भारत में आज़ादी के बाद सत्ता ने स्वतंत्रता आंदोलन का श्रेय वोटों की राजनीति में परिणत कर दिया। यही कारण रहा कि तिलक जैसे महापुरुष इतिहास के चंद पन्नों में सिमटकर रह गए। उन्हें इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो उनके योगदान को देखते हुए मिलनी चाहिए थी। किन्तु समय इतिहास के महापुरुषों को सहेज कर रखता है और समाज और सत्ता को उनकी तरफ समय दर समय आकर्षित भी करता है।
तिलक का जीवन-चरित्र और संघर्ष नदी के विपरीत दिशा में बहने वाले नाविक का रहा है। वो अपने जीवन में सिर्फ स्वयं-सिद्धि के कार्यों में नहीं लगे हुए थे बल्कि ऐसे लोगों और संस्थाओं की तलाश में थे जो राष्ट्रवाद की अलख जगा सकें। तिलक की बहुआयामी प्रतिभा उनके कार्यों से स्पष्ट होती है।
चाहे राष्ट्रीयता का उद्घोष करती हुई उनकी पत्रकारिता हो, अंग्रेजी सदन में तीक्ष्ण भाषण देता हुआ उनका वक्तव्य हो, कांग्रेस में राष्ट्रीयता की उर्जा का संचार करता हुआ उनका कार्य हो, बंगाल विभाजन का विरोध हो या जनमानस को स्वराज समझाने की बात हो। उनके सभी कार्यों का केवल एक हीं निहतार्थ था, राष्ट्रवाद का बीज रोपण।
विपरीत परिस्थिति
1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। अंग्रेजों ने इसे कुचल दिया। 28 साल बाद बुद्धिजीवीयों ने कांग्रेस की स्थापना की जिसमें ‘थ्री-पी’ का सिद्धांत रखा गया। अर्थात प्रेयर, पेर्सुअसन और पेटीशन। दौर अगर यही चलता तो स्वतंत्रता संग्राम की तस्वीर ही कुछ और होती। लेकिन 1890 में तिलक कांग्रेस से जुड़े जिसके बाद कांग्रेस के राजनीति और रणनीति की पूरी धारा बदलनी शुरू हो गई। कांग्रेस पेटिसन से एग्रेसन वाले संस्था के रूप में बदल गई। अब कांग्रेस के मंच से भारत के स्वतंत्रता सेनानीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ खुले आम बोलना शुरू कर दिया था। जहाँ बाधा आई वहां तिलक ने उसे तोड़ते हुए नए रंग में रंगा।
केसरी और मराठा
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ। शुरूआती शिक्षा के बाद डेक्कन कॉलेज में पढ़े। तिलक शुरुआत से हीं घोर परिवर्तनवादी प्रवृत्ति के थे। यही कारण रहा कि 1881 में मराठा और केसरी का प्रकाशन शुरू किया। एक अंग्रेजी में दूसरा मराठी में। मकसद था, आम जन को स्वराज के लिए जगाना। साथ हीं अंग्रेजों को स्वराज्य देने के लिए डराना भी। इन दोनों पत्रिकाओं ने भारत में पत्रकारिता को राष्ट्रीयता के प्रसार का माध्यम बना दिया।
साल 1897 में दो घटनाएँ घटीं। 12 जून को इतिहासकार श्री भानु जी का भाषण हुआ जिसमें उन्होंने शिवाजी द्वारा अफज़ल खां की हत्या को हिन्दू-मुस्लिम का विषय नहीं, बल्कि राजधर्म का विषय बताया। इस बात का तिलक ने भी समर्थन किया जिसके बाद 15 जून को केसरी में इस पर विस्तृत लेख छापा गया।
दूसरी घटना 22 जून को हुई। असिस्टेंट कलेक्टर रैंड की चापेकर बंधुओं द्वारा हत्या कर दी गई जिसपर पुणे में रैंड फ्लैग रोकथाम के दौरान अत्याचार करने के आरोप लग रहे थे। जनता के बीच वह एक दुर्दांत अधिकारी बन चुका था। उसका यही आतंक उसकी हत्या का कारण बना। तिलक ने इस हत्या को सही तो नहीं कहा, लेकिन इन परिस्थितियों के लिए अंग्रेजी राज पर प्रश्न चिन्ह जरूर लगा दिये।
तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जज ने उन्हें 18 महीने की सजा सुनाई, किन्तु तिलक ने अपने सफाई में बस इतना कहा, ‘भले ही जूरी को मैं दोषी लगता हूँ, किन्तु मैं निर्दोष हूँ।’ तिलक को डेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया गया। कुछ विद्वानों ने इसका लिखित विरोध भी किया। किन्तु अंग्रेज नहीं माने। अब वो जनता के लिए लोकमान्य हो चुके थे।
1908 में खुदीराम बोस को अंग्रेज अफसर की हत्या के आरोप में फांसी दी गई। तिलक ने अंग्रेजी अत्याचार पर लेख में लिखा, अंग्रेजों का ‘यह इलाज टिकाऊ’ नहीं है। उनपर राजद्रोह का मुकदमा पुनः चला। छह साल की सजा हुई। उन्हें बर्मा के मांडले जेल भेज दिया गया। तिलक इसके बावजूद भी अपने कार्यों और सिद्धातों से पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता में निर्भयता का भाव उन्होंने ऐसा भरा कि देश में कई राष्ट्रवादी पत्रिकाओं ने अंग्रजों के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया। यह तिलक की ही देन थी कि शांत कलम अब जुल्म से डर नहीं रहा था।
राष्ट्रवाद का उत्सव
1896 में तिलक ने ‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणेश उत्सव’ की शुरूआत की जिसका उद्द्येश्य था – भारत की सोई हुई जनता को गहरी नींद से जगाना। तिलक मानते थे बिना स्वराज का अर्थ जाने स्वराज प्राप्ति संभव नहीं है। ऐसे में भारत के महापुरुषों को पर्व के माध्यम से याद करने पर समाज में एकता और बंधुत्व का भाव जागृत होगा, ऐसी उनकी सोच थी। धीरे-धीरे यह यज्ञ भारत के हर कोने में होने लगे। तिलक यहाँ भी सफल हुए। अब इन उत्सवों में राष्ट्रवाद का जयघोष शुरू हो गया। जनमानस इकट्ठा होकर सत्ता के भय से मुक्त हो चुका था।
बंगाल विभाजन
तिलक कांग्रेस को वैचारिक धार देना चाहते थे। किन्तु वो सफल नहीं हो पा रहे थे। इसी बीच 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया गया। तिलक ने बंगाल विभाजन को भारत का विभाजन माना। पूरे देश से उन्होंने अपील की कि इसका विरोध किया जाना चाहिए। यही वक्त था जब लाल-बाल-पाल की जोड़ी बनी। बंगाल से बाहर भी विरोध शुरू हो गये।
तिलक के कारण स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य चार मन्त्र भारत के सामने रखे गए। इसी दौरान मालवीय जी ने हिन्दू यूनिवर्सिटी की संकल्पना बनारस के राष्ट्रीय सभा में प्रस्तुत की, तिलक ने बड़े जोरदार ढंग से समर्थन किया। भारत को तिलक जगा चुके थे, साथ ही देश को आज़ादी का अस्त्र भी वो दे चुके थे। केसरी के लेख ‘बहिष्कार योग’ में उन्होंने लिखा, ‘बहिष्कार अब चार दिनों का आन्दोलन नहीं है, बल्कि एक योग है जो सिद्धि प्राप्ति तक चलता रहेगा।‘
स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है
दिन दिसंबर, 1916 का था। स्थान लखनऊ। आयोजन था कांग्रेस लीग समझौते का। तिलक ने नारा दिया ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’। भारत के आजादी का यह घोष भविष्य की रेखा खींच चुका था। तिलक ने स्वराज विषय पर 1915 में तीन भाषण दिए। तीनों भाषण स्वराज को समझाने के लिए दिए गए थे। पहला स्थान बेलगाम था। दिन 1 मई का था। 31 मई और 1 जून को दूसरा और तीसरा भाषण अहमदनगर में दिया गया। जहां उन्होंने बड़े साफ़ शब्दों में इसे जनता को समझाया।
वैसे तो स्वराज शब्द को आज के बुद्धिजीवियों ने गांधी के साथ चिपका दिया है। किन्तु तिलक और गांधी के चिंतन में मौलिक अंतर था। गांधी, हिन्द स्वराज्य भारत से बाहर रह कर लिखे थे, वो तात्कालिक भारत के स्थितियों से कितने परिचित थे, ये कहना मुश्किल है। किन्तु तिलक ने भारत को कर्मभूमि बनाए हुए वैश्विक सोच से अवगत होकर स्वराज्य को परिभाषित किया। तिलक ने स्वराज्य की जड़ वेद में और इसकी आवयश्कता वर्तमान में बतलाई। तिलक अपने जीवन के सम्पूर्ण काल खंड में स्वराज्य की मौलिक संकल्पना को ही आधार मान कर काम करते रहे।
तिलक के लिए स्वराज भारत की समस्याओं का समाधान था। महिला शिक्षा, औद्योगिक विकास और सामाजिक सुधार बिना स्वराज के संभव नहीं हो पाएंगे, ऐसी उनकी मान्यता थी। तिलक के लिए स्वराज सत्ता और शक्ति हासिल करने का प्रश्न था। वह मानते थे कि शक्ति के बिना राष्ट्रीय विवेक और परिप्रेक्ष्य की सोच और इच्छा संभव नहीं है। ऐसे में, भारत राष्ट्र को जीवंत रखने हेतु पहली शर्त स्वराज है। साथ ही वो मानते थे कि स्वराज भारत की अस्मिता और पहचान रहा है।
विचारों को संस्थाओं के साथ जोड़ने की जरूरत
भारत में आज़ादी के बाद सत्ता ने स्वतंत्रता आंदोलन का श्रेय वोटों की राजनीति में परिणत कर दिया। यही कारण रहा कि तिलक जैसे महापुरुष इतिहास के चंद पन्नों में सिमटकर रह गए। उन्हें इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो उनके योगदान को देखते हुए मिलनी चाहिए थी। किन्तु समय इतिहास के महापुरुषों को सहेज कर रखता है और समय आने पर समाज और सत्ता को आकर्षित भी करता है। ऐसे में वर्तमान समय और सत्ता तिलक के विचारों और कार्यों के साथ न्याय कर सकते हैं।
इंडियन स्कूल ऑफ़ मास एंड कम्युनिकेशन जैसे संस्था उनके नाम पर स्थापित किए जा सकते हैं। 1 अगस्त को उनकी पुण्य तिथि मनाई जाती है। इस दिन को पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जा सकता है। निर्णय अब समाज और सत्ता को करना है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)