बाबा गंगादास जी ने रानी साहिब को गंगाजल पिलाया। उनकी चेतना कुछ-कुछ वापस आ गयी थी। दर्द से पूरा शरीर पीला पड़ चुका था। उनके शरीर की चोटों से रक्त प्रवाहित होकर इस देश की माटी में सदा-सदा के लिए घुल गया। रानी साहिब ने अश्रुपुरित नेत्रों तथा भारी कंठ से कहा- ‘‘हे माँ! तेरी ये बेटी बस इतनी ही सेवा कर पाई।’’
फिरंगी : मैंने बोला न इधर आओ, इस पर हम बैठेगा।
साईस : नाहि साहिब! ई नाहि होई सकत, ई घोड़ा पर तो केवल युवराज साहिब ही बैठत हैं।
फिरंगी (क्रोधित स्वर में) : यू ब्लडी इंडियन! तुम हमको मना करता। गिव मी दैट… (हाथ से चाबुक छीनकर पीटने लगता है)
तभी एकाएक एक तेजस्विनी बालिका (आयु 7-8 वर्ष) वहाँ पहुँचकर उस फिरंगी अफसर के हाथ से चाबुक छीन लेती है।
बालिका : ए फिरंगी! तेरा ये दुस्साहस!! तूने हमारे बासुदा को मारा! (और दनादन उस फिरंगी अफसर को चाबुक से पीटने लगती है।) चल माफी माँग!’’
ऐसी वीरांगना थीं हमारी प्यारी मनु। हाँ, ठीक समझा आपने… ये वही मनु हैं, जिन्हें बचपन में मणिकर्णिका और विवाहोपरांत महारानी लक्ष्मीबाई के नाम से जाना जाता है।
विश्व की सबसे प्राचीनतम नगरी, महादेव की काशी (उत्तर प्रदेश) में इस महान वीरांगना का जन्म 19 नवंबर, 1835 में हुआ। इनके पिता श्रीमान् मोरोपंत तांबे एक मराठी ब्राह्मण थे तथा माता श्रीमती भगिरथी बाई एक विदुषी महिला थीं। मनु अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और मात्र चार वर्ष की आयु में ही उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था। घर में कोर्इ और उनकी देखभाल के लिए नहीं था इसलिए वे भी अपने पिता के साथ कानपुर के पेशवा श्रीमंत बाजीराव (द्वितीय) के दरबार जाने लगी।
नन्हीं मनु को पेशवा साहिब प्रेम से ‘छबीली’ बुलाते थे। अपने मधुर व्यवहार से मनु ने सबका दिल जीत लिया था। पेशवा साहिब के दत्तक पुत्रों, नाना साहिब और राव साहिब के साथ ही वो पली-बढ़ी थी। उनके गुरु श्री तात्या टोपे एक वीर योद्धा और महान देशभक्त थे।
अब मनु शस्त्र-विद्या के साथ-साथ शास्त्र विद्या में भी पारंगत होने लगी थी। एक सच्चे गुरु की भाँति ही तात्या जी ने मनु को जीवन जीने की सही दिशा प्रदान की। बचपन से उसके हृदय में राष्ट्रभक्ति के बीज बोकर उसके जीवन को सार्थक व उद्देश्यपूर्ण बना दिया।
मनु एक विलक्षण कन्या थी। वह साहसी, निडर, शौर्यवान तथा कुशाग्र बुद्धि वाली थी। एक बार राज्य में एक पागल हाथी घुस आया था। उसने तबाही मचा रखी थी, किसी को उसके समक्ष जाने का साहस न हुआ। किन्तु जब मनु को इस बात का भान हुआ, तब वो बिना क्षण गँवाए उस हाथी को काबू करने निकल पड़ी और उसमें सफल भी हुई। तब वह मात्र आठ वर्ष की थीं।
उन्हें बचपन से ही छत्रपति शिवाजी महाराज की वीर गाथाएँ जुबानी याद थीं। शिवाजी महाराज के स्वराज के स्वप्न को आगे चलकर मनु ने भी जिया और अंग्रेजों से लोहा लिया। स्वदेश की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। वे सदैव कहती थीं – ‘‘इस मिट्टी ने मुझे जिस गौरव के साथ अपनाया है, इसकी रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँगी।’’
एक बार श्रीमंत पेशवा साहिब परिवार सहित अपने एक मित्र राजा के राज्य में एक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए जाते हैं। उस राज्य में अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी जड़ें मजबूत कर रखी थीं। वे वहाँ की जनता पर बहुत अत्याचार करते थे। लोगों में उनका भय चरम पर था।
वहां पहुँचकर तात्या गुरु बच्चों को लेकर घूमने निकले। उन्होंने देखा कि दुष्ट फिरंगी अफसर राज्य के एक बुजुर्ग को सता रहा है और उस बुजुर्ग की पगड़ी उछालकर दूर फेंक देता है। इस पर क्रोधित होकर वे उस फिरंगी अफसर पर गरजते हैं- ‘‘ये केवल पगड़ी ही नहीं अपितु हम भारतवासियों के गौरव का प्रतीक भी है। तुम्हें इनसे क्षमा माँगनी चाहिए।’’
अंग्रेज : ‘‘यू ब्लडी इंडियन! तुम हमसे जुबान लड़ाता है। चलो एक खेल खेलेगा। अगर हम उसमें जीता तो हम थूकेगा और तुमको चाटना होगा।’’
अपने गुरु के इतने बड़े अपमान से मनु आग-बबूला हो उठी। उसने क्रोधित स्वर में कहा- ‘‘ए फिरंगी! तू क्या हमारे गुरु का मुकाबला करेगा? यदि है साहस तो आ, पहले हमसे और हमारे नाना भाऊ से निपट कर दिखा, और याद रख यदि तू हारा तो तुझे मेरे गुरु और बूढ़े बाबा से हाथ जोड़कर क्षमा माँगनी होगी और ससम्मान पगड़ी भी पहनानी होगी।“
फिरंगी अफसर ने कुटिल मुस्कान दी और फिर जॉस्टिंग नामक खेल के लिए चुनौती दी। इस खेल को केवल फिरंगी ही जानते थे, हम भारतीय इससे अपरिचित थे। वे इस मामूली से खेल में भी छल करने से बाज नहीं आए। बुद्धिमान् मनु ने पहले ही अंग्रेजों की चाल को समझ कर तात्या गुरु को आगाह कर दिया था। अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए मनु ने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी और शर्तानुसार उस फिरंगी ने माफी माँगी और पगड़ी पहनाई।
मनु के प्रभावशाली व्यक्तित्व से कोई भी अछूता नहीं रह पाया था। झांसी राज्य से आए एक प्रकाण्ड पंडित तात्या दीक्षित भी इस घटना के साक्षी थे और मन ही मन में सोच रहे थे कि यदि झांसी को ऐसी वीरांगना महारानी मिल जाती तो कितना अच्छा होता।
किशोरावस्था में प्रवेश करते ही मनु का विवाह झांसी नरेश श्रीगंगाधर राव नेवालकर से हो गया। वीरता और वैभव का मिलन हुआ। प्रजा अपनी महारानी को पाकर बहुत हर्षित थी। विवाहोपरान्त भी रानी साहिब अपने लक्ष्य पर अडिग रहीं हालाँकि उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा। भारतमाता की रक्षा और सेवा का संकल्प उन्होंने और दृढ़ किया।
उन्होंने जन-जागृति का कार्य तत्परता से आरंभ किया। झांसी की प्रजा में राष्ट्रभक्ति की अलख जगार्इ। अपनी सेवा में नियुक्त दासियों से मित्रवत् व्यवहार कर, भारतमाता की सेवा की गुहार लगार्इ। रानी साहिब ने राज्य की सभी स्त्रियों को प्रशिक्षण देकर उन्हें शस्त्र विद्या सिखार्इ ताकि संकट की घड़ी में वे भी अपना योगदान दे सकें। देखते ही देखते रानी साहिब ने उनकी एक विशाल सेना ही खड़ी कर दी जिनमें मुंदर, काशी, मोतीबाई, झलकारी बाई आदि प्रसिद्ध हैं। स्त्री सशक्तिकरण का यह सर्वोच्च उदाहरण है।
ईश्वर की असीम अनुकम्पा से रानी साहिब को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। प्रजा ने अपने युवराज का हर्षोल्लास से स्वागत किया। महाराज गंगाधर राव ने नन्हें शिशु को दामोदर राव नेवालकर नाम से संबोधित किया। झांसी को वारिस मिलता देख फिरंगियों को मिर्ची लग गर्इ। वे नन्हें युवराज की हत्या के लिए नए-नए षड्यंत्रों को अंजाम देते रहे और अंतत: मात्र चार माह की अल्पायु में ही युवराज चल बसे। इस घटना से पूरी झांसी शोकाकुल हो गयी। रानी साहिब पर यह पहला वज्र प्रहार था।
तत्पश्चात् झांसी नरेश का भी स्वास्थ्य गिरता गया। फिरंगियों को तब भी चैन नहीं मिला। वे तरह-तरह की योजनाएँ बना कर झांसी पर कब्जा करने का प्रयास करते रहते थे। वे महाराज पर संधि कर लेने का दबाव बनाते और बदले में पेंशन तथा अन्य सुविधाएँ प्रदान करने का प्रस्ताव रखते।
अंग्रेजों के इस कृत्य से महाराज क्रोधित व चिंतित थे। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने प्रजा के हित में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। उन्होंने अपने चचेरे भाई के पुत्र आनन्द राव को गोद लेकर उसे झांसी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
वह भी दामोदर राव के नाम से ही जाना गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के ‘गर्वनर जनरल लॉर्ड डलहौजी’ ने ‘डॉक्टरीन ऑफ लैप्स’ के तहत महाराज के निर्णय का बहिष्कार किया। उनके दत्तक पुत्र को अगला राजा स्वीकार ना करके महाराज पर दबाव बनाया कि वे झांसी को अंग्रेजों के हवाले कर दें। इस घटना से उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया और 21 नवम्बर, 1853 को उन्होंने अंतिम श्वांस ली।
इस दु:ख और संकट की घड़ी में भी रानी साहिब ने हिम्मत नहीं हारी। फिरंगियों को लगा कि अब तो झांसी उनकी हुर्इ। पहले तो उन लोगों ने रानी साहिब को तरह-तरह के प्रलोभन दिये और जब वे नहीं मानीं तब अंग्रेजों ने उन पर किला छोड़ने का दबाव बनाया। भारतमाता के चरणों की धूल को अपने मस्तक पर लगाते हुए रानी साहिब ने गर्जना की- मैं अपनी झांसी नहीं दूँगी।
रानी साहिब के मजबूत इरादे और राष्ट्रभक्ति को देख उन लोगों ने सीधा आक्रमण करने की योजना बनाई। इधर झांसी भी अब रण के लिए तैयार थी। समस्त प्रजा को अपनी रानी साहिब पर अटूट विश्वास था।
रघुनाथ सिंह, तात्या टोपे, कर्मा, गौस खान, भील समाज आदि अनेक वीर योद्धा मातृभूमि के लिए लड़ने हेतु प्रस्तुत थे। इस युद्ध में इन वीर योद्धाओं के साथ झांसी की वीरांगनाओं की टुकड़ी ने भी मोर्चा संभाला। गौस खान साहिब उस जमाने के विख्यात तोपची थे और अपनी सबसे बड़ी तोप ‘कड़क बिजली’ से उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे।
इस भीषण युद्ध में सैन्य बल से बहुत कम होने के बावजूद भी कुशल रणनीति और आत्मबल के कारण रानी साहिब ने विजय प्राप्त की। किन्तु इस युद्ध में उन्होंने कर्इ वीर योद्धाओं को खो दिया जिनमें से एक गौस खान साहिब भी थे। उनका बलिदान राष्ट्र के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया।
इतनी करारी हार के बाद ये धूर्त्त फिरंगी चुप नहीं बैठने वाले थे। उन्होंने बड़ी योजना के तहत झांसी के आस पास के राज्यों को हड़पना प्रारम्भ कर दिया। कुछ स्वार्थी, सत्ता लोभी राजाओं ने अपनी जान बचाने के लिए दुश्मनों से हाथ मिला लिया। आजीवन उनकी चाटुकारिता और दासता स्वीकार कर ली।
अब यहीं से शुरू होती है भारतवर्ष के इतिहास की वह स्वर्णिम गौरवगाथा जिसे ‘1857 की क्रान्ति’ के नाम से जाना जाता है। धूर्त फिरंगियों के विरुद्ध यह पहला स्वतंत्रता संग्राम था। पूरा भारतवर्ष त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कर रहा था। क्रान्ति की ज्वाला सभी के हृदय में धधक रही थी। बंगाल रेजिमेन्ट के वीर सेनानी मंगल पाण्डे ने अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर दिया और परिणामस्वरूप उन्हें फांसी दे दी गर्इ।
इससे पूरा भारतवर्ष आक्रोशित हो उठा। समय की माँग थी कि सब एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ें और भारतमाता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करवाएँ। ‘फूट डालो और राज करो’ वाली रणनीति के तहत अंग्रेज राज्य जीतते जा रहे थे।
अकेला झांसी ही एक राज्य था जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी की जड़ें हिलाकर रख दी थी। महारानी लक्ष्मीबार्इ के नाममात्र से अंग्रेज थर-थर कांप उठते थे। परन्तु वो दिन आ ही गया जब एक बार पुन: विशाल सैन्य बल से अंग्रेजों ने झांसी किले पर कूँच किया।
माँ भवानी को याद कर रानी साहिब ने मानो स्वयं ही रणचण्डी का अवतार धर लिया। उनके मुख मण्डल पर तेज, आँखों में आत्मविश्वास, भुजाओं में पर्वत को भी चूर कर देने का बल और राष्ट्रभक्ति का रंग कुछ इस कदर चढ़ा था कि देखने वाला देखता रह जाए।
रानी साहिब ने युद्ध से पूर्व अपने सैनिकों का उत्साहवर्धन करते हुए कहा- ‘‘हे वीर सैनिकों! हम दुश्मन से भले ही सैन्य बल में कम हैं, परन्तु हमारा आत्मबल उनसे कर्इ गुणा अधिक है। विजय अवश्य हमारी ही होगी। हर-हर महादेव…’’
धूर्त फिरंगी पूरी तैयारी के साथ आए थे। उनकी सेना प्राचीन व आधुनिक दोनों ही हथियारों से लैश थी। बाहरी संकट से निपटना तो आसान था परन्तु झांसी के गर्भ में एक विषैला सर्प पल रहा था। ‘राव दुल्हाजु’ नामक एक गद्दार ने रानी साहिब की सारी योजनाएँ जाकर दुश्मनों को पहले ही बता दी थीं। इतना ही नहीं उसने तो चंद रुपयों की खातिर किले की कमजोर दीवार का भी भेद अंग्रेजों को दे दिया।
किले में रानी साहिब ने प्रजा को भी आश्रय दिया था और उनकी सुरक्षा दृष्टि से उन्होंने अपनी एक सैन्य टुकड़ी को उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाने का आदेश दिया। रानी साहिब वीरता की प्रतिमूर्ति थीं। उन्होंने पुत्र दामोदर को अपनी पीठ पर बाँध लिया। घोड़े की वल्गा को अपने दाँतों में भींच लिया और दोनों हाथों में तलवार धारण कर लिया। मानों साक्षात् माँ दुर्गा दुष्टों के संहार हेतु प्रस्तुत हों।
अंग्रेजों को काटते-चीरते बड़े वेग से रानी साहिब आगे बढ़ रही थी। उनके समक्ष देशद्रोही राव दुल्हाजू बाधा बनकर खड़ा था। वो उन्हें ललकार रहा था। तलवार के एक ही वार से रानी साहब ने उस गद्दार का सिर कलम कर दिया। किन्तु वे चारों ओर से अंग्रेजों की सेना से घिरी हुर्इ थी। कोर्इ अन्य विकल्प शेष न था इसलिए रानी साहिब ने एक कठोर निर्णय लिया।
उन्होंने पुत्र दामोदर को कसकर बाँध लिया और तीव्र गति से घोड़ा दौड़ाते हुए, हर-हर महादेव के जयघोष के साथ किले की ऊँची दीवार से छलाँग लगा दी। फिरंगी उनके पीछे भागे तो जरूर पर किसी में भी वहाँ से कूदने का साहस न था। रानी साहिब को संरक्षण देते हुए वीर योद्धा कर्मा ने अंग्रेजों को काफी देर तक किले में ही उलझाए रखा और अंतत: वीरगति को प्राप्त हुए।
आगे घनघोर जंगल था, जहाँ रानी साहिब की भेंट वीरांगना झलकारी बार्इ से हुर्इ। वे हू-ब-हू महारानी जैसी दिखती थी। पीछे आ रही अंग्रेजी सेना को झलकारी बार्इ ने भ्रमित कर अपने साथ उलझा लिया। इधर रानी साहिब कालपी की ओर प्रस्थान करती हैं और उधर अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ते-लड़ते झलकारी बाई शहीद हो जाती है। मूर्ख अंग्रेज ये सोचकर जश्न मनाने लगते हैं कि वे महारानी लक्ष्मीबार्इ की हत्या करने में सफल हुए।
कालपी में रानी साहिब की भेंट तात्या टोपे, राव साहब और ओरछा की वीरांगना महारानी लड़ाई सरकार से होती है। वे अब ग्वालियर नरेश से सहायता माँगने के लिए प्रस्थान करते हैं क्योंकि ग्वालियर कालपी से निकट भी था और समृद्धशाली भी। परन्तु ग्वालियर नरेश जियाजी राव सिंधिया लोभी, स्वार्थी और सत्ताप्रेमी था।
उसके द्वारा निर्वाचित एक दीवान दिनकर राव भी उसी की तरह अंग्रेजों का चाटुकार था। उसी ने महारानी के जीवित होने और ग्वालियर से सहायता माँगने की खबर अंग्रेजों तक पहुँचवा दी। इतना ही नहीं उसने तो ओरछा की रानी लड़र्इ सरकार की भी हत्या करवा दी क्योंकि वे उसका भेद जान गयी थीं।
अंग्रेजों ने एक बार पुन: अपनी कुत्सिक मानसिकता का परिचय देते हुए ग्वालियर नरेश को प्रलोभन देकर अपने साथ मिला लिया। ग्वालियर नरेश ने युद्ध की घोषणा की परन्तु वहाँ की राष्ट्रभक्त प्रजा व कुछ सैनिकों ने भी राजा के निर्णय पर खेद जताया और रानी साहिब से जा मिले। वे भी ‘पूर्ण स्वराज’ के इच्छुक थे। छोटा सा युद्ध हुआ जिसमें ग्वालियर नरेश की हार हुई और रानी साहिब ने उसे जीवित ही छोड़ दिया।
ग्वालियर पर अब पेशवा राव साहिब का आधिपत्य था। परन्तु वे तो पद मिलने के बाद यह भूल ही गए कि उन्हें अंग्रेजों से लड़कर भारतमाता को आजाद करवाना है। वे केवल नृत्य-नाटिका, संगीत एवं मद्यपान में अपना पूरा समय नष्ट करते। समय बीतता जा रहा था, रानी साहिब भीतर से अशांत व विचलित रहती थीं। वे नित रणनीतियाँ बनाती और सैन्याभ्यास करवातीं।
वहाँ रहते हुए एक दिन उन्हें बाबा गंगादास जी के बारे में ज्ञात हुआ। वे उनके पिता के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने उनसे मिलने की उत्सुक्ता जतार्इ। उनका आश्रम ‘बाबा गंगादास की बड़ी शाला’ के नाम से आज भी सुविख्यात है। बाबाजी से भेंट करते ही रानी साहिब की चिंताएँ व शंकाएँ भी दूर हो गयी। वे ‘पूर्ण स्वराज’ के महान् उद्देश्य के प्रति और अधिक दृढ़ व संकल्पबद्ध हो गयी।
18 जून 1858 का दिन एक निर्णायक दिन था। धूर्त फिरंगियों और महारानी लक्ष्मीबाई के बीच अंतिम महासंग्राम का दिन था।
बिगुल और शंखनाद से रणभूमि गूँज रही थी। हर-हर महादेव और भारतमाता की जयकार से युद्ध भूमि थर्रा उठी। रानी साहिब का एक-एक योद्धा सौ पर भारी पड़ रहा था। चारों तरफ रक्त की नदियाँ बह रही थी। साक्षात् रणचण्डी देवी ही दुष्टों का संहार कर रही थी। फिरंगियों के छक्के छूट गए।
किन्तु नियति की कुछ और ही माँग थी। गद्दार ग्वालियर नरेश जियाजी राव सिंधिया इस युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष से सम्मिलित हो गया। अपने राजा को समक्ष पाकर बागी सैनिकों ने हथियार डाल दिये। इस धर्म युद्ध में रानी साहिब की सहायता हेतु ‘बाबा गंगादास की शाला’ में संतों ने भी भाग लिया और अंग्रेजी फौज में मारकाट मचा दी। अनगिनत योद्धा इस स्वाभिमान की लड़ाई में शहीद हो गए।
रणभूमि से मिल रही सूचनानुसार बाबा गंगादास को पूर्वाभास हो गया कि रानी साहिब की शहादत किसी भी क्षण हो सकती है। उन्होंने अपने विश्वस्त साधुओं की प्रशस्त्र टुकड़ी तथा रानी साहिब के एक सरदार के साथ युवराज दामोदर राव को सुरक्षित स्थान पर पहुँवा दिया।
युद्ध अब भयावह रूप ले चुका था। आकाश में गिद्ध उड़ रहे थे और चहूँ ओर लाशें बिछी हुर्इ थी। जनरल ह्यूरोज़ धीरे-धीरे रानी साहिब की तरफ बढ़ रहा था। शेरनी अब गीदड़ों से घिरी हुर्इ थी। कायर फिरंगियों ने रानी साहिब पर पीछे से प्रहार किया और ह्यूरोज ने उन पर गोलियाँ बरसा दी। वे अचेत हो गयी।
बाबा गंगादास ने अपने वीर संतों को पहले ही यह सूचित कर दिया था कि रानी साहिब के पवित्र देह को अंग्रेज स्पर्श भी न कर सकें। लिहाजा उनके अंतिम क्षण में साधुओं की टोली ने उन्हें सुरक्षित आश्रम तक पहुँचा दिया। इस महासंग्राम रूपी यज्ञ में कुल ७४५ वीर संतों ने अपनी आहुति दे दी।
बाबा गंगादास जी ने रानी साहिब को गंगाजल पिलाया। उनकी चेतना कुछ-कुछ वापस आ गयी थी। दर्द से पूरा शरीर पीला पड़ चुका था। उनके शरीर की चोटों से रक्त प्रवाहित होकर इस देश की माटी में सदा-सदा के लिए घुल गया। रानी साहिब ने अश्रुपुरित नेत्रों तथा भारी कंठ से कहा- ‘‘हे माँ! तेरी ये बेटी बस इतनी ही सेवा कर पाई।’’
मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में ही क्रांति की अग्निशिखा महारानी लक्ष्मीबाई समस्त भारतवर्ष को जगाकर स्वयं चिर निद्रा में लीन हो गयीं। आश्रम में लकड़ियों के अभाव के कारण बाबा गंगादासजी ने अपनी कुटिया तुड़वाकर चिता तैयार की और रानी साहब का अंतिम संस्कार कर दिया। बौखलाए अंग्रेजों को सिवाय राख के कुछ भी हासिल न हुआ।
(लेखिका कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)