भले ही कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र और हरियाणा विधान सभा चुनाव के नतीजों से खुश हो रही हो लेकिन इन नतीजों से जो संकेत निकले हैं वे कांग्रेस हाईकमान के लिए निश्चित रूप से चिंतित करने वाले हैं। टिकटों के बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक में गांधी-नेहरू परिवार की कोई विशेष भूमिका नहीं रही। इसके बावजूद इन चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन में हुआ किंचित सुधार आलाकमान की नहीं, छत्रपों की मेहनत का नतीजा है। हालांकि सुधार के बावजूद सत्ता कांग्रेस की पहुँच से दूर ही रह गयी।
2014 के लोक सभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही कांग्रेस हाईकमान के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो गईं थी लेकिन चाटुकार संस्कृति के हावी होने के कारण विरोध की आवाज दब गई। जिन नेताओं ने बागी तेवर दिखाया उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसके बाद कई राज्यों में कांग्रेस को करारी हार का सामना पड़ा लेकिन हाईकमान संस्कृति के खिलाफ बोलने का दुस्साहस बहुत कम कांग्रेसियों ने दिखाया।
कांग्रेस हाईकमान को आइना दिखाने का काम पंजाब विधानसभा चुनाव के समय कैप्टन अमरिंदर ने किया। उन्होंने बिना गांधी-नेहरू परिवार के अपने दम पर जीत हासिल की। इससे यह साबित हो गया कि गांधी-नेहरू परिवार की अनुपस्थिति में राज्यों के छत्रप कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकते हैं। आगे चलकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी छत्रपों का ही प्रभाव दिखा।
अब हरियाणा और महाराष्ट्र में एक बार फिर वही कहानी दुहराई गई। हरियाणा में कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार आलाकमान की देन न होकर भूपिंदर सिंह हुड्डा के राजनीतिक कौशल का नतीजा है। उन्होंने अपने दम पर हरियाणा में कांग्रेस को बढ़त दिलाई। यही हाल महाराष्ट्र का रहा जहां कांग्रेस के प्रदर्शन में जो सुधार आया वह सोनिया-राहुल गांधी की देन न होकर अशोक चव्हाण और नितिन राउत की मेहनत का नतीजा है। क्षेत्रीय दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के मत प्रतिशत में कमी के बावजूद उसकी सीटें 41 से बढ़कर 54 हो गईं। यह भी कांग्रेस आलाकमान के लिए खतरे की घंटी ही है।
कई राजनीतिक विश्लेषक महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावी नतीजों में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी देख रहे हैं। ऐसे विश्लेषकों को जमीनी हकीकत पर ध्यान देना चाहिए। 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा को 33.20 प्रतिशत मत मिले थे जो कि 2019 के विधान सभा चुनाव में बढ़कर 36.50 प्रतिशत हो गए।
महाराष्ट्र में पार्टी का मत प्रतिशत जरूर कुछ कम हुआ है लेकिन इसका कारण यह है कि पार्टी जहां 2014 के विधानसभा चुनाव में 260 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, वहीं 2019 में शिवसेना से चुनाव पूर्व गठबंधन के चलते सहयोगियों सहित उसके हिस्से में 164 सीटें ही आईं। यदि भाजपा 2014 की भांति अधिकांश सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारती तो नतीजे कुछ और होते। फिर भी यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि दोनों राज्यों में पार्टी ने अपने मुख्यमंत्रियों के साथ वापसी की है।
जहां भारतीय जनता पार्टी में सूबाई छत्रपों और केंद्रीय नेतृत्व में तालमेल रहता है, वहीं कांग्रेस पार्टी ने राज्यों में छत्रपों को कभी अहमियत नहीं दी। दरअसल कांग्रेसी आलाकमान को सदा से यह डर सताता रहा है कि ये छत्रप राजनीतिक रूप से अधिक मजबूत हुए तब नेहरू-गांधी परिवार को चुनौती देने लगेंगे। इसीलिए इंदिरा गांधी के शासन काल से ही ऐसे छत्रपों के पर कतरने की कवायद जारी है।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि इन छत्रपों ने आगे चलकर कांग्रेस पार्टी से अलग होकर क्षेत्रीय पार्टी बनाकर उस राज्य से कांग्रेस की विदाई में अहम भूमिका निभाई। स्पष्ट है इन नतीजों से कांग्रेस हाईकमान को खुश होने के बजाए अपनी आलाकमान वाली राजनीति पर पुनर्विचार करना होगा अन्यथा यही छत्रप एक न एक दिन कांग्रेस के अवसान का काम करेंगे।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)