छत्रपति शिवाजी महाराज न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि वे एक कुशल एवं सुयोग्य प्रशासक भी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और समकालीन शासन प्रणालियों से समन्वय कर ठोस सिद्धांतों के आधार पर अपनी शासन-व्यवस्था विकसित की थी। यह उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी कि विजित भूभागों के निवासियों ने भी हृदय से उन्हें अपना अधिपति माना।
बात तबकी है जब सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज के मनोबल को भीतर तक तोड़ दिया था। पराधीन एवं पराजित हिंदू समाज को मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और लोकरक्षक श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों का आदर्श सम्मुख होने के बावजूद वर्तमान दुरावस्था ने उन्हें हताशा और निराशा के गर्त्त में धकेल दिया था।
निराशा और हताशा के घटाटोप अंधकार भरे परिवेश में भारतीय नभाकाश पर शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ। शिवाजी का उदय केवल एक व्यक्ति का उदय मात्र नहीं था, बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ का उदय था, गौरव और स्वाभिमान का उदय था, स्वराज, सुराज, स्वधर्म व सुशासन का उदय था और इन सबसे अधिक वह आदर्श राजा के जीवंत और मूर्त्तिमान प्रेरणा-पुरुष का उदय था।
उनका राज्याभिषेक जिसे आज हम हिन्दू साम्राज्य दिवस के रूप में मनाते हैं, केवल किसी व्यक्ति विशेष के सिंहासन पर बैठने की घटना भर नहीं थी बल्कि वह समाज और राष्ट्र की भावी दिशा तय करने वाली एक युगांतकारी घटना थी।
वह सदियों की सोई हुई चेतना को झकझोर कर जागृत करने वाली घटना थी। शिवाजी महाराज केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक सोच थे, वे एक विचार थे, वे एक पथ-प्रदर्शक क्रांतिकारी मशाल थे, वे एक युगप्रवर्तक शिल्पकार थे।
उनका राज्याभिषेक उनके सुदीर्घ चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम था। वह उनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों की सार्थक परिणति थी। सदियों से पराधीन जाति की सुषुप्त चेतना व स्वत्व को जगाने का यह उनका असाधारण व सुविचारित प्रयास था।
पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिंदू जाति तुर्कों/मुगलों के निरंतर आधीन रही। ऐसे में शिवाजी ने पहले समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। उन्हें संगठित किया। छोटे-छोटे कामगारों-कृषकों मेहनतकश जातियों, जुझारू मावलों को एकत्रित किया। उनमें विजिगीषु वृत्ति भरी। उनमें यह विश्वास भरा कि आदिलशाही-कुतबशाही-मुग़लिया सल्तनत कोई आसमानी ताकत से संचालित ताक़त नहीं है।
ये सत्ताएँ अपराजेय नहीं हैं। अपितु थोड़ी-सी सूझ-बूझ, रणनीतिक कौशल, साहस, सामर्थ्य और संगठन से उन्हें हराया जा सकता है। न केवल हराया जा सकता है, अपितु प्रजाजनों की इच्छा के अनुरूप एक धर्माधारित-प्रजापालक राजकीय सत्ता और राज्य भी स्थापित किया जा सकता है।
उन्होंने छोटे-छोटे किलों को जीतकर पहले अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। और तत्पश्चात उन्होंने बड़े-बड़े किले जीतकर अपना राज्य-विस्तार तो किया ही; आदिलशाही, कुतबशाही, अफ़ज़ल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह आदि प्रतिपक्षियों और उनकी विशाल सेना से ज़बरदस्त मोर्चा भी लिया। कभी हारे तो बहुधा जीते। कभी संधि और समझौते किए। जब ज़रूरत पड़ी पीछे हटे, रुके, ठहरे, शक्ति संचित किया और पुनः वार किया।
उन्होंने हठधर्मिता और कोरी आदर्शवादिता के स्थान पर ठोस व्यावहारिकता का पथ चुना। व्यावहारिकता को चुनते समय न निजी जीवन के उच्चादर्शों एवं मूल्यों को कभी ताक पर रखा, न ही प्रजा के हितों और समय की माँग की उपेक्षा की। वस्तुतः उनका लक्ष्य राष्ट्र और धर्म रक्षार्थ विजय और केवल विजय रहा। और अंततः इसमें वे सफ़ल रहे।
वे एक प्रकार से मुग़लिया सल्तनत के ताबूत की आख़िरी कील साबित हुए। यदि औरंगज़ेब दक्षिण में मराठाओं से न उलझता तो मुग़लिया सल्तनत का इतनी ज़ल्दी अंत न होता। कल्पना कीजिए कि शिवाजी का नेतृत्व-कौशल, सैन्य-व्यूह और संगठन-शिल्प कितना सुदृढ़ रहा होगा कि उनके जाने के बाद भी मराठे मुगलों से अनवरत लड़ते रहे, झुके नहीं। उन्होंने न केवल कथन से अपितु अपने प्रत्यक्ष आचरण से उनमें कितना शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान भर दिया होगा!
न केवल मराठों में बल्कि शिवाजी महाराज की सफलता को देखकर अन्य भारतीय राजाओं में भी स्वतंत्रता की अलख जगी। वे भी पराधीनता की बेड़ियाँ उतार फेंकने को उद्धत हो गए। दक्षिण से लेकर उत्तर तक, राजस्थान से लेकर असम तक स्वाधीनता के प्रयास तीव्र हो गए। उनसे प्रेरणा पाकर राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में सब राजपूत राजाओं ने मुगलों-तुर्कों के विरुद्ध ऐसा आक्रमण छेड़ा कि दुबारा उन्हें राजस्थान में पाँव रखने की हिम्मत नहीं हुई।
वीर छत्रसाल ने अलग रणभेरी बजा दी और स्वधर्म पर आधारित स्वशासन की स्थापना की। असम के राजा चक्रध्वज सिंह ने घोषणा की कि ”हमें शिवाजी जैसी नीति अपनाकर ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित राज्यों में मुगलों के क़दम नहीं पड़ने देना चाहिए।”
कूच-बिहार के राजा रूद्र सिंह ने कहा कि ”हमें शिवाजी के रास्ते पर चलते हुए इन पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबो देना चाहिए।” दिल्लीश्वर के दरबार की शोभा बढ़ाने की बजाय कवि भूषण ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष एवं पराक्रम की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले वीर शिरोमणि महाराज शिवाजी पर ”शिवा बावनी” लिखी।
उन्होंने औरंगज़ेब की चाकरी को लात मार दी और भरे दरबार में कहा- ”कवि बेचा नहीं जाता। जो उज्ज्वल चरित्र और स्तुति योग्य है, उसी की स्तुति करता है। तुम स्तुति के लायक नहीं हो।” शिवाजी महाराज के जीवन का उद्देश्य ही इस चेतना को जगाना था। उन्होंने अपने उद्यम व पुरुषार्थ से संपूर्ण देश में सांस्कृतिक चेतना का संचार किया।
छत्रपति शिवाजी महाराज न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि वे एक कुशल एवं सुयोग्य प्रशासक भी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और समकालीन शासन प्रणालियों से समन्वय कर ठोस सिद्धांतों के आधार पर अपनी शासन-व्यवस्था विकसित की थी। यह उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी कि विजित भूभागों के निवासियों ने भी हृदय से उन्हें अपना अधिपति माना।
शिवाजी महाराज की शासन-व्यवस्था लोकाभिमुख थी। वे एक निरंकुश शासक की बजाय लोककल्याणकारी शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। एक ऐसे शासक के रूप में जो प्रजा-हित को सर्वोपरि रखता था। उनकी शासन-पद्धत्ति में प्रजातंत्र के बीज मौजूद थे। दरअसल उनका मुख्य उद्देश्य ही भारतीय न्याय-परंपरा पर आधारित प्रशासकीय व्यवस्था विकसित करना था।
एक प्रशासक के रूप में उन्होंने कभी अपने अधिकारों का ग़लत उपयोग नहीं किया। वे अपने उन मातहतों को भी पुरस्कृत करते थे जो राजा यानी व्यक्ति से अधिक राज्य के हितों के प्रति निष्ठा रखते थे। ऐसे अनेक दृष्टांत शिवाजी के जीवन में दिखाई देते हैं।
निरंकुशता या एकाधिकारवादिता विकृति लाती है। यह राजा को स्वेच्छाचारी बना देती है। उस काल के अधिकांश राजा या सम्राट निरंकुश प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। दुनिया के इतिहास में शिवजी पहले ऐसे सत्ताधीश थे, जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता का विकेंद्रीकरण किया था। आज जब श्रेष्ठ प्रबंधन का पाठ पढ़ाया जाता है तो उसमें उत्तरदायित्वों के विकेंद्रीकरण की बात सबसे ऊपर रखी जाती है।
एक व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, अपनी सबलता-दुर्बलता होती है, पसंद-नापसंद होते हैं, सोच-सामर्थ्य की अपनी सीमा होती है, शिवाजी इस सच्चाई को भली-भाँति जानते थे। वे उन दुर्बल प्रशासकों की भाँति नहीं थे, जिन्हें हर क्षण अपनी सत्ता और अधिकार खोने का भय सताता रहता है।
चुने हुए विशेषज्ञों द्वारा शिवाजी महाराज ने ‘राजव्यवहार कोष’ नामक शासकीय शब्दावली का बृहत शब्दकोश तैयार कराया था। यह उनकी प्रगल्भता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उसके अनुसार उन्होंने प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद बनाई थी, जिसे अष्ट प्रधान कहा जाता था। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा, राज्यनिष्ठा, ईमानदारी और बहादुरी ही मंत्रीमंडल में सम्मिलित किए जाने की एकमात्र कसौटी थी। तत्कालीन चलन के विपरीत मंत्री पद के लिए आनुवंशिकता अनिवार्य नहीं थी।
‘पेशवा’ उस मंत्रीमंडल का प्रमुख होता था। ‘अमात्य’ वित्त और राजकीय कार्यभार वहन करता था। ‘सचिव’ राजा के पत्राचार और अन्य राजकीय कार्य संपन्न करता था। जिसमें शाही मुहर लगाना और संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना भी सम्मिलित था।
‘मंत्री’ का प्रमुख कार्य विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एवं गुप्त सूचनाएँ एकत्र कर उनका सत्यापन करना, राज्य में होने वाली घटनाओं और गतिविधियों पर निकट नज़र रखना, समाचारों को संकलित कर उस पर महाराज का ध्यान आकर्षित करवाना हुआ करता था। वह राजा का रोज़नामचा रखता था।
अतिरिक्त व्यय होने पर उसे राजा से प्रश्न पूछने का अधिकार था। आप सोचिए क्या आज के कर्मचारी अपने अधिकारी या प्रमुख से आय-व्यय का ब्यौरा माँग सकते हैं? ‘सुमंत’ विदेशी मामलों की देखभाल करते हुए लगभग आज के विदेश मंत्री का कार्य संपादित करता था। वह अन्य राज्यों में राजा के प्रमुख प्रतिनिधि या वार्त्ताकार के रूप में बातचीत को आगे बढ़ाता था।
‘सेनापति’ सेना का प्रधान होता था। सेना में सैनिकों की नियुक्ति का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित होता था। सेना के संगठन, अनुशासन, युद्ध-क्षेत्र आदि में तैनाती आदि की जिम्मेदारी भी उसी की हुआ करती थी। ‘पंडितराव’ धार्मिक मामलों और अनुदानों का उत्तरदायित्व निभाता था। ‘न्यायाधीश’ न्यायिक मामलों का प्रधान था। प्रत्येक प्रधान की सहायता के लिए अनेक छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त ”दावन, मजमुआदार, फडनिस, सुबनिस, चिटनिस, जमादार और पोटनिस” जैसे आठ प्रमुख अधिकारी भी हुआ करते थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने आज की तरह अपना एक संविधान यानी शासन-संहिता तैयार कराई थी। उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण और शासन के लोकतांत्रिकरण को बढ़ावा दिया। वे भली-भाँति जानते थे कि व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य और शक्तिशाली क्यों न हो वह एक सुसंबद्ध तंत्र के बिना व्यवस्थाएँ नहीं संचालित कर सकता। इसलिए उनका जोर व्यक्ति-केंद्रित शासन-व्यवस्था की बजाय तंत्र-आधारित व्यवस्था खड़ी करने पर रहा।
स्वयं एक सत्ताधीश होते हुए भी उन्होंने सामंतवाद को जड़-मूल से नष्ट करने का अपरोक्ष प्रयास किया। आज तमाम दलों एवं नेताओं द्वारा वंशवादी विरासत को पालित-पोषित करता देख शिवाजी का यह आदर्श कितना ऊँचा और दुर्लभ जान पड़ता है! वे स्वयं को राज्य का स्वामी न समझकर ट्रस्टी समझते थे। राज्य का स्वामी तो वे ईश्वर को मानते थे।
शासन की सुविधा के लिए उन्होंने ‘स्वराज’ कहे जाने वाले विजित क्षेत्रों को चार प्रांतों में विभाजित किया था। हर प्रांत के ‘सूबेदार’ को ‘प्रांतपति’ कहा जाता था। उसके पास गाँव की अष्टप्रधान समिति होती थी। हर गाँव में एक ‘मुखिया’ होता था। उनके समय में तीन प्रकार के कर प्रचलित थे। ‘भूमि-कर, चौथ एवं सरदेशमुखी।” उल्लेखनीय है कि किसानों से केवल भूमि-कर वसूल किया जाता था। ग़रीब किसानों से उनके ज़मीन के रकबे और उपज के आधार पर कर वसूला जाता था।
उनके राज्य के सभी सैनिक, अधिकारी, सरदार, मंत्री आदि वेतनधारी होते थे। उनकी तरह की, सुनियोजित और समृद्ध वेतन-प्रणाली अन्य किसी राजा ने प्रभावी तरीके से लागू नहीं की थी। शिवाजी की यह दूरदर्शिता भ्रष्टाचार और कामचोरी पर अंकुश लगा सकी।
समाजवाद और साम्यवाद का गुण गाने वाले लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि शिवाजी पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने वतनदारी और जमींदारी को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा कि ओहदा रहेगा, पर सत्ता नहीं रहेगी। उस समय सरदारों/ जागीरदारों की अपनी निजी सेनाएँ होती थीं। उन्होंने सेना को स्वराज्य के केंद्रीय प्रशासन के अंतर्गत लेते हुए उन्हें वेतन देना प्रारंभ कर दिया, जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि सैनिकों की निष्ठा व्यक्तियों के प्रति न होकर राष्ट्र-राज्य से जुड़ गई।
छत्रपति शिवाजी ने सामाजिक स्तर पर भी अनेक परिवर्तन किए। नेताजी पालकर, बजाजी निंबालकर जैसे धर्मांतरित योद्धाओं को पुनः शास्त्रोक्त पद्धत्ति से हिंदू धर्म में वापस लिया। न केवल वापस लिया अपितु उनसे अपना पारिवारिक संबंध जोड़ घर-वापसी को सामाजिक मान्यता भी दिलाई। वे अपने समय से आगे की सोच रखते थे। इसलिए उन्होंने अरब और यूरोप की आधुनिक कलाओं और तकनीकों को अपनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया। मुद्रण, छापाखाना, तोपें, तलवारें आदि बनाने की कला को उन्होंने हाथों-हाथ लिया।
नौसेना का गठन करके सिंधुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग जैसे जलदुर्ग बनवाए। कुल मिलाकर उन्होंने युगानुकूल शासन-तंत्र की व्यापक रचना की। और इन सब दृष्टांतों एवं प्रसंगों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि शिवाजी आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता थे।
आज यह प्रश्न पूर्णतः न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण होगा कि किनकी कुत्सित योजना और गोपनीय इच्छा से शिवाजी जैसे कुशल प्रशासक एवं महान योद्धा को पाठ्य-पुस्तकों के चंद पृष्ठों या यों कहिए कि अनुच्छेदों में समेट दिया गया?
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)