यह एक अर्धकुम्भ है, जिसका आयोजन प्रत्येक छः वर्ष में किया जाता है। इससे इतर प्रत्येक बारह वर्ष में, एक विशेष ग्रह स्थिति आने पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरूप का एक विराट दर्शन हमें कुम्भ मेले में होता है, जहाँ साधु-संतों से लेकर आम जन और नेता तथा विदेशी पर्यटकों तक का एक विशाल हुजूम उमड़ता है और ऊँच-नीच, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी के भेदभाव से मुक्त होकर महाकुंभ के स्नान का अक्षय पुण्य या विशेष संतोष प्राप करता है।
संगमनगरी प्रयागराज में मकर संक्रांति से आरम्भ हो चुके आस्था के लोक महोत्सव यानी कुम्भ मेले को लेकर देश भर के श्रद्धालुओं के बीच उत्साह और उल्लास का वातावरण एकदम प्रत्यक्ष है। दरअसल इस कुम्भ मेले में सिर्फ देश से ही नहीं वरन विदेशों से भी भारी संख्या में सैलानी आते हैं।
इसके मद्देनज़र प्रदेश सरकार द्वारा सुरक्षा व्यवस्था से लेकर घाटों आदि को सम्यक प्रकार से व्यवस्थित रूप देने की दिशा में विशेष रूप से कार्य किया गया। यूँ तो कोई भी सरकार हो, वो कुम्भायोजन के लिए तैयारियां करती ही है, लेकिन शायद धार्मिक पृष्ठभूमि से आने के कारण योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इसपर विशेष ध्यान दिया है। यह कुम्भ मेला चार मार्च तक चलेगा।
उल्लेखनीय होगा कि यह एक अर्धकुम्भ है, जिसका आयोजन प्रत्येक छः वर्ष में किया जाता है। इससे इतर प्रत्येक बारह वर्ष में, एक विशेष ग्रह स्थिति आने पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरूप का एक विराट दर्शन हमें कुम्भ मेले में होता है, जहाँ साधु-संतों से लेकर आम जन और नेता तथा विदेशी पर्यटकों तक का एक विशाल हुजूम उमड़ता है और ऊँच-नीच, जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी के भेदभाव से मुक्त होकर महाकुंभ के स्नान का अक्षय पुण्य या विशेष संतोष प्राप करता है।
बहरहाल, कुम्भ के विषय में अगर पौराणिक मान्यताओं पर गौर करें, तो प्रसंग है कि समुन्द्र-मंथन से उत्पन्न अमृत के घड़े (कुम्भ) को असुरों से बचाने के लिए देवताओं ने बारह दिन तक समूचे ब्रह्मांड में छुपाया था, इस दौरान उन्होंने इसे धरती के जिन चार स्थानों पर रखा, वो ही चारो कुम्भ के आयोजन स्थल बन गए। प्रयागराज और हरिद्वार में गंगा का तट तथा नासिक की गोदावरी और उज्जैन की क्षिप्रा के तट, ये कुम्भायोजन के चार स्थल हैं।
इन चारों स्थानों पर कुम्भ के आयोजन के लिए ज्योतिष की विभिन्न अवधाराणाएं हैं, जिनके अनुसार जब जीवनवर्द्धक ग्रहों का स्वामी बृहस्पति किसी जीवनसंहारक ग्रह की राशि में प्रवेश करता है, तो इस संयोग को शुभ तिथि के रूप में माना जाता है और इसी क्रम में एक समय ऐसा भी आता है, जब बृहस्पति का प्रवेश मान्यतानुसार जीवनसंहारक ग्रहों के प्रधान शनि की राशि कुम्भ में होता है और इसका प्रभाव बिंदु हरिद्वार बनता है। इस स्थिति में कुम्भायोजन हरिद्वार में होता है।
ठीक इसी प्रकार बृहस्पति का शुक्र में और सूर्य-चन्द्र का शनि की मकर राशि में प्रवेश प्रयागराज के लिए कुम्भायोजन का योग बनाता है और यही वो समय भी होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं, जिसे शुभ मानते हुए मकर संक्रांति के रूप में मनाया भी जाता है।
इसी प्रकार जब बृहस्पति का प्रवेश सूर्य की सिंह राशि में होता है, तो ये संयोग नासिक की गोदावरी के लिए कुम्भायोजन का सुयोग उत्पन्न करता है । बृहस्पति की सिहंस्थ स्थिति में ही अगर सूर्य मेष राशि और चंद्रमा तुला राशि में पहुँच जाए, तो ये उज्जैन के लिए कुम्भ के आयोजन का संकेत होता है।
वैसे, सामान्य जनों की समझ के लिए ये ज्योतिषीय अवधारणाएं निस्संदेह बड़ी ही जटिल प्रतीत होती हैं, पर पुरातन काल से इन्ही के आधार पर कुम्भ का आयोजन होते आ रहा है। यूँ तो इन चारो ही स्थानों का कुम्भस्नान फलदायी आस्था से पुष्ट है, पर प्रयागराज के संगम तट का कुम्भस्नान इनमे भी श्रेष्ठ माना जा सकता है।
क्योंकि, यह गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का वो अद्भुत स्थल है, जिसके प्रति लोगों के मन में अनायास ही अनंत श्रद्धा का भंडार है, उसपर यदि कुम्भ का शुभ योग बने तो कहना ही क्या! वैसे, ज्योतिष-विज्ञान की उपर्युक्त मान्यताओं से अलग श्रद्धालु जनों की अपनी एक सीधी और सरल मान्यता भी है कि सकारात्मक शक्तियों द्वारा नकारात्मक शक्तियों के दुष्प्रभाव को रोकने का एकजुट प्रयास ही कुम्भ की पृष्ठभूमि है।
अब चूंकि, अधिकांश भारतीय पर्वों में लोकरंजन ही नहीं लोककल्याण का भाव भी निहित होता है और इस कुम्भ के सम्बन्ध में भी श्रद्धालुओं का यही मत है कि कुंभ के स्नान से मानव के दोष तो मिटते ही हैं, संसार की विपत्तियों का भी नाश होता है। लेकिन श्रद्धालुओं के इस आस्थापूर्ण मत से इतर यदि तार्किक दृष्टि से विचार करें तो भी यही स्पष्ट होता है कि कुम्भ पर्वों का उद्देश्य केवल आस्थापूर्ति और लोकरंजन ही नहीं है, बल्कि इसमे लोककल्याण का भाव भी निहित है।
विचार करें तो पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को माँ का स्थान प्राप्त रहा है। ऐसे में, बहुत से विद्वानों का ऐसा मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इन कुंभ पर्वों का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है। अगर हम स्वयं भी आस्था व अध्यात्म के दायरे से थोड़ा बाहर आकर तार्किकता से कुंभ के उद्देश्य पर विचार करें, तो विद्वानों का ये कथन काफी हद तक उचित व व्यवहारिक ही प्रतीत होता है।
चूंकि, इस बात की पूरी संभावना है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों द्वारा नदियों के प्रति मातृगत आस्था का प्रतिस्थापन व उनमे स्नान को धर्म से जोड़ने का विधान, उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही किया गया होगा तथा इसी क्रम में नदियों में स्नान को और महत्वपूर्ण रूप देने के लिए कुम्भ जैसे स्नान पर्व की परिकल्पना भी की गई होगी। कहीं न कहीं उनका यह मानना रहा होगा कि लोग यदि नदियों के प्रति श्रद्धालु होंगे तो उनकी देख-रेख, साफ़-सफाई और संरक्षण करेंगे तथा कुम्भ जैसे स्नान पर्वों के समय एकजुट होकर नदियों के लिए कार्य करेंगे ताकि उनमे स्नान आदि कर सकें।
किन्तु उन्हें तब संभवतः इस बात का आभास न रहा हो कि भविष्य निरपवाद रूप से ऐसे पाखण्डी जनों का है, जिनके वचन और कर्म में विराट अंतर होगा और जिनकी श्रद्धा का आधार आचरण नहीं, केवल बातें होंगी। आज यही हो रहा है कि नदियों के प्रति लोगों में श्रद्धा तो है और देश का बहुसंख्य समाज उन्हें माँ भी मानता है, लेकिन इसके बावजूद नदियों की दशा बद से बदतर होती जा रही है।
कारण कि एक तरफ लोग उन्हें माँ कहते हैं और दूसरी तरफ उनमे अपशिष्ट विसर्जन में भी नहीं हिचकते। हमारे पूर्वज यह कल्पना थोड़े किए होंगे कि भविष्य में ऐसे पूत होंगे जिन्हें अपनी माँ को गन्दा करने में भी लज्जा या संकोच का अनुभव नहीं होगा। अब जो भी हो, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि कुम्भ केवल लोकरंजन का महोत्सव ही नहीं, लोककल्याण का साधन भी है। आवश्यकता है तो इसके महत्व को समझने की।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)