सत्ता की सियासत में गठबंधनों पर भारी दिलों की दीवारें

नीतीश कुमार जैसे सफल मुख्यमंत्री वापस बीजेपी गठबंधन में लौट आए हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह शायद गठबंधन के बेहतर तौर तरीके और आचार संहिता भी है। पंजाब विधानसभा चुनावों के दौरान बड़ी तादाद में बीजेपी समर्थक चाहते थे कि ये चुनाव अकाली दल को साथ लिए बगैर लड़ना फायदेमंद होगा। पर बीजेपी ने ऐसा ना करके सहयोगी दलों में जहां अपनी साख जमाई वहीं ये संदेश भी दिया कि हार कुबूल है, पर पुराने साथी से धोखा नहीं।

बिहार में चल रहे सियासी उठा-पटक के बीच जो लोग टेलीविजन से चिपके हुए थे, उन्होंने एक दिलचस्प नजारा देखा – महज 60 मिनट के भीतर ही रिश्तों और मर्यादाओं की सीमाएं टूटने का। कुछ देर पहले तक जो लालू यादव नीतीश कुमार को छोटा भाई बताते हुए गठबंधन को अटूट बता रहे थे, वही लालू बदले हुए तेवर में नीतीश को मौकापरस्त और हत्यारोपी तक साबित करने में जुटे हुए थे। उनके बेटे और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी नीतीश चाचा पर खुल कर व्यक्तिगत हमले कर रहे थे।

बिहार विधानसभा के फ्लोर पर नवगठित जेडीयू-बीजेपी सरकार के शक्ति प्रदर्शन के दौरान भी ऐसा ही नजारा देखने को मिला। तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार पर तीखे हमले किए तो नीतीश कुमार ने भी आईना दिखाने की बात कह कर हमले का तगड़ा जवाब दिया। हालांकि नीतीश कुमार संतुलित नजर आए और व्यक्तिगत हमलों से बचते रहे। वे मुद्दों की ही बात करते रहे।  लेकिन बिहार की विधानसभा जिस अंदाज में एक और गठबंधन के असमय खात्मे का गवाह बनी उससे एक बार फिर उन तमाम बेमेल गठबंधनों की याद ताजा हो गई जहां दल तो मिले लेकिन दिल कभी नहीं मिल सके।

सांकेतिक चित्र (साभार : news state)

ऐसे ही एक बेमेल गठबंधन की गवाह रही है उत्तर प्रदेश की विधानसभा। ये था सपा और बसपा का गठबंधन।  सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने की दलीलों के साथ हुआ ये गठबंधन जिस अंदाज में तार-तार हुआ उसे अब यूपी की राजनीति में लोग याद भी नहीं रखना चाहते। तारीख थी दो जून 1995। यूपी की विधानसभा में जो हुआ वो इतिहास में अब काले पन्नों के तौर पर दर्ज है। देश और दुनिया ने लोकतंत्र की जो भयावह तस्वीरें देखीं, वो शर्मसार करने वाली थीं।

नेट पर वे तस्वीरें आज भी उपलब्ध हैं जिनमें यूपी की विधानसभा में सदस्यों ने एक-दूसरे पर माइक से लेकर पेपर वेट तक चलाए। सदन के भीतर जम कर मारपीट हुई। इतना ही नहीं, बीएसपी सुप्रीमो मायावती को गेस्ट हाउस में कैद कर जान से मारने की कोशिश तक की गई। उनके साथ बदसलूकी भी हुई। कुछ कर्तव्यनिष्ठ अफसरों और भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने मायावती की हिफाजत की, तब जाकर उनकी जान बच सकी। इस घटना को गेस्ट हाउस कांड के तौर पर जाना जाता है। इस हमले के सीधे आरोप लगे समाजवादी पार्टी के नेताओं पर और आज भी ये मामला अदालत में विचाराधीन है ।

दरअसल ये सब तब हुआ जब सपा-बसपा के गठबंधन से बनी सरकार से बसपा ने अचानक अपना समर्थन वापस ले लिया। उस वक्त मुलायम सिंह यादव इस गठबंधन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके समर्थकों ने समर्थन वापसी के लिए मायावती को जिम्मेदार माना। और यही वजह है कि इस गठबंधन के टूटने के दौरान रिश्तों की मर्यादा ऐसी तार-तार हुई कि उसके नकारात्मक नतीजे आज भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में देखने को मिलते हैं।  

सांकेतिक चित्र (साभार : गूगल)

2007 और 2012 के यूपी के विधानसभा चुनाव बसपा और सपा ने एक दूसरे का पुरजोर विरोध कर जीत लिए। 2007 में उत्तर प्रदेश की जनता ने सपा को सत्ता से बेदखल करने के नाम पर बसपा को जमकर वोट दे डाला तो 2012 में बसपा सरकार को हटाने के लिए सपा को। बारी-बारी से दोनों ही दलों की पूर्ण बहुमत की सरकारें बनीं। खास बात ये रही कि ये लड़ाई इस मुकाम पर पहुंची कि भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल हाशिए पर चले गए। इन दोनों दलों के परंपरागत वोट बैंक भी सपा और बसपा की खेमेबाजी में साफ तौर पर बंटते नजर आए और भाजपा-कांग्रेस लड़ाई से ही बाहर हो गए।

इन दोनों ही चुनावों के दौरान चुनावी मुद्दों में भी नफरत का जमकर इस्तेमाल हुआ। टीवी के लाइव प्रसारण में दोनों ही दलों के नेता एक दूसरे के खिलाफ जमकर आग उगलते और कई बार तो आपत्तिजनक भाषाओं की हद तक पहुंचने के कारण लाइव प्रसारण ही रोकने पड़े। खुद बीएसपी सुप्रीमो मायावती सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को जेल भेजने के मुद्दे के साथ चुनावी सभाओं में घूमीं तो वहीं अगले चुनाव में सपा के लोग मायावती की मूर्तियों को उखाड़ने के ऐलान के साथ।

दोनों दलों के बीच बिगड़े रिश्तों की हदें तब भी देखने को मिली जब एक वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती ने सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के खिलाफ एक ही दिन में कई मुकदमे दर्ज करा डाले। बाद के दिनों में कुछ अति-उत्साही कार्यकर्ताओं ने सपा सरकार में मायावती की मूर्ति ही तोड़ डाली। हालांकि इस घटना के बाद पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ना सिर्फ मायावती की मूर्ति दुबारा लगवाई बल्कि मूर्ति तोड़ने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की। पर दोनों दलों के बीच चल रहे झगड़े ने दिलों के बीच की गहराई इस कदर बढ़ा दी कि दोनों ही पार्टियों के समर्थकों को भी वक्त-वक्त पर इसके नकारात्मक परिणाम भुगतने पड़े।

सपा सरकारों पर हर बार बसपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों का उत्पीड़न करने के आरोप लगे तो वहीं बसपा सरकारों में हर बार सपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के उत्पीड़न की बात सामने आई। यही वजह है कि अब जब-जब संयुक्त मोर्चा और महागठबंधन के नाम पर बीजेपी विरोधी तमाम दल बीजेपी के खिलाफ सपा-बसपा को एक करने की कोशिश करते हैं, तब-तब इन दोनों ही दलों के सामने यही यक्ष-प्रश्न यही होता है कि इस गठबंधन को सपा-बसपा के कार्यकर्ता और उनके समर्थक दिल से स्वीकार कर पाएंगे भी या नहीं।

1995 के बाद से यूपी में सपा और बसपा की राजनीति का आधार ही एक दूसरे के विरोध की बुनियाद पर ही टिका दिखता रहा है। ऐसे में दोनों ही दलों के नेता भले ही दिल पर पत्थर रखकर एक मंच पर आ जाएं, लेकिन कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच गहरी हो चुकी खाई पाटना उनके लिए एक बड़ी चुनौती होगी। देश में होने वाले तमाम गठबंधनों की दरअसल यही हकीकत भी है। बिहार भी इसी की एक बानगी है।

जिस दिन से बिहार का महागठबंधन हुआ था, उसी दिन से ये सवाल उठने लगे थे कि ये गठबंधन कब तक चलेगा। इस सवाल के पीछे सबसे बड़ी वजह थी नीतीश कुमार का सियासी अंदाज और दोनों दलों के समर्थकों के बीच खड़ी दीवार। शक्ति-प्रदर्शन के दौरान नीतीश कुमार ने इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे गांव देहात से लोगों की शिकायतें आ रही थीं कि उनका उत्पीड़न हो रहा है। फिर नीतीश के लिए छवि हमेशा ऊपर रही और ऐसे में एक ऐसी सरकार जिसपर शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली को संरक्षण देने के आरोप लग रहे थे, भला कैसे टिक पाती। वैसे नीतीश और लालू के रिश्ते तो इस गठबंधन के पहले भी काफी कड़वे ही थे और इसलिए भी ये गठबंधन बेमेल गठबंधन कहलाया।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी

 

बहरहाल, बिहार में महागठबंधन के इस हश्र ने उन तमाम दलों के दिल तोड़ दिए हैं जो लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी का विजय रथ रोकने के लिए गठबंधन की आस बांध रहे थे। सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के सामने है। ‘27 साल यूपी बेहाल’ का नारा देकर समाजवादी पार्टी को घेरने की पुरजोर कवायद के बाद समाजवादी पार्टी के साथ ही गठबंधन कर कांग्रेस 2017 के विधानसभा चुनावों में उतरी थी। राहुल और अखिलेश के लिए नया नारा दिया गया था – यूपी को ये साथ पसंद है। पर यूपी की जनता ने सपा के साथ ही साथ कांग्रेस को बुरी हालत में पहुंचा दिया।

कांग्रेस के भीतर एक बड़े धड़े का मानना है कि इससे बेहतर हालात अकेले चुनाव में उतरने पर होते। पर, कांग्रेस हाईकमान शायद इस बात को नहीं समझ पाया। यूपी में कांग्रेस की उम्मीद अखिलेश थे तो बिहार में लालू यादव। पर, फिलहाल बिहार में भी गठबंधन का किला ढह चुका है और बीजेपी विरोधी अभियान की उम्मीदें भी टूटती दिख रही हैं। बीजेपी की बड़ी ताकत उसके गठबंधन की सफलता भी है। पंजाब और महाराष्ट्र के बाद अब बिहार में नए सिरे से गठबंधन की सफल कहानी लिखकर बीजेपी के मौजूदा रणनीतिकारों ने अपना लोहा मनवा दिया है।

नीतीश कुमार जैसे सफल मुख्यमंत्री वापस बीजेपी गठबंधन में लौट आए हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह शायद गठबंधन के बेहतर तौर तरीके और आचार संहिता भी है। पंजाब विधानसभा चुनावों के दौरान बड़ी तादाद में बीजेपी समर्थक चाहते थे कि ये चुनाव अकाली दल को साथ लिए बगैर लड़ना फायदेमंद होगा। पर बीजेपी ने ऐसा ना करके सहयोगी दलों में जहां अपनी साख जमाई वहीं ये संदेश भी दिया कि हार कुबूल है, पर पुराने साथी से धोखा नहीं। बीजेपी ने कुछ ऐसा ही उदाहरण महाराष्ट्र में भी दिया।

संघर्षों के दिनों में बीजेपी की साथी रही शिवसेना से कई मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद बीजेपी ना सिर्फ शिवसेना के साथ सरकार चला रही है बल्कि मुंबई के मेयर चुनाव में भी उसने गठबंधन धर्म की मिसाल पेश की। यही कारण है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भी बीजेपी शिवसेना को साथ लाने में भी सफल रही है। गठबंधन की राजनीति में ये एक कामयाब प्रयोग है और निश्चित तौर पर इसका फायदा बीजेपी को मिल रहा है।

(लेखक भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता हैं।)