जयंती विशेष: डॉ. हेडगेवार जिन्होंने अपने छोटे-से कमरे में दुनिया के सबसे बड़े संगठन की नींव रखी

1 अप्रैल 1889 को नागपुर में जन्मे डॉ. हेडगेवार में अपनी माटी और देश से प्रेम-भाव उत्पन्न होने में समय न लगा, उनको अपने समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता थी जो इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के 60 वर्ष पूर्ण होने पर बाँटी गयी मिठाई को स्वीकार ना करने से ही स्पष्ट पता लग जाता है। उन्होंने  विद्यालय में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वन्दे मातरम के नारे भी लगाए, जिसके कारण उनको उस सरकार से मान्यता प्राप्त विद्यालय से निकाल भी दिया गया।

नागपुर के डॉक्टर हेडगेवार समिति मंदिर में डॉ. हेडगेवार की  प्रतिमा पर किसने फूल चढ़ाये, यही मीडिया के लिए कई दिनों तक चर्चा  का विषय  बन जाता है।  राजनेता हों या अभिनेता, राजनयिक हों या कोई  देश का  बड़ा व्यवसायी सबने अपनी श्रद्धा डॉ. हेडगेवार के स्मृति मंदिर में अर्पित की है।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और ए पी जे अब्दुल कलाम उसी श्रृंखला में शामिल हैं। इसीलिए सवाल बहुत लाजिमी हो जाता है कि कौन थे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जिन्होंने अपने छोटे से कमरे में एक संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की नींव रखी जो आज देश का ही नहीं अपितु दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है।

डॉ. हेडगेवार एक सामाजिक संगठन बना कर गए या राजनैतिक,संघ सांस्कृतिक कार्य करता है या सरकार और सत्ता बनाने और पलटने का, इसपर भी पता नहीं कितनी चर्चाएं  हो चुकी हैं।  यह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए भी चर्चा के विषय रहे हैं। 

कैसे 1925 में जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक देश का प्रधान सेवक बनता है और राज भवन से राष्ट्रपति भवन तक की कुर्सी पर  एक स्वयंसेवक बैठता है। डॉ. हेडगेवार के संघ पर कांग्रेस प्रतिबन्ध भी लगाती है और उसे गाँधी का हत्यारा भी कहती है। सबूतो के आभाव में प्रतिबन्ध हटाती भी है और 1962 भारत -चीन युद्ध में संघ स्वयंसेवको की भूमिका देख कर 1963 में राजपथ पर परेड में भाग लेने के लिए बुलाती भी है।

1971 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से स्वतंत्र कराने की मुहीम छेड़ी तो संघ ने समर्थन किया, युद्ध में सैनिकों को खून देने के लिए हज़ारो स्वयंसेवक कांग्रेस सरकार से वैचारिक मतभेद पीछे छोड़ कर आगे आये।  इसीलिए डॉ. हेडगेवार को और उनके  दिए हुए अनुसाशन, वैचारिकता और प्रबंधन के मंत्रो को जानना और भी जरुरी हो जाता है जिसपर चल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इतनी लम्बी दूरी तय कर ली।

1 अप्रैल 1889 को नागपुर में जन्मे डॉ. हेडगेवार में अपनी माटी और देश से प्रेम-भाव उत्पन्न होने में समय न लगा, उनको अपने समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता थी जो इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के 60 वर्ष पूर्ण होने पर बाँटी गयी मिठाई को स्वीकार ना करने से ही स्पष्ट पता लग जाता है। उन्होंने  विद्यालय में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वन्दे मातरम के नारे भी लगाए, जिसके कारण उनको उस सरकार से मान्यता प्राप्त विद्यालय से निकाल भी दिया गया।

डॉ. हेडगेवार ने बंगाल के नेशनल मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। बंगाल उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। उसी दौर में डॉ. हेडगेवार भी क्रांतिकारियों की एक टोली “अनुशीलन समिति “के संपर्क में आए। पढ़ाई पूरी करके डॉ.हेडगेवार नागपुर वापस आ गए और लोकमान्य तिलक से प्रेरणा लेकर और प्रभावित होकर कांग्रेस के आंदोलन से जुड़ गए।

1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में डॉ. हेडगेवार ने व्यवस्था का पूरा जिम्मा संभाला। उनके “सम्पूर्ण  स्वतंत्रता” जैसे शब्द को कांग्रेस के कुछ नेता पसंद नहीं करते थे। उनको ”खिलाफत आंदोलन” में कांग्रेस की सहायता का प्रस्ताव भी मान्य नहीं था। मतभेद रहे लेकिन गाँधी जी के नेतृत्व में जब असहयोग आंदोलन की घोषणा हुई तो उन्होंने महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में काम किया और उनके भाषणों की वजह से उनपर मुकदमा भी हुआ और वो एक साल के लिए जेल भी गए।   

कारागार से बाहर आये और देश में हिन्दू- मुस्लिम तनाव को देख कर बहुत दुःखी हुए, तनाव और बढ़ा, इसी बीच डॉ. हेडगेवार हिन्दू महासभा के काम में भी जुट गए और विचार मंथन में लग गए कि हिन्दुओं को संगठित कैसे किया जाए। आखिर उनको अपना जवाब मिल गया और 1925 में विजयादशमी के दिन उन्होंने संघ की स्थापना कर दी। 

चंद्रशेखर परमानन्द भिशीकर  की किताब ‘डॉ. हेडगेवार – परिचय एवं व्यक्तित्व’ के अनुसार , उनका  उद्देश्य काफी स्पष्ट था, संघ यानि हिन्दुओं की संगठित शक्ति। उन्होंने ”हिन्दू राष्ट्र” को संघ का आधारभूत सिद्धांत बनाया।

संगठन का उदय तो होता है लेकिन अस्त होने में भी समय नहीं लगता। इसीलिए डॉ. हेडगेवार के  संगठन के तंत्र और मंत्र को जानना साधारण से लेकर खास तक, सब  के लिए जरूरी है जिसके कारण संघ आज यहाँ तक पहुँच पाया।  उनमे व्यक्तिगत पद और प्रतिष्ठा की कोई लालसा नहीं थी, जो आज तक संघ में दिखती है। व्यक्ति को नहीं “भगवा ध्वज” को गुरु माना, “मैं नहीं तू ही” का विचार दिया। शाखा को जुड़ने का साधन बनाया। शाखा मतलब एक जगह पर सब कार्यकर्ता एकत्रित होंगे और खेल खेलकर, देशभक्ति के गीत गाकर ,चर्चा करके अपना शारीरिक और बौद्धिक विकास करेंगे।

इसमें सबसे विशेष यह था कि शाखा की गतिवधियां इस प्रकार से नियोजित की गईं जिसमें हर आयु के लोग सम्मलित हो सकें। जाति के भेदभाव से संघ को दूर रखने के लिए नाम के पीछे जाति की जगह जी शब्द का प्रयोग करना शुरू किया गया।

व्यक्ति तक सीमित ना रहकर परिवार को विचार से जोड़ने के लिए कार्यकर्त्ताओं को प्रेरित किया। अपने व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों और चुनौतियों को कभी महत्व नहीं दिया, समाज और संगठन के लिए समर्पित हो गए। उनका व्यक्तिगत समर्पण देख कर संघ से जुड़ने वाले युवाओं को प्रेरणा मिली और एक बड़ी संख्या में युवाओं में अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संघ के नाम करने का विचार पनपने लगा।

वो कहते थे, पढ़ो, अपने व्यक्तित्व को जितना निखार सकते हो निखारो और फिर अपनी इच्छा से अपना जीवन राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगा दो। कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी और कार्य भी इसका एक सबसे बड़ा कारण रहा कि संघ समाज पोषित संगठन बना सरकार पोषित नहीं जिसका सबसे बड़ा उदहारण हमें केरल में दिखता है जहां आज तक संघ के राजनैतिक पक्ष भाजपा की सरकार नहीं बनी है लेकिन कार्यकर्ता और कार्य में केरल कभी पीछे नहीं रहा।

डॉ. हेडगेवार ने बच्चों को लेकर संघ शुरू किया था, इससे साफ़ पता लगता है कि वो जल्दबाजी में नहीं थे, धैर्यवान थे, दूरदर्शी थे और सबसे महत्वपूर्ण डॉक्टर होने के बावजूद सरल स्वभाव के थे, अहंकार नहीं था। उनकी मृत्यु 21 जून,1940  को  नागपुर में हुई। वो आज भी लाखों-करोड़ों संघ स्वयंसेवकों के लिए ”डॉक्टर  जी” और ”डॉक्टर साहब” हैं।

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)