एफआरडीआई बिल में बैंकिंग क्षेत्र की निगरानी के लिए एक रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन बनाने का प्रस्ताव है, जो दिवालिया बैंक के खाताधारकों के जमा पैसों की सुरक्षा को सुनिश्चित करेगा। देखा जाये तो यह बिल ऋण शोधन दिवाला संहिता (आईबीसी) की तरह है, जो विगत वर्ष अस्तित्व में आया था। दोनों कानूनों में कंपनी के दिवालिया होने पर प्रभावित कंपनी और उनके निवेशकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रावधान है। आईबीसी कानून के दायरे में वित्तीय और गैर वित्तीय दोनों तरह के संस्थान आते हैं, जबकि एफआरडीआई बिल के दायरे में केवल वित्तीय संस्थान ही आते हैं। इस बिल में बैंकिंग या बीमा कंपनी के दिवालिया होने पर उनके पुनर्जीवन एवं उनके ग्राहकों के हितों को सुनिश्चित करने हेतु तमाम इंतजाम किये गये हैं।
भले ही फाइनेंसियल रेज़ोल्यूशन एंड डिपॉज़िट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) बिल 2017 अभी संसद की संयुक्त समिति के पास विचाराधीन है, लेकिन भ्रामक एवं तथ्यहीन खबरों की वजह से यह बिल रोज ही अखबारों की सुर्खी बन रहा है। इस बिल को शीतकालीन सत्र में पेश किया जाने वाला है। सरकार के दोनों सदनों में पर्याप्त बहुमत होने के कारण कयास लगाये जा रहे हैं कि यह बिल आसानी से दोनों सदनों में पारित हो जायेगा।
एफआरडीआई बिल की सबसे पहले चर्चा वित्त वर्ष 2016-17 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने की थी। श्री जेटली का कहना था कि भारत में वित्तीय संस्थानों के दिवालिया होने पर उनके पुनर्जीवन के लिये कोई प्रावधान नहीं हैं। अस्तु, इसके बरक्स पुख्ता व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है। तदुपरांत, 15 मार्च, 2016 को वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग के अतिरिक्त सचिव श्री अजय त्यागी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर एफआरडीआई बिल का मसौदा तैयार किया गया। जून, 2017 में केंद्र सरकार ने एफआरडीआई बिल को मंजूरी दी। फिर अगस्त महीने में इस बिल को लोकसभा में पेश किया गया। इतना ही नहीं, वित्त मंत्रालय ने इस संदर्भ में सभी लोगों की राय 31 अक्टूबर तक आमंत्रित की है, ताकि इस बिल के गुण-दोषों पर वृहत स्तर पर चर्चा की जा सके। सभी लोगों की शंकाओं का निवारण करने एवं प्राप्त सभी सुझावों पर विचार करने के बाद ही इस बिल को संसद में पेश किया जायेगा।
मौजूदा समय में सरकारी बैंकों में ग्राहकों का जमा एक लाख रूपये तक बीमित रहता है। यह बीमा डिपॉजिट इंश्यूरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन करता है। इस बीमा की सीमा एक लाख रूपये तक ही होती है। अगर किसी की बैंक में एक लाख रूपये से अधिक राशि जमा है तो भी बैंक डूबने पर बीमा कंपनी उस जमाकर्ता को एक लाख रूपये ही देगी। इसका यह अर्थ हुआ है कि बैंकों में ग्राहकों द्वारा जमा सिर्फ एक लाख रूपये ही सुरक्षित है।
इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो आज भी ग्राहकों द्वारा बैंकों में जमा अरबों-खरबों रूपये असुरक्षित हैं। इस नजरिये से ग्राहकों द्वारा बैंकों में जमा एक लाख रूपये से अधिक जमा राशि निकाल लेनी चाहिए, लेकिन क्या ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि पैसे घर में नहीं रखे जा सकते हैं और विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं है, जहाँ ग्राहकों द्वारा जमा राशि को वापिस करने की गारंटी बैंक द्वारा ली जाती हो। हालांकि भारत एक लोकतांत्रिक, सामाजिक एवं लोक-कल्याणकारी देश है। इसीलिए भारत में बैंकों का वर्ष 1969 एवं वर्ष 1980 में राष्ट्रीयकरण किया गया और यहाँ के नागरिक हमेशा सरकार से विशेष पाने की अपेक्षा रखते हैं।
यह भी एक तथ्य है कि अब तक भारत में किसी भी बैंक में जमा राशि डूबी नहीं है। कभी कोई बैंक दिवालिया होने की कगार पर पहुँचा भी है तो सरकार की अगुआई में उसका विलय बड़े बैंक में कर दिया गया है और कभी भी ग्राहकों के हितों के साथ किसी भी तरह का कोई भी समझौता नहीं किया गया है।
एफआरडीआई बिल में बैंकिंग क्षेत्र की निगरानी के लिए एक रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन बनाने का प्रस्ताव है, जो दिवालिया बैंक के खाताधारकों के जमा पैसों की सुरक्षा को सुनिश्चित करेगा। देखा जाये तो यह बिल ऋण शोधन दिवाला संहिता (आईबीसी) की तरह है, जो विगत वर्ष अस्तित्व में आया था। दोनों कानूनों में कंपनी के दिवालिया होने पर प्रभावित कंपनी और उनके निवेशकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रावधान है। आईबीसी कानून के दायरे में वित्तीय और गैर वित्तीय दोनों तरह के संस्थान आते हैं, जबकि एफआरडीआई बिल के दायरे में केवल वित्तीय संस्थान ही आते हैं। इस बिल में बैंकिंग या बीमा कंपनी के दिवालिया होने पर उनके पुनर्जीवन एवं उनके ग्राहकों के हितों को सुनिश्चित करने हेतु तमाम इंतजाम किये गये हैं।
इधर, सोशल मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है कि इस बिल के आने के बाद ग्राहकों का पैसा डूब जायेगा, लेकिन ऐसे भ्रामक प्रचार वस्तुस्थिति को जाने बिना किये जा रहे हैं। अफवाह है कि अगर 10 लाख रूपये 5 साल के लिये अपने बच्चे की पढ़ाई या शादी के लिये बैंक में जमा किये गये हैं तो आपकी सहमति के बिना इस अवधि को 20 साल करने का कॉर्पोरेशन को अधिकार मिल जायेगा। बैंक को कांट्रैक्ट या एग्रीमेंट के तहत जमाकर्ता को पैसे वापिस करने की भी छुट मिल जायेगी। अगर बैंक में आपके 10 लाख रूपये हैं तो यह रकम कम होकर एक लाख रूपये हो सकती है या उसे सावधि जमा में तब्दील किया जा सकता है।
इस बिल की खिलाफत करने वालों का यह भी कहना है कि सरकार अब बैंकों का बेलआउट नहीं करेगी अर्थात सरकार बैंकों का पुनर्पूंजीकरण करना बंद कर देगी। अब तक सरकार बॉन्ड खरीदकर बैंकों का बेलआउट कर रही थी। ऐसे लोगों का कहना है कि सरकार बैंकों को बेल-इन करने के लिये कहेगी अर्थात इस बिल के अस्तित्व में आ जाने के बाद ज्यादा एनपीए वाले बैंक ग्राहकों की जमा राशि से अपनी पूँजी की समस्या का निदान करेंगे। भ्रामक प्रचार बिल के चैप्टर 4 सेक्शन 2 को लेकर ज्यादा किये जा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि रेज़ोल्यूशन कॉरपोरेशन रेग्यूलेटर से सलाह-मश्विरे के बाद यह तय किया जायेगा कि दिवालिया बैंक के जमाकर्ता को उनके जमा पैसे के बदले कितनी रकम दी जायेगी। इस बिल को लेकर सबसे ज्यादा विवाद इस बात को लेकर किया जा रहा है कि खाताधारकों के जमा पैसे का इस्तेमाल बैंकों के डूबने की स्थिति में उसे बचाने के लिये किया जायेगा। स्पष्ट है कि ये सारा कुछ सिर्फ अफवाहों और कोरे अनुमानों पर आधारित है।
हालाँकि, वित्तमंत्री अरुण जेटली ने साफ तौर पर कहा है कि सरकार की मंशा वित्तीय संस्थानों और खाताधारकों के हितों को सुरक्षित रखना है। इस संदर्भ में सरकार किसी भी प्रकार का कोई समझौता नहीं करने के लिये प्रतिबद्ध है। वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि मीडिया में एवं लोगों के बीच सोशल मीडिया के माध्यम से बिल में बेल-इन के प्रावधानों को लेकर गलतफहमी फैलाई जा रही है। सच तो यह है कि संसद में पेश किये गये बिल में खाताधारकों की मौजूदा सुरक्षा व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं किया गया है। बिल में पारदर्शी तरीके से खाताधारकों के वित्तीय सुरक्षा के लिये नये प्रावधानों को शामिल किया गया है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इस बिल में आर्थिक संकट आने पर वित्तीय संस्थानों और उनके ग्राहकों के हितों को सुरक्षित रखने के प्रावधान किये गये हैं। साथ ही, आर्थिक संकट के समय में ग्राहकों के जमा राशि के लेनदेन को सीमित करके वित्तीय संस्थानों को अनुशासित करने के प्रावधान किये गये हैं। इसका मतलब कदापि नहीं है कि बैंक में जमा करने वाले खाताधारकों की जमा राशि को कम किया जायेगा या उसे 20 सालों की सावधि जमा में तब्दील कर दिया जायेगा। इस बिल में सुरक्षात्मक उपायों की मदद से अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने के भी प्रावधान किये गये हैं। ग्राहकों के हितों को सुनिश्चित करने के लिये इस बिल द्वारा बैंक में जमा बीमा के मौजूदा प्रावधानों को और भी मजबूत बनाने की व्यवस्था की गई है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद से कभी भी जमाकर्ताओं के गाढ़े पसीने की कमाई नहीं डूबी है। भारत एक लोक कल्याणकारी देश है। ग्राहकों द्वारा बैंक में जमा राशि को ग्राहकों को लौटाना सरकार की ज़िम्मेदारी है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एक सरकारी उपक्रम हैं और सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। इसलिये बैंक की साख पर अविश्वास करना सरकार की साख पर अविश्वास करने के समान है। लिहाजा जमाकर्ताओं को एफआरडीआई बिल से परेशान होने की जरूरत नहीं है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी भी बैंक ऋण का वितरण जमाकर्ताओं के पैसे से ही करते हैं। मोटे तौर पर बैंक की कार्य प्रणाली जमा और ऋण पर आधारित है। ग्राहक बैंक में जमा करते हैं, जिसका जमा अवधि के मुताबिक बैंक प्रबंधन करती है अर्थात जमा की अवधि के अनुसार बैंक लोगों को कर्ज मुहैया कराती है। जमा पर ग्राहक को दिये जाने वाले ब्याज और कर्ज पर ग्राहक से मिलने वाले ब्याज का अंतर ही बैंक का लाभ होता है।
बैंक के पास अगर सस्ती पूँजी यानी ज्यादा जमा राशि बचत खाते एवं चालू खाते में होती है, तब वह कर्ज दर को भी कम कर देता है, लेकिन जब बैंक में जमा राशि की अवधि अधिक होती है, तब बैंक को ग्राहक को ज्यादा ब्याज देना होता है और वह कर्ज पर ज्यादा ब्याज लेता है। इसतरह से ग्राहकों द्वारा बैंक में जमा राशि का बेहतर प्रबंधन करके उसका समुचित उपयोग करना बैंक का नैसर्गिक कार्य है।
बेशक, बिना बैंकों के कार्यप्रणाली को समझे एफआरडीआई बिल की आड़ में लोगों के बीच अफवाह फैलाया जा रहा है। अस्तु किसी की बात में आने की बजाये लोगों को खुद से किसी भी निर्णय या फैसले पर अपनी राय कायम करनी चाहिए। सच कहा जाये तो इस बिल के अस्तित्व में आने के बाद दिवालिया होने पर वित्तीय संस्थानों को पुनर्जीवित करने में समय एवं लागत दोनों में कमी आयेगी। इस बिल के पारित होने के बाद गठित रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन का कार्य होगा वित्तीय संस्थानों के दिवालिया होने पर उनके पुनर्जीवन एवं उस संस्थान के निवेशकों के हितों को सुरक्षित करना। इसलिये, इस बिल के कारण विधवा विलाप करने की कतई जरूरत नहीं है।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉर्पोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसन्धान विभाग में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)