आज के दिल्ली का कुतुब मीनार क्षेत्र तुग़लकाबाद – 7 अक्टूबर 1556 को हेम चंद्र विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हेमू विक्रमादित्य और तार्दी बेग खान के नेतृत्व में मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं के बीच लड़ी गई एक उल्लेखनीय लड़ाई का मेजबान बन गया। हेमू ने बयाना, इटावा, संभल, कालपी, नारनौल और आगरा से मुगलों को खदेड़ दिया। हेमू का डर इतना था कि आगरा के मुगल गवर्नर ने उस शहर को खाली कर दिया और दिल्ली भाग गया।
यह तो हम सभी भली-भांति जानते हैं कि हमारे इतिहास को विकृत करने में सत्तापोषित वामपंथी इतिहासकारों का हाथ प्रमुख रूप से रहा है। यहाँ राजशाही के लिए कार्य करने वाले अदालती इतिहासकारों एवं आधुनिक काल में लोकतांत्रिक परिवेश में कार्य करने वाले वैज्ञानिक इतिहासकारों के कार्य में अंतर कर पाना बहुत कठिन है और इनके पक्षपातपूर्ण लेखन का ही परिणाम है कि आज हम शायद ही एक ऐसे हिंदू राजा हेमू (हेमचंद्र विक्रमादित्य) के अनन्य व्यक्तित्व और विशालता के बारे में जानते हों जिसने बर्बर मध्यकाल में 22 लड़ाइयां जीती, दिल्ली पर शासन किया और पानीपत के द्वितीय युद्ध का मुख्य किरदार बने।
प्राचीन काल से ही इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) राजनीति का मुख्य केंद्र रहा है, रॉबर्ट एरिक फ्राईकेनबर्ग के अनुसार- “किसी भी शासक को हिंदुस्तान पर तब तक पकड़ रखने लायक नहीं माना जा सकता था जब तक उसका दिल्ली पर नियंत्रण ना हो”। हेमू को “हेमचंद्र विक्रमादित्य” के नाम से भी जाना जाता है।
इन्होंने 7 अक्टूबर 1556 को कुतुबमीनार से 5 मील दूर तुग़लकाबाद में 1 दिन की लड़ाई जीतकर सूरी वंश का इस्लामी झंडा स्थापित करने की बजाय खुद को दिल्ली के सम्राट का ”ताज” पहनाया और भारत के प्राचीन वैदिक इतिहास में वर्णित हिंदू राजा “विक्रमादित्य” की उपाधि धारण की। सदियों बाद दिल्ली पर फिर से एक हिंदू राजा (हालांकि कुछ समय के लिए) का शासन स्थापित हुआ।
हेमू के बारे में जानकारी का प्राथमिक स्रोत फारसी ग्रंथ हैं, जोकि मुगलों के दरबारी इतिहासकारों अब्दुल कादिर बदायूंनी और अबुल फज़ल द्वारा हेमू के प्रतिद्वंदी अकबर के लिए लिखे गए थे। इतिहासकार हेमू की जन्मभूमि और जाति के बारे में भी एकमत नहीं हैं। इतिहासकार राम प्रसाद त्रिपाठी अपनी कृति-“राइज एंड फॉल ऑफ मुगल एम्पायर” में उन्हें एक ‘धूसर‘ के रूप में दर्शाते हैं जो ‘गौर-ब्राह्मणों का एक उप विभाजन‘ माना जाता है। वहीं जॉन एफ रिचर्ड्स अपने लेखन- “मुगल साम्राज्य-भारत का नया कैंब्रिज इतिहास” में उन्हें “वैश्य” और आर.सी. मजूमदार उन्हें “धूसर” या “बनिया जाति का धनसार” बताते हैं।
सतीश चंद्र ने हेमू को “धूसर या भार्गव” कहा है, जो गौर-ब्राह्मण होने का दावा करते हैं। इसी कड़ी में कालिका रंजन कानूनगो अपनी कृति- “शेरशाह एंड हिज़ टाइम्स” में उन्हें एक धूसर, वैश्य या बनिया की जाति के रूप में चित्रित करती हैं,जो भार्गव-ब्राह्मण होने का दावा करते हैं।
मुगल इतिहासकार बदायूनी ने उन्हें मेवात के रेवाड़ी नामक छोटे से शहर का निवासी बताया है, जिसने अपना जीवन एक साग-सब्जी विक्रेता के रूप में शुरू किया था। अन्य लोगों का मानना है कि वह मेवात के शहर में एक फेरीवाला था, वहीं आर.सी. मजूमदार के अनुसार हेमू ने कम उम्र में एक व्यापारी के रूप में या सब्जी बेचने वाले के रूप में या नमक बेचने वाले के रूप में कार्य शुरू किया।
1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इस्लाम शाह, सूर साम्राज्य का शासक बना। और उसके शासन के दौरान हेमू दिल्ली में ”बाजार का अधीक्षक” बन गया जिसे अपने क्षेत्र का गहन अनुभव था। इस्लाम शाह के बाद उसका 12 वर्षीय बेटा फिरोज खान शासन में आया, जिसको उसके चाचा आदिल शाह ने 3 दिन के भीतर मार दिया। आदिल शाह सूरी ऐसा शासक था जो राज्य के मामलों की बजाय जीवन के भोग-विलास में व्यस्त रहता था और हेमू उसके मुख्यमंत्री (वज़ीर) के रूप में कार्य कर रहे थे।
अबुल फज़ल के अनुसार यह अब हेमू ही था जो सभी नई नियुक्तियां कर रहा था और पुराने अधिकारियों को राजा के नाम पर व्यवस्था से बाहर निकाल रहा था। वह एक न्यायाधीश के रूप में भी कार्य कर रहे थे और आदिल शाह की अदालत में परोक्ष रूप से निर्णय दे रहे थे। यह उनकी युद्ध और नागरिक प्रशासन की विशिष्ट क्षमता ही थी जो उन्हें सूर राजवंश में सबसे ऊपर रखती थी।
राज्य हित में उनकी ईमानदारी और समर्पण, सुस्त एवं भ्रष्ट लोक सेवकों को रोकने में उनकी सख्ती ने पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों का विरोध किया। अफ़गानों की तरफ से शेर शाह के बाद एकमात्र हेमू ही था जो एक उच्च कुशल नागरिक प्रशासक और सैन्य प्रतिभा का धनी था। उन्होंने एक शांत, निडर, आत्मविश्वास से भरपूर, श्रेष्ठ निर्णय निर्माता के रूप में स्वयं को साबित किया। अफ़गानों के आंतरिक युद्ध में उसने अपने मालिक के घरेलू दुश्मनों और उन सभी पर विजयी होने के साथ 22 लड़ाईयां लड़ी और जीती। 27 जनवरी, 1556 वही दिन था जब हुमायूं की मृत्यु के साथ ही हेमू को मुगलों को हराने का एक सही मौका मिला।
आज के दिल्ली का कुतुब मीनार क्षेत्र तुग़लकाबाद-7 अक्टूबर 1556 को हेम चंद्र विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हेमू विक्रमादित्य और तार्दी बेग खान के नेतृत्व में मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं के बीच लड़ी गई एक उल्लेखनीय लड़ाई का मेजबान बन गया। हेमू ने बयाना, इटावा, संभल, कालपी, नारनौल और आगरा से मुगलों को खदेड़ दिया। हेमू का डर इतना था कि आगरा के मुगल गवर्नर ने उस शहर को खाली कर दिया और दिल्ली भाग गया। अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायूनी के अनुसार 50,000 सवार, 1000 हजार हाथी और 51 टुकड़ियां तोप के दल-बल के साथ दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली (तुग़लकाबाद) में मुठभेड़ हुई और मुगलों का नेतृत्व केंद्र में तार्दी बेग, वाम मोर्चे पर इस्कंदर बेग और युद्ध के मैदान हैदर मुहम्मद ने संभाला।
हालांकि मुगल संख्या में बराबर थे परंतु वे हेमू का सामना करने में असमर्थ साबित हुए। अपनी मौत को सामने देख अधिकांश मुगल सैन्य अधिकारी डर के मारे लड़ने की बजाय युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। अंत में उनका प्रमुख तार्दी बेग भी जान बचाकर भाग गया।
7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली पर कब्जा करने के बाद सूरी राजवंश के इस्लामी झंडे को स्थापित करने की बजाय, हेमू ने खुद को दिल्ली के सम्राट का ताज पहनाया और “विक्रमादित्य की उपाधि” धारण की, जो भारत में प्राचीन वैदिक काल में कई हिंदू राजाओं द्वारा अपनाई गई थी। दिल्ली में सदियों बाद एक हिंदू राजा का शासन स्थापित हुआ। बदायूनी का कहना है कि “उन्होंने हिंदुस्तान में एक महान राजा की तरह विक्रमजीत की उपाधि धारण की और हेमू ने इस्लामाधीन देशों को अस्थिर करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया”। हालांकि कुछ विद्वान हेमू को एक स्वतंत्र शासक घोषित करने में शंकित हैं।
एक महीने बाद 5 नवंबर, 1556 को हेमू और अकबर की सेनाओं के बीच ‘पानीपत की द्वितीय लड़ाई‘ लड़ी गई। अकबर के व्यक्तिगत इतिहासकार अबुल फज़ल के मुताबिक “पानीपत की दूसरी लड़ाई में मुगल सैनिकों के दिलों में हेमू का खौफ समा गया था”। हेमू युद्ध स्थल में अदम्य साहस और वीरता से लड़े परंतु दुर्भाग्यवश युद्ध में एक तीर उनकी आंख में जा लगा और “उस एक तीर ने भारत के इतिहास को बदल दिया” अधिक खून बहने से वे बेहोश हो गए और अकबर के राज्य-संरक्षक बैरम खान ने उनको पकड़ लिया और उनकी हत्या कर दी। हेमू के समर्थकों ने बाद में पानीपत में उनका स्मारक बनवाया, इसे अब हेमू की “समाधि स्थल” के रूप में जाना जाता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)