स्वराज्य स्थापना के समय अष्टप्रधान मंडल की रचना, फारसी और अरबी भाषा के शब्दों को हटाकर संस्कृतनिष्ठ एवं मराठी शब्दों के प्रचलन पर जोर देते हुए ‘राज्य व्यवहार कोश’ का निर्माण, कालगणना हेतु श्रीराजाभिषेक शक का प्रारम्भ, संस्कृत राजमुद्रा का उपयोग, प्रशासनिक व्यवस्था, कृषि एवं श्रम सुधार, सामाजिक उत्थान, न्याय व्यवस्था, तकनीक और विज्ञान में भी ‘स्व’ के आधार पर नवाचारों को प्रधानता देकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘स्वराज्य’ के आदर्श को प्रतिपादित किया।
आज का दिन बहुत पावन है। आज से ठीक 350 वर्ष पूर्व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, विक्रम संवत 1731 को (तद्नुसार 6 जून, 1674) छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी। स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। कहते हैं कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म न होता और उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तब भारत अंधकार की दिशा में बहुत आगे चला जाता।
महान विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय समाज का आत्मविश्वास निचले तल पर चला गया। अपने ही देश में फिर कभी हमारा अपना शासन होगा, जो भारतीय मूल्यों से संचालित हो, लोगों ने यह कल्पना करना ही छोड़ दिया। तब शिवाजी महाराज ने कुछ पराक्रमी मित्रों के साथ ‘स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया और अपने कृतित्व एवं विचारों से जनमानस के भीतर भी आत्मविश्वास जगाया। गोविन्द सखाराम सरदेसाई ‘द हिस्ट्री ऑफ द मराठाज-शिवाजी एंड हिज टाइम’ मेंलिखते हैं कि “मुस्लिम शासन में घोर अन्धकार व्याप्त था।
कोई पूछताछ नहीं, कोई न्याय नहीं। अधिकारी जो मर्जी करते थे। महिलाओं के सम्मान का उल्लंघन, हिंदुओं की हत्याएं और धर्मांतरण, उनके मंदिरों को तोड़ना, गोहत्या और इसी तरह के घृणित अत्याचार उस सरकार के अधीन हो रहे थे। निज़ाम शाह ने जिजाऊ माँ साहेब के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की खुलेआम हत्या कर दी। बजाजी निंबालकर को जबरन इस्लाम कबूल कराया गया। अनगिनत उदाहरण उद्धृत किए जा सकते हैं। हिन्दू सम्मानित जीवन नहीं जी सकते थे”। ऐसे दौर में मुगलों के अत्याचारी शासन के विरुद्ध शिवाजी महाराज ने ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जो भारत के ‘स्व’ पर आधारित था। उनके शासन में प्रजा सुखी और समृद्ध हुई। धर्म-संस्कृति फिर से पुलकित हो उठी।
कहना होगा कि चारों ओर जब पराधीनता का गहन अंधकार छाया था, तब छत्रपति शिवाजी महाराज प्रखर सूर्य की भाँति हिन्दुस्तान के आसमान पर चमके थे। शिवाजी महाराज ऐसे नायक हैं, जिन्होंने मुगलों और पुर्तगीज से लेकर अंग्रेजों तक, स्वराज्य के लिए युद्ध किया। भारत के बड़े भू-भाग को आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त कराकर, वहाँ ‘स्वराज्य’ का विस्तार किया। जन-जन के मन में ‘स्वराज्य’ का भाव जगाकर शिवाजी महाराज ने समाज को आत्मदैन्य की परिस्थिति से बाहर निकाला।
‘स्वराज्य’ के प्रति समाज को जागृत करने के साथ ही उन्होंने ऐसे राज्य की नींव रखी, जो भारतीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत था। शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की व्यवस्थाएं खड़ी करते समय ‘स्व’ को उनके मूल में रखा। ‘स्व’ पर आधारित व्यवस्थाओं से वास्तविक ‘स्वराज्य’ को स्थापित किया जा सकता है।
भारत का भाग्य भी देखिए कि एक बार फिर यह देश अपने ‘स्व’ के साथ विश्व पटल पर प्रभावशाली भूमिका में स्थापित हो रहा है। एक बार फिर भारत सहित दुनियाभर में बसे भारतीय नागरिकों के हृदय आत्मविश्वास और आत्मगौरव से भर गए हैं। इस स्थिति में आज की शासन व्यवस्था को हिन्दवी स्वराज्य की नीति और सिद्धांतों का अनुसरण करना चाहिए।
जैसे शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करते समय आक्रांताओं की थोपी हुई व्यवस्थाओं को हटाकर भारत के ‘स्व’ के आधार पर नयी व्यवस्थाएं खड़ी कीं, उसी तरह वर्तमान शासन व्यवस्था को भी बची-खुची औपनिवेशिक दासता की पहचान को उखाड़कर फेंक देना चाहिए और भारत की नीतियों को ‘स्व’ का आधार देना चाहिए। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि पिछले 10 वर्षों में भारत ने करवट बदली है। नये भारत ने अपने ‘स्व’ के आधार पर राष्ट्र निर्माण के पथ पर आगे बढ़ना प्रारंभ कर दिया है। प्रतीकों से लेकर नीतियों तक में ‘स्व’ परिलक्षित हो रहा है।
ऐसे में छत्रपति शिवजी महाराज की जीवनयात्रा एवं उनके द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की संकल्पना का स्मरण अत्यंत प्रासंगिक एवं प्रेरणास्पद होगा। हमें याद रखना चाहिए कि छत्रपति शिवाजी महाराज राजसी वैभव को भोगने के लिए नहीं अपितु धर्म एवं संस्कृति के रक्षा हेतु ‘स्व’ आधारित राज्य की स्थापना की। उन्होंने ‘स्वराज्य’ का विचार दिया तो यह नहीं कहा कि यह मेरा मत है, मेरी अभिलाषा है, अपितु उन्होंने यह विश्वास जगाया कि ‘स्वराज्य की स्थापना श्री की इच्छा है’।
स्वराज्य स्थापना के समय अष्टप्रधान मंडल की रचना, फारसी और अरबी भाषा के शब्दों को हटाकर संस्कृतनिष्ठ एवं मराठी शब्दों के प्रचलन पर जोर देते हुए ‘राज्य व्यवहार कोश’ का निर्माण, कालगणना हेतु श्रीराजाभिषेक शक का प्रारम्भ, संस्कृत राजमुद्रा का उपयोग, प्रशासनिक व्यवस्था, कृषि एवं श्रम सुधार, सामाजिक उत्थान, न्याय व्यवस्था, तकनीक और विज्ञान में भी ‘स्व’ के आधार पर नवाचारों को प्रधानता देकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘स्वराज्य’ के आदर्श को प्रतिपादित किया।
दुर्गदुर्गेश्वर श्रीरायगढ़ के शिखर पर सम्पन्न हुई श्रीशिवराज्याभिषेक की घटना ने भारतीय इतिहास को एक दिशा देने का काम किया। अंधकार की ओर बढ़ते भारत को उजाले के पथ पर अग्रसर किया। आत्मविस्मृति के दौर से गुजर रहे हिन्दुओं को गौरव की अनुभूति करायी। हिन्दुओं के पुरुषार्थ को जगाने का काम भी इस घटना ने किया।
श्रीशिवराज्याभिषेक की इस घटना ने भारत पर कब्जा करते जा रहे मुगलों को संदेश दिया कि भरत-भू पर अभी ‘हिन्दू पदपादशाही’ का ही शासन है। इस घटना ने समूचे भारत में स्वराज्य की भावना को प्रबल कर दिया। सह्याद्रि की गोद से उठी स्वराज्य की इस प्रखर ज्योति ने भारत के भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। इसलिए कहना होगा कि यह दिन भारत का उसकी नियति से भेंट का दिन भी है।
शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का दर्शन आज भी हमारे लिए पथप्रदर्शक है। आज भी हमें ‘हिन्दवी स्वराज्य’ के आदर्श को अपने सम्मुख रखना चाहिए। हिन्दवी स्वराज्य से प्रेरणा लेकर भारत की शासन व्यवस्था को ‘स्व’ का आधार देकर कल्याणकारी बनाने की दिशा में थोड़ा अधिक गति से काम करने की आवश्यकता है।