रों के अतिवादी राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे।
वे जानते थे कि यह देश मेहनतकश लोगों का है, जो अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए राज्य पर आश्रित कभी नहीं रहे हैं। लेकिन समाजवादी नीतियों से प्रभावित कांग्रेस की सरकारों ने सत्ता की शक्ति का दायरा बढाने की होड़ में समाज की ताकत को राष्ट्रीयकरण के बूते अपने शिकंजे में ले लिया।
उदाहरण के तौर पर देखें तो निर्माण और परिवहन क्षेत्र का काम सरकार के हाथों में जाना एक असफल नीति को आगे बढ़ाने जैसा साबित हुआ। यह काम समाज पर छोड़ा जा सकता था, लेकिन समाजवादी नीतियों के अंधउत्साह ने उनकी एक न सुनी। पंडित दीन दयाल उपाध्याय उन्हीं क्षेत्रों में सरकार को उतरने के लिए बोल रहे थे जिनमें निजी क्षेत्र जोखिम लेने को तैयार नहीं थे अथवा स्थितियां प्रतिकूल थीं। लेकिन तत्कालीन सरकारों द्वारा इसके उलट काम किया गया।
दीन दयाल उपाध्याय द्वारा व्यक्त असहमतियों की अनदेखी तत्कालीन सरकारों द्वारा की गयी, जिसका परिणाम हुआ कि हमारी व्यवस्था समाजवादी नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझती गयी कि अब उसमें से निकलना अथवा निकालने की सोचना कठिन नजर आता है। सरकार आश्रित प्रजा तैयार करने की समाजवादी नीति ने इन सत्तर वर्षों में समाज को इतना पंगु बना दिया है कि हम स्वच्छता के लिए भी प्रधानमंत्री पर आश्रित हैं!
दीन दयाल उपाध्याय का राजनीतिक चिन्तन भी अत्यंत स्पष्ट और पारदर्शितापूर्ण था। यही वजह है कि 1965 में भारतीय जनसंघ द्वारा उनके वैचारिक दर्शन को पार्टी के मूल दर्शन के रूप में आत्मसात कर लिया। पचास और साठ के दशक के कालखंड में दीन दयाल उपाध्याय की भूमिका एक विचार वाहक की रही। उनके विचारों में भारतीयता के चिन्तन की छाप थी।
राजनीति में मूल्य, विचारधारा, समर्पण और ध्येय की जो परिभाषाएं दीन दयाल उपाध्याय ने रखीं, वह आज भी भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रेरणा वाक्य की तरह हैं। राजनीतिक दल के विकास को लकर उनका मत था, “राजनीतिक दलों को अपना एक विचार दर्शन विकसित करना चाहिए, जिससे कि वे राजनीतिक दल कुछ लोगों के निजी स्वार्थों पर टिके झुण्ड की तरह न बनें।”
पंडित दीन दयाल उपाध्याय के विचारों के प्रति आग्रह रखते हुए आयातित विचारधाराओं के तंत्र से निकलकर अन्त्योदय के लक्ष्य और एकात्म मानववाद के वैचारिक सिद्धांत को आत्मसात करके ही भारतीयता के मूल स्वरूप में मानव कल्याण के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)