कांग्रेस पार्टी को मुस्लिम तुष्टिकरण की जननी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आजादी के बाद नेहरू से आज राहुल गांधी तक यह पार्टी तुष्टिकरण की राजनीति को समर्पित रही है। आजादी के बाद घरेलू ही नहीं, विदेशी नीति भी तुष्टिकरण से तय होती थी। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जिन मुसलमानों के नाम पर कांग्रेस ने देश में तुष्टिकरण की नीति का आगाज किया उन मुसलमानों की माली हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई। दूसरी विडंबना यह हुई कि कांग्रेसी तुष्टिकरण का संक्रमण क्षेत्रीय पार्टियों, मीडिया, बुद्धिजीवियों तक होता गया।
आजादी के बाद देश में जिस मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का बीजवपन हुआ, वह आगे चलकर वटवृक्ष बन गया। भारत दुनिया का इकलौता देश बना जहां बहुसंख्यकों के हितों की कीमत पर अल्पसंख्यकों को वरीयता दी गई। कांग्रेसी तुष्टिकरण का पहला नमूना आजादी के तुरंत बाद देखने को मिला जब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने गुलामी के पहले कलंक (सोमनाथ मंदिर के ध्वस्तीकरण) को मिटाने के लिए भव्य सोमनाथ मंदिर बनाने की पहल की।
लेकिन मुस्लिमपरस्ती के चलते प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने न सिर्फ सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुर्नर्स्थापना के कार्य से खुद को अलग कर लिया बल्कि तत्कालीन सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को आदेश दिया कि मंदिर निर्माण में सरकार का एक भी पैसा नहीं लगना चाहिए। इतना ही नहीं, जब राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद पुर्नर्निमित सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करने जाने लगे तब नेहरू ने उन्हें रोकने की नाकाम कोशिश भी की।
घरेलू नीतियों के साथ-साथ भारत की विदेश नीति पर भी कांग्रेसी तुष्टिकरण की काली छाया पड़ती रही। इसका ज्वलंत उदाहरण है भारत के फिलीस्तीन व इजराइल से संबंध। मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए भारतीय नेताओं ने फिलीस्तीन का समर्थन किया और आड़े वक्त में साथ देने वाले इजराइल से मुंह फुलाए रखा। इतना ही नहीं, जो भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फिलीस्तीनियों के मानवाधिकारों के हनन पर आंसू बहाती थी, वह भारत सरकार पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में हिंदुओं-सिखों पर हो रहे अत्याचार पर खामोश रही।
तुष्टिकरण की ही राजनीति का नतीजा है कि 1960 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत के हितों का बलि देकर पाकिस्तान के साथ सिंधु नदी जल समझौता किया। दुनिया में इस तरह का एकांगी समझौता कहीं नहीं मिलेगा। समझौते के मुताबिक सिधु, रावी, व्यास, चेनाब, सतलुज और झेलम नदियों को पूर्वी और पश्चिमी भाग में बांटा गया है।
पूर्वी नदियों (सतलुज, व्यास और रावी) पर भारत का अधिकार है जबकि पश्चिमी नदियों (सिंधु, चेनाब और झेलम) पर पाकिस्तान का अधिकार माना गया। समझौते के तहत भारत की छह नदियों के कुल 16.8 करोड़ एकड़ फीट पानी में से भारत के हिस्से में आवंटित नदियों का पानी केवल 3.3 करोड़ एकड़ फीट है जो कुल का लगभग 20 प्रतिशत है।
सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि भारत अपने हिस्से के इस अल्पांश पानी का भी इस्तेमाल नहीं कर पाया और पानी बहकर पाकिस्तान जाने लगा। मोदी सरकार इस पानी को रोकने के लिए तीन परियोजनाओं को तेजी से पूरा कर रही है। इन परियोजनाओं में शाहपुर कांडी बांध परियोजना, पंजाब में दूसरा सतलुज-ब्याज संपर्क और जम्मू-कश्मीर में ऊझ बांध शामिल है। ये परियोजनाएं अब तक लाल फीताशाही और अंतरराज्यीय विवादों में उलझी थीं, लेकिन मोदी सरकार ने इनकी बाधाओं को दूर कर दिया है।
कांग्रेस की इस तुष्टिकरण की नीति का असर दूसरी राजनीतिक पार्टियों पर भी पड़ा और वे मुस्लिम वोट बैंक छिटकने के डर से हिंदुओं के हित में बोलने से कन्नी काटने लगीं। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी, एन चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं की मुस्लिमपरस्ती एक दिन में नहीं आई है।
यह सब कांग्रेसी तुष्टिकरण रूपी वटवृक्ष के फल हैं। दरअसल कांग्रेस द्वारा क्षेत्रीय अस्मिताओं की उपेक्षा और तानाशाही से उपजी क्षेत्रीय पार्टियों ने मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए मुसलमानों के सशक्तिकरण की बजाय तुष्टिकरण का कांग्रेसी फार्मूला अपना लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि एक ओर मुसलमानों का पिछड़ापन बढ़ा तो दूसरी ओर कट्टरपंथ को उर्वर जमीन मिली।
जिस मीडिया को चौथा पाया और जिन बुद्धिजीवियों को सरकार पर सतर्क नजर रखने वाला माना जाता है, कांग्रेस ने उन्हें भी तुष्टिकरण के दलदल में डुबो दिया। आज मीडिया और बुद्धिजीवियों का हिंदू विरोधी रवैया इसी का नतीजा है। 2014 के पहले तक हर चुनाव के दूसरे दिन अखबारों में पोलिंग बूथ पर बुर्कानशी महिलाओं की लंबी-लंबी कतार वाली फोटो छपती थी, लेकिन 2014 के बाद अखबार मालिकों-संपादकों को याद आ गया कि हिंदू महिलाएं भी वोट देने आती हैं। इसीलिए अब पोलिंग बूथ पर सिंदूर-बिंदी लगी महिलाएं दिखने लगी हैं। समग्रत: आज की राजनीतिक व्यवस्था, मीडिया व बुद्धिजीवी वर्ग कांग्रेस की तुष्टिकरण रूपी दलदल में गहराई तक धंसे हुए हैं। इन्हें बाहर निकालने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)