राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश (भैया) जोशी एवं सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत के शब्दों में- ”श्रीमान माधव गोविंद उपाख्य बाबूराव वैद्य के शरीर छोड़ने से हम सब संघ के कार्यकर्त्ताओं ने अपना एक वरिष्ठ छायाछत्र खो दिया है। संस्कृत के प्रगाढ़ विद्वान, उत्तम पत्रकार, विधान परिषद के सक्रिय सदस्य, उत्कृष्ट साहित्यिक, ऐसी सारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी, बाबूराव जी ने यह सारी गुणसंपदा संघ में समर्पित कर रखी थी। वे संघ कार्य विकास के सक्रिय साक्षी रहे।”
निःसंदेह संघ कार्य को विस्तार एवं व्यापकता देने में परिव्राजक परंपरा के प्रचारकों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। आज के घोर भौतिकतावादी युग में अपना घर-परिवार छोड़कर भारत के गाँव-नगर-प्रांत, खेत-खलिहान, कूल-कछारों की धूलि भरी, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ नापना कोई आसान काम नहीं। संघ-कार्य को आज जैसी स्वीकार्यता मिली है, वैसी तब कहाँ थीं!
तपोनिष्ठ प्रचारकों को तब अपने चरित्र एवं आचरण, ध्येय एवं निष्ठा से ही कार्यक्षेत्र में अनुकूल स्थितियाँ निर्मित कर लोगों के हृदय में स्थान बनाना पड़ता था और चना-चबेना, रूखा-सूखा खाकर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। न दिन का ठिकाना, न रात की चैन; न खाने की सुध, न सोने की चिंता; हर क्षण, हर पल बस एक ही धुन, एक ही लगन कि हिंदू-समाज का संगठन करना है, राष्ट्रीय विचारों को आगे बढ़ाना है, भारत प्रथम, राष्ट्र सर्वोपरि के भाव को परिपुष्ट करना है, भारत को परम वैभव के सिंहासन पर आरूढ़ करना है।
ध्यान रहे- समाज का संगठन, समाज में संगठन नहीं। माधव गोविंद वैद्य उपाख्य बाबूराव जी वैद्य प्रचारक श्रेणी के ही गृहस्थ कार्यकर्त्ता थे। वैसे भी आद्य सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार संघ को ऐसे तपोनिष्ठ गृहस्थ कार्यकर्त्ताओं का ही संगठन मानते थे। वे गृहस्थ कार्यकर्त्ताओं के त्याग एवं समर्पण को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे। उनका कहना था कि घर-परिवार में रहते हुए सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों और दायित्वों का निर्वहन अधिक दुष्कर एवं परिश्रमसाध्य है।
पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के मध्य संतुलन स्थापित करना एक साधना है। महान भारतवर्ष की निर्गुण संत-परंपरा भी तो यही है। संन्यासी बनने के लिए घर छोड़ने की तुलना में स्वार्थ और सुविधाओं का मोह छोड़ना अधिक मायने रखता है। यों ही नहीं कहा जाता कि राजा भी मन से संन्यासी हो सकता है और संन्यासी भी मन से भोगी हो सकता है। मा.गो.वैद्य मन से संन्यासी थे। उनका पूरा जीवन समाज, राष्ट्र एवं मानवता को समर्पित था।
मा.गो वैद्य उपाख्य बाबूराव जी ने गृहस्थ होते हुए भी संघ द्वारा सौंपे गए दायित्वों का कितना सुंदर-सार्थक निर्वहन किया! वे स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्त्ताओं के लिए आदर्श दृष्टांत थे। उन्होंने न केवल अपना जीवन संघ-समाज को समर्पित किया, अपितु अपने दो-दो पुत्रों को भी संघ-सरिता एवं प्रचारक-परंपरा की सतत-अविरल धारा का हिस्सा बनाया। समाज में पर उपदेश कुशल बहुतेरे के उदाहरण बहुत देखने को मिलते हैं। त्याग और नैतिकता के मापदंड प्रायः अपने लिए अलग और औरों के लिए अलग होते हैं।
आयु के आधार पर आकलित करें तो उनकी आयु लगभग संघ-आयु के समकक्ष ठहरती है। उन्होंने संघ को आद्य सरसंघचालक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक मोहनराव भागवत तक पलते-बढ़ते, विकसित होते देखा। वे अकेले ऐसे कार्यकर्त्ता एवं अधिकारी थे जिन्हें छहों सरसंघचालकों के साथ कार्य करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त था।
इसीलिए वे न केवल संघ की विचारधारा और रीति-नीति को स्वयं हृदयंगम करने में सफल रहे, अपितु उसे रचने-गढ़ने एवं सरल भाषा में दूसरों तक पहुँचाने में भी उनका कोई सानी नहीं। उनकी मेधा एवं कुशाग्रता इतनी तीक्ष्ण थी कि दसवीं से लेकर परास्नातक तक की सारी परीक्षाएँ उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। नागपुर में मिशनरी शिक्षण-संस्थान हिस्लॉप कॉलेज में प्राध्यापक रहते हुए भी उन्होंने संघ-कार्य से कोई समझौता नहीं किया।
एक तरफ शिक्षण की पृष्ठभूमि, संघ कार्य में सक्रिय एवं प्रत्यक्ष सहभागिता तो दूसरी तरफ संघ के मुखपत्र समझे जाने वाले नागपुर के तरुण भारत में संपादक का गुरुतर उत्तरदायित्व। ऐसे चुनौतीपूर्ण दायित्वों के निर्वाह ने उनके व्यक्तित्व को माँजा-चमकाया एवं ऐसी ऊँचाई प्रदान की कि वे संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख एवं प्रथम प्रचार प्रमुख बने।
बल्कि 1994 में विवादित ढाँचे के विध्वंस के पश्चात मीडिया एवं आम जनता के भ्रम एवं शंकाओं के निवारण हेतु संघ-नेतृत्व ने पहली बार जब प्रवक्ता जैसे पद (दायित्व) की आवश्यकता महसूस की तो उसे माधव गोविंद वैद्य ही इस उत्तरदायित्व के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पात्र नज़र आए। उन्होंने इस उत्तरदायित्व का बख़ूबी निर्वाह किया। उस दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय सेना दोनों को मीडिया फ्रेंडली नहीं समझा जाता था।
यह वह दौर था जब भाजपा आधी-अधूरी सत्ता में आई थी। संघ के तमाम अन्य आनुषांगिक संगठनों की भी सरकार से बड़ी अपेक्षाएँ थीं। विपक्षी दल के उटपटांग हमलों और मीडिया के तीखे सवालों से लगभग हर रोज संघ को दो-चार होना पड़ता था, ऐसे में मा.गो.वैद्य जी के संतुलित एवं सारगर्भित उत्तर समाधानपरक होते थे। उनका सम्यक एवं संतुलित वक्तव्य विवाद से संवाद और संवाद से सहमति तक का पथ प्रशस्त करता था।
माधव गोविंद वैद्य उपाख्य बाबूराव वैद्य जी का जीवन न केवल संघ के स्वयंसेवकों के लिए अपितु सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले सभी लोगों के लिए प्रेरणादाई हो सकता है। उनका अध्ययनशील-अध्यवसायी मन, तार्किक-बौद्धिक प्रकृति, संयमित-संतुलित व्यवहार एवं वाणी, वाकपटुता एवं प्रत्युत्पन्नमति – सब अनुकरणीय है। बल्कि सबसे पहले तो उन स्वयंसेवकों को उनके चिंतन-मनन-लेखन-स्वाध्याय आदि से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए, जिनकी लिखने-पढ़ने में रुचि नहीं होती।
साधना एवं स्वाध्याय के बिना समाज में सार्थक भूमिका या बदलाव का वाहक बन सकना कदापि संभव नहीं। बाबूराव जी के ऋषि तुल्य व्यक्तित्व के अवसान से उत्पन्न रिक्तता को भर पाना तो कदाचित कठिन होगा, पर उनके राष्ट्रीय एवं कल्याणकारी विचार सभी देशवासियों को पाथेय प्रदान करते रहेंगें। महान पुरुष या मनीषी राष्ट्र की सामूहिक स्मृतियों एवं चेतना में सदैव जीवित रहते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश (भैया) जोशी एवं सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत के शब्दों में- ”श्रीमान माधव गोविंद उपाख्य बाबूराव वैद्य के शरीर छोड़ने से हम सब संघ के कार्यकर्त्ताओं ने अपना एक वरिष्ठ छायाछत्र खो दिया है। संस्कृत के प्रगाढ़ विद्वान, उत्तम पत्रकार, विधान परिषद के सक्रिय सदस्य, उत्कृष्ट साहित्यिक, ऐसी सारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी, बाबूराव जी ने यह सारी गुणसंपदा संघ में समर्पित कर रखी थी। वे संघ कार्य विकास के सक्रिय साक्षी रहे।”
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)