हिंदुत्व की धारा से निकली राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता या अखिल मानवता के विरुद्ध कदापि नहीं जाती। बल्कि अखिल मानवता का चिंतन यदि कहीं हुआ है तो इसी हिंदू-चिंतन में हुआ है या उससे निकले भारतीय पंथों में ही उसके स्वर सुनाई पड़ते हैं। ईसाइयत और इस्लाम ने दुनिया को कथित रूप से जो भी दिया हो पर यह न भूलें कि अपने विस्तार के लिए सामूहिक नरसंहार जैसे असंख्य कृत्य भी इतिहास में उन्हीं के नाम दर्ज हैं! जबकि हमारे चिंतन में व्यक्ति, परिवार, समाज, देश, दुनिया, अखिल ब्रहांड यानि इस चराचर में व्याप्त जड़-चेतन सभी के हिताहित की चिंता सम्मिलित है।
कोरोना के बढ़ते प्रसार और उसकी चिंताओं के बीच एक समाचार ने सुर्खियाँ भले न बटोरी हों, पर उसने कुछ समुचित प्रश्न अवश्य खड़े किए हैं। क्यों देश के सौ से भी अधिक सेवानिवृत्त नौकरशाहों को लगा कि मोदी सरकार मुसलमानों के साथ असमान व्यवहार कर रही है या उन्हें जान-बूझकर लक्षित कर रही है? इस तरह के निराधार आरोप के पीछे कौन-सी मानसिकता कारण है, उसे समझने की जरूरत है।
यदि हम उनके आरोपों को पूर्वाग्रह और राजनीति से प्रेरित भी मानें, तब भी यह प्रश्न तो बनता ही है कि देश का पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध तबका इतनी सहजता से ऐसे निराधार निष्कर्षों के झाँसे में कैसे आ जाता है ? एक ओर जहाँ ‘सच्चा मुसलमान’ जैसे जुमले को शुद्धता-प्रामाणिकता का पर्याय मान लिया जाता है, वहीं दूसरी ओर हिंदू, हिंदुत्व, भगवा जैसे शब्दों के सामान्य प्रयोग को भी कट्टरता का परिचायक; एक ओर जहाँ हम इतने उदार हैं कि हर नरसंहार के बाद भी दुहराते हैं कि ”आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता”, वहीं दूसरी ओर असहिष्णुता के कथित अभियान को सत्य मान उनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। क्या कभी हमने इस पर गहन चिंतन किया कि ऐसा क्यों होता है?
वस्तुतः वामपंथ और उससे प्रेरित विचारधाराओं ने विगत सात दशकों के निरंतर प्रयासों द्वारा हमारा मानसिक अनुकूलन ऐसा कर दिया है कि हम सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व जैसे शब्दों को नितांत वर्जित और अस्पृश्य-सा मान बैठे हैं। जबकि हम जानते हैं कि हिंदू धर्म किसी समुदाय-विशेष के विरुद्ध कभी भी नहीं रहा, न उसमें विश्वास रखने वाले शक्ति-संगठन ही किसी के विरुद्ध रहे।
हाँ, यह अवश्य है कि इस देश के आम नागरिकों में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिनका विरोध अपसंस्कृति और तुष्टिकरण की उस कुत्सित मानसिकता के प्रति सदैव रहा है, जिसकी जड़ें विदेशी हैं, जिसके आदर्श व नायक विदेशी हैं और जिसका मूल चरित्र भी अ-भारतीय है। उनका विरोध उस घृणित-विभाजनकारी मानसिकता से है, जो हमें बाँटकर इस देश को सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से दुर्बल करती रही है, और दुर्बल करना चाहती है।
अतीत में हमने इतना कुछ खोया है कि यह चिंता निराधार नहीं लगती। इस मानसिक अनुकूलन के कारण ही हमें असत्य भी सत्य प्रतीत होता है, युग विशेष में प्रचलित-प्रक्षेपित भ्रांतियाँ और रूढ़ियाँ ही वास्तविक जान पड़ती हैं। आज आवश्यकता इस मेंटल कंडीशनिंग से मुक्त होने की है।
किसी को इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि संगठित सनातन हिंदू शक्ति व संस्कृति ही अंधकारग्रस्त विश्व को नवीन आलोक-पथ पर लेकर जाएगी। हिंसा और कलह से पीड़ित मानवता को उसी से त्राण मिलेगा। यदि कोई उस शक्ति को भारतीय कहना चाहे तो निःसंकोच कहे, पर भारत की जिस संस्कृति की चतुर्दिक जय-जयकार की जाती है, वह हिंदू संस्कृति ही है; भारत की जिस संस्कृति की पूरी दुनिया अनुगामिनी है, वह हिंदू-संस्कृति ही है; भारत की जिस संस्कृति की वैश्विक पहचान है, वह हिंदू-संस्कृति ही है।
हिंदुत्व एक जीवन-पद्धत्ति है, जो समस्त जड़-चेतन में एक ही सत्ता के दर्शन करना जानती है। इस समग्रतावादी जीवन-दृष्टि और महान मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए हिंदुओं का अस्तित्व और हिंदू संस्कृति का संरक्षण-संवर्द्धन इस भारत-भूमि पर अपरिहार्य है। सवाल जब अस्तित्व का हो तो बाक़ी सारी बातें गौण हो जाती हैं।
इसलिए जीवन का एकमात्र ध्येय संगठित हिंदू, संस्कृतिनिष्ठ भारत का होना चाहिए। यहाँ इसमें कोई दो मत नहीं होना चाहिए कि हिंदुत्व से निःसृत राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह का एकाकी राष्ट्रवाद नहीं है, वह संकीर्ण नहीं, आक्रामक नहीं, विस्तारवादी नहीं, अपितु सर्वसमावेशी है। वह राष्ट्रवाद शुद्धतावादी नहीं, समन्वयवादी है। वह राष्ट्रवाद एकरस नहीं, समरस जीवन-पद्धत्ति में विश्वास करता है। बल्कि राष्ट्र के साथ वाद जैसा शब्द जोड़ना ही पश्चिमी चलन है।
प्रचलित शब्दावली में जिसे राष्ट्रवाद कहते हैं, भारतीय परिप्रेक्ष्य में वह न केवल मज़हब बल्कि सब प्रकार की सीमाओं, संकीर्णताओं, संकुचितताओं से परे है। उसका संबंध समानुभूति से है, न कि किसी पंथ विशेष की मान्यताओं और परंपराओं से। मज़हब बदल लेने से पुरखे, परंपरा और संस्कृति नहीं बदलती। हिंदुत्व से समस्या उन्हें है जो थोपने में विश्वास करते हैं, जिनकी निष्ठा भारत से कम, अपने-अपने उद्गम-स्थलों से अधिक है।
जो यहाँ की धारा में रच-बस गए, जो यहाँ की मिट्टी-हवा-पानी-परिवेश में घुल-मिल गए, वे सभी पंथ-मज़हब हमारी इस मूल धारा की सहायक-अनुकूल-सहचर धाराएँ हैं। हमने जिस स्पष्टता से यह घोषणा की कि सभी रास्ते उस एक ही परम् ब्रह्म परमेश्वर की ओर जाते हैं, बताइए और किसने किया है? इसीलिए उदारता और सहजीविता हमारे रक्त-संस्कार में है, जीवनचर्या में है, तौर-तरीकों में है। हमने सहिष्णुता से आगे बढ़कर सह-अस्तित्ववादिता को व्यावहारिक धरातल पर साकार-सजीव किया है।
ध्येयनिष्ठ जीवन हमारा लक्ष्य हो और जो राष्ट्र को ऊँचाई पर ले जाए उससे बड़ा कोई ध्येय नहीं। यहाँ फिर याद दिला दूँ कि हिंदुत्व की धारा से निकली राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता या अखिल मानवता के विरुद्ध कदापि नहीं जाती। बल्कि अखिल मानवता का चिंतन यदि कहीं हुआ है तो इसी हिंदू-चिंतन में हुआ है या उससे निकले भारतीय पंथों में ही उसके स्वर सुनाई पड़ते हैं। ईसाइयत और इस्लाम ने दुनिया को कथित रूप से जो भी दिया हो पर यह न भूलें कि अपने विस्तार के लिए सामूहिक नरसंहार जैसे असंख्य कृत्य भी इतिहास में उन्हीं के नाम दर्ज हैं! जबकि हमारे चिंतन में व्यक्ति, परिवार, समाज, देश, दुनिया, अखिल ब्रहांड यानि इस चराचर में व्याप्त जड़-चेतन सभी के हिताहित की चिंता सम्मिलित है।
शेष सबने खंड का विचार किया, विखंडनवादी दृष्टिकोण लेकर वे चले, जबकि हमने समग्रतावादी दृष्टिकोण अपनाया। इसलिए समन्वय और सद्भाव का पाठ सीखने के लिए हमें किसी बाहरी धर्म-सत्ता/ प्रतिष्ठान की ओर नहीं देखना है। वह हमारी जीवन-पद्धत्ति का अभिन्न हिस्सा है और उसे बचाने के लिए ही संगठित हिंदू शक्ति या सांस्कृतिक पुनरुत्थान की आवश्यकता है।
कुछ विद्वान तर्क देते हैं कि हम हज़ारों वर्षों की ग़ुलामी से नहीं टूटे तो अब क्या कोई हमें ख़ाक तोड़ेगा? तो सनद रहे कि विधर्मियों-विदेशियों ने विगत सौ-दो सौ वर्षों में ही भारत के अनेक टुकड़े किए। पिछले 500 वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुओं की कम होती जनसंख्या और भारत से बाहर अपनी जड़ें तलाशने वालों की बढ़ती जनसंख्या किस कहानी को बयाँ करती है?
क्या हम एक ऐसी कौम के रूप में याद किए जाना पसंद करेंगे जो इतिहास से भी कुछ नहीं सीखती, जो चोट खा-खाकर भी अपनी उन्हीं कमजोरियों को दुहराती है, कोई हमें बाँटता है और हम बँटना स्वीकार कर लेते हैं! हिंदुत्व को संकीर्णता का पर्याय घोषित करने वाले हमें बताएँ कि जातीय अस्मिता के लिए लड़ना-झगड़ना सामाजिक न्याय की लड़ाई कैसे और सांस्कृतिक अस्मिता के लिए स्वयं को होम कर देना कट्टरता कैसे हो जाती है?
अब समय आ गया है कि हमें जाति-मजहब से ऊपर उठकर सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयत्न करने चाहिए। पुरखों द्वारा किए गए किसी मानापमान के सवालों में उलझना संगठित ताक़त को कमज़ोर करना है, हमारी पराजय चाहने वालों को भी हमारी इस चिर-परिचित दुर्बलता का बोध है, इसलिए विभाजनकारी-वामपंथी गठजोड़ हमें लड़ाती-भिड़ाती रहती है।
समग्र और संगठित हिंदू समाज के लिए जरूरत पड़ने पर अपने पीछे छूट गए बंधुओं के पद-प्रक्षालन हेतु भी हमें सहर्ष तैयार रहना चाहिए, रूठे हुओं को हाथ जोड़ मनाना पड़े तो मनाना चाहिए। जो वापस आना चाहें, उन्हें खुशी-खुशी गले लगाना चाहिए। हर उस व्यवहार और नीति का स्वागत करना चाहिए, जो हमारी संगठित शक्ति को और बढ़ाए। हिंदुत्व को जीवन-पद्धत्ति व सनातन को संस्कृति मान जो लोग भी साथ चलना चाहें उनका स्वागत करना चाहिए, पंथ बदलने से संस्कृति नहीं बदलती, ऐसा मानने वाले ही हमारे सच्चे सहचर हैं और होने चाहिए।
इस चिर पुरातन, चिर नवीन सनातन जीवन-पद्धत्ति को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने के लिए एक तंत्र चाहिए, उसे ताकत और गति प्रदान करने के लिए एक सामूहिक-स्थूल-प्रत्यक्ष शक्ति चाहिए। उस प्रत्यक्ष शक्ति और तंत्र को सत्य-साकार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सामाजिक संगठन निरंतर सक्रिय व सचेष्ट हैं।
परंतु इस महान लक्ष्य को साधने के लिए अकेले संघ का प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। जनसाधारण एवं अन्य धार्मिक-आध्यात्मिक संगठनों को भी ऐसे प्रयासों को तीव्रतर करने में अपना योगदान देना चाहिए। क्योंकि शक्ति के बिना क्रिया संभव नहीं, शक्ति के बिना गति संभव नहीं, शक्ति के बिना शिव संभव नहीं, शक्ति के बिना शुभ व सुंदर संभव नहीं।
शक्ति के बिना सुंदरता का कोई मोल नहीं, फिर वह शुभ-सुंदर तो लुटने-लुटाने में ही श्रीहीन हो जाता है। हर आँख वाला यह देख सकता है कि जब-जब हिंदू और उससे निकले मत-मतांतर का प्रभाव घटा, देश बँटा-छँटा। हिंदू घटा, देश बँटा, यह केवल नारा नहीं, युगसत्य है। जन-जन को इस युगसत्य की सच्ची प्रतीति कराना समय की माँग है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)