गुजरात की राजनीति में यह एक ऐसा चुनाव है जहाँ कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के भारी संकट से जूझ रही है। फिलहाल न तो उसके पास गुजरात में कोई स्थायी नेतृत्व है और न ही शीर्ष स्तर पर ही कोई ऐसा नेतृत्वकर्ता है जिसके भरोसे सियासी फतह की उम्मीद कांग्रेस कार्यकर्ता रखें। तिसपर ये कि कांग्रेस के लिए मजबूत चेहरा हो सकने वाले शंकर सिंह बाघेला अब कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं। केशुभाई पटेल का भाजपा विरोध भी अब थम चुका है। ऐसे में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी जैसे कुछ ऐसे चेहरों पर हद से ज्यादा भरोसा जताने का प्रयास किया है, जो कांग्रेस के कद को और छोटा ही करता नजर आ रहा है।
गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही प्रदेश में सियासी पारा उफान पर है। आमतौर पर गुजरात की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस दो ही दलों की सीधी लड़ाई रहती है। फिर भी अलग-अलग चुनावों के दौरान कुछ छोटे दलों का उभार देखने को मिलता रहा है। लेकिन अबतक के नतीजों का मजमून यही है कि गुजरात की राजनीति भाजपा बनाम कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही रही है और लंबे समय से कांग्रेस का सत्ता से वनवास चल रहा है। नब्बे के दशक में एकबार भाजपा गुजरात की सत्ता में क्या आई, उसके बाद कांग्रेस के पुराने दिन कभी न लौटे।
वर्ष 2001 में नरेंद्र मोदी के आने के बाद तो गुजरात भाजपा का अभेद किला बनता गया। हालांकि 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं रहा कि कांग्रेस वहां किसी चुनाव में बिलकुल साफ़ हो चुकी हो। वर्ष 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के बीच 8 से 10 फीसद वोट का अंतर लगभग बना रहा है। वोट फीसद के लिहाज यह एक बड़ा अंतर कहा जा सकता है क्योंकि जब इसे सीटों में तब्दील करते हैं तो यह भाजपा को 110 सीट के ऊपर पहुंचा देता है जबकि कांग्रेस 50 से 60 के बीच सिमट जाती है। अर्थात वोट फीसद का यह अंतर सीटों के मामले में दोगुने से थोड़ा ही कम का फर्क पैदा करता है। इसी अंतर को बरकरार रखने में भाजपा 2012 तक कामयाब रही है जबकि कांग्रेस इस अंतर को पाटने में नाकाम रही है।
खैर, ये आंकड़े 2012 विधानसभा चुनाव तक की कहानी बयाँ करते हैं। लेकिन अब गुजरात 2017 के विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। सवाल है कि क्या यह अंतर बरकरार रहेगा अथवा गुजरात की राजनीति में कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ है, जो लंबे कालखंड से चली आ रही आंकड़ों की इस स्थिरता को बदलने का काम करेगा ? इस सवाल पर गंभीरता से विचार करें तो 2012 में और 2017 विधानसभा चुनाव के बीच हुए कुछ बड़े राजनीतिक परिवर्तनों का विश्लेषण समीचीन प्रतीत होता है।
वर्ष 2012 से 2017 के बीच राजनीतिक रूप से गुजरात के परिप्रेक्ष्य में दो-तीन बड़े परिवर्तन हुए हैं। पहला परिवर्तन यह है कि गुजरात से आने वाले नरेंद्र मोदी अब 2012 की तुलना में बहुत बड़े कद के नेता बन चुके हैं। दूसरा परिवर्तन यह है कि पहली बार ऐसा हुआ है कि गुजरात में कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं जीत पाया है। जबकि 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान 2009 में जीत कर आए कांग्रेस के 12 सांसद हुआ करते थे। तीसरा और सबसे अहम राजनीतिक परिवर्तन यह है कि अब देश की राजनीति के विश्लेषण की धुरी 2014 का आम चुनाव बन चुका है। अब अगर हम उसके पूर्व के हुए चुनावों के वोट फीसद को आधार मानकर विश्लेषण करेंगे तो शायद सही विश्लेषण नहीं कर पायेंगे।
एकाध अपवादों को छोड़कर कम से कम 2014 के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों के वोट फीसद ने तो यही साबित किया है कि अब विश्लेषण का आधार 2014 का आम चुनाव ही होना चाहिए। इस आधार पर अगर देखें तो गुजरात में भाजपा बनाम कांग्रेस के बीच का वोट फीसद का अंतर 2012 विधानसभा चुनाव की तुलना में बेहद अलग नजर आता है। एकतरफ जहाँ 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 47 फीसद वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 38 फीसद से संतोष करना पड़ा था। लेकिन इसके ठीक दो साल बाद जब नरेंद्र मोदी गुजरात से बाहर निकलकर देश की राजनीति के लिए सज्ज हुए तो 2014 के आम चुनावों में भाजपा को 60.11 फीसद वोट गुजरात से मिले और कांग्रेस का वोट फीसद 2012 की तुलना में 5 फीसद और कम होकर 33 फीसद के आसपास आ गया। अर्थात, 2014 के आंकड़ों में गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट फीसद का अंतर भी दोगुने से मामूली कम तक पहुँच गया है।
ऐसे में अगर 2014 के आम चुनाव के तर्ज पर ही देश की चुनावी राजनीति फिलहाल चल रही है तो वर्तमान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अबतक के इतिहास का सबसे बुरा विधानसभा चुनाव देखना पड़ सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनाव के दौरान पैदा हुईं गुजरात की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के बीच यह संभव होगा ? सवाल यह भी है कि इसमें मुश्किलें कहाँ हैं और किसके लिए हैं।
दरअसल गुजरात की राजनीति में यह एक ऐसा चुनाव है जहाँ कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के भारी संकट से जूझ रही है। फिलहाल न तो उसके पास गुजरात में कोई स्थायी नेतृत्व है और न ही शीर्ष स्तर पर ही कोई ऐसा नेतृत्वकर्ता है जिसके भरोसे सियासी फतह की उम्मीद कांग्रेस कार्यकर्ता रखें। तिसपर ये कि कांग्रेस के लिए मजबूत चेहरा हो सकने वाले शंकर सिंह बाघेला अब कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं। केशुभाई पटेल का भाजपा विरोध भी अब थम चुका है। ऐसे में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी जैसे कुछ ऐसे चेहरों पर हद से ज्यादा भरोसा जताने का प्रयास किया है, जो कांग्रेस के कद को और छोटा ही करता नजर आ रहा है।
हार्दिक पटेल को पाटीदारों का इकलौता प्रतिनिधि चेहरा मानने की भारी भूल कांग्रेस कर चुकी है। कांग्रेस से छिटकने के बाद पटेल समुदाय अस्सी के दशक के बाद से ही भाजपा से जुड़ना शुरू हुआ। पटेलों को भाजपा से जोड़ने में शुरूआती दौर में केशुभाई पटेल एक मजबूत कड़ी जरुर बने, लेकिन पटेलों का विश्वास समय के साथ भाजपा में मजबूत होता गया। यही कारण है कि जब 2012 चुनाव में केशुभाई पटेल ने अपनी पार्टी बनाई तो उन्हें उनकी उम्मीद के मुताबिक़ पटेलों का साथ नहीं मिला। अब अगर कोई यह मानकर बैठा हो कि हार्दिक पटेल भी पटेलों के निर्णायक मतों के भाग्य विधाता बनेंगे, तो यह सियासी बचपने से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
जिस तिकड़ी के भरोसे कांग्रेस सियासत साधने की कोशिश कर रही है, वह तिकड़ी खुद ही विरोधाभाषों के भँवर में है। हार्दिक पाटीदारों के लिए आरक्षण मांग रहे हैं जबकि अल्पेश ठाकोर इसके विरोध में हैं। ऐसे में क्या राहुल गांधी की राजनीतिक समझ इतनी भी बन पाई है कि वो इतिहास से सबक लेते हुए किसी और से ज्यादा अपनी पार्टी के संगठन पर भरोसा रखें ?
भाजपा की दृष्टि से गुजरात के वर्तमान का विश्लेषण करें तो भाजपा के पास शीर्ष स्तर पर नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई चेहरा है और वे खुद गुजरात से हैं। संगठन की कमान अमित शाह के हाथ में है, जो गुजरात की राजनीति के नस-नस से वाकिफ हैं। मुख्यमंत्री के तौर विजय रुपानी नरेंद्र मोदी की नीतियों को संचालित करने वाले प्रतिनिधि हैं, जिनको लेकर गुजरात में कोई नकारात्मकता तो कम से कम नहीं है। ऐसे में भाजपा के पास नेतृत्व और चेहरे का संकट दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा। पटेलों की जहाँ तक बात है तो वर्तमान सरकार में 40 विधायक, 7 मंत्री और 6 सांसद पटेल समुदाय से हैं। अर्थात, शीर्ष नेतृत्व के अतिरिक्त जमीनी स्तर पर भी प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व के मामले में भी भाजपा की पैठ इस समुदाय के बीच मजबूत नजर आती है।
अलग-अलग दृष्टिकोण से विश्लेषण के बाद ऐसा कोई कारण नहीं नजर आता जिसके आधार पर कहा जाए कि गुजरात का यह चुनाव 2014 के आंकड़ों से इतर होने जा रहा है। इस आधार पर ही संभवत: भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मिशन 150 का लक्ष्य रखा है। गुजरात ने अगर 2014 को दोहरा दिया तो मिशन 150 तो भाजपा प्राप्त ही करेगी, कांग्रेस की यह अबतक की सबसे बुरी हार भी होगी।
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो और नेशनलिस्ट ऑनलाइन के संपादक हैं।)